अध्याय 1
श्लोक-1
धृतराष्ट्रउवाच
धर्मक्षेत्रे
कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः
पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।
धृतराष्ट्र ने
कहा -- हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध के इच्छुक (युयुत्सव:)
मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
तात्विक व्याख्या - जो पहले से ही शरीर नामक राष्ट्र में राज्य कर रहा है, वही धृतराष्ट्र यानि मन है । मन, बिना इंन्द्रियों के, भोग नहीं भोग सकता । अत: वह अंधा है । मानव शरीर क्षेत्र है । इसका पहला अंश दस इन्द्रियां बाहरी जगत में क्रिया करती हैं; यह रज-तम गुण प्रधान है । यही ‘कुरूक्षेत्र’ है.
दूसरा अंश रीड़ की हड्डी
है जहाँ मन बुद्धि इंन्द्रियों को सक्रिय करते हैं । यह रज-तम प्रधान ‘धर्मक्षेत्र-कुरूक्षेत्र’ है । तीसरा अंश आज्ञा चक्र
से सहस्त्रार चक्र तक ‘धर्मक्षेत्र’ है जिसमें ज्ञान का प्रकाश विद्यमान है । यह सत-तम प्रधान है । यहाँ समान वायु की स्थिति
है । अज्ञान चक्र को भेदकर परम शिव मिलन की क्रिया ही योगमार्ग है ।
मनोवृत्तियां ही ‘मामका:’ हैं । अंतकरण का जो प्रवाह
इन्द्रियों के विषयों की तरफ है वही मनोवृत्ति है ; कामनाओं का समूह है । यही धृतराष्ट्र
के सौ पुत्र हैं । इन्हें प्रवृत्ति कहते हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान, आलस्य आदि । बुद्धि जो दिखता है उस
पर विचार करती है । नित्य-अनित्य का निश्चय करती है । यही निवृत्ति मार्ग को चुनती
है । विवेक, विचार, वैराग्य, शम, दम, तितिक्षा, श्रद्धा, मोक्ष की चाह को जन्म देते हैं । मन-बुद्धि की क्रिया लगातार जारी रहती
है । विषयों से हटाकर आत्मा में प्रवाहित चेतना ‘योगस्थ’ कर्मावस्था है । इस अवस्था में अतीत
और भविष्य से मुक्ति मिल जाती है । वर्तमान में स्थित रहने से यह चरम निवृत्ति की पहली
सीड़ी या अवस्था है । इस अवस्था में साधक पर पुराने कर्मों के संस्कार आक्रमण करते
रहते हैं ।
मानसिक विकार का फल ‘मामकाः’ और मानसिक विचार का
फल ज्ञान व विवेक वृत्ति ‘पाण्डवः’ है । मन का संकल्प-विकल्प त्याग कर बुद्धि को दृढ निश्चय करना होता है। धैर्य
के साथ क्रिया अभ्यास करते रहने पर साधक ‘ब्रम्हपद - शांति का सागर’ प्राप्त करते हैं ।
मणिपूर चक्र में 10 दल दर्शन के बाद, चित्रा नाड़ी में प्राणवायु का प्रवेश कराने पर कुलकुंडलिनी चैतन्य होती है । ब्रम्हज्ञान, जीव भाव, को निस्तेज कर देता है । यही भीष्म का पतन है । आत्म ज्योति के दर्शन होने पर मानस चक्षु दीखता है । साधक पुराने संस्कारों को याद कर मन ही मन प्रश्न करता रहता है । सभी प्रश्न दिव्य दृष्टि से प्रत्यक्ष उत्तर पाते रहते हैं ।
इसी को गीता में ‘धृतराष्ट्र – संजय संवाद’ कहा गया है । साधक की जागृत
अवस्था धृतराष्ट्र एवं क्रिया योग से प्राप्त
दृष्टि संजय है ।
श्लोक 2
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा
तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य
राजा वचनमब्रवीत्।।1.2।।
संजय ने कहा --
पाण्डव-सैन्य की व्यूह रचना देखकर राजा दुर्योधन ने आचार्य द्रोण के पास जाकर ये
वचन कहे।
तात्विक व्याख्या -मनुष्य वृत्तियों के प्रभाव
से अनके रूप बदलता रहता है । कभी साधक धृतराष्ट्र, कभी संजय, कभी दुर्योधन, अर्जुन, कृष्ण की तरह व्यवहार करता
है । दु:-दुख में, युध्: - युद्ध करना; जिससे बहुत कष्ट से युद्ध किया जा सके, वही दुर्योधन है । कामना ही दुर्योधन
हैं। यही कामांध मन का बड़ा पुत्र है ।
पांडव, कुरूक्षेत्र में सूर्य को देखते हुए
तो कौरव पूर्व दिशा में खड़े होकर सूर्य को पीछे रखकर कुरुक्षेत्र में आमने-सामने खड़े हैं। शरीर क्षेत्र में आध्यात्मिक साधक, विवेक, वैराग्य, शम, दम के साथ निवृत्ति मार्ग
पर बढ़ते हैं तो भोगी विपरीत दिशा में प्रवृत्ति मार्ग पर बढ़ते हैं। एक प्रकाश की
ओर बढ़ता है; दूसरा प्रकाश के विपरीत । जिस प्रकार पौधे की वृद्धि के लिए जड़ें अंधकार
में संघर्ष करती हैं ठीक वैसे ही सृष्टि में नकारात्मक शक्तियां ही सकारात्मक
शक्तियों की आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनिवार्य हैं । दूर्योधन के पांडव सेना को देखने
का अर्थ है, क्रिया अभ्यास की शुरू की अवस्था में वैराग्य वृत्तियां को वासना संस्कार द्वारा
देखा जाना ।
द्रोण कौरव - पांडव दोनों के आचार्य
हैं । द्रोण संस्कार से उत्पन्न बुद्धि है। वह संसारी और विरक्त दोनों की बुद्धि है । बुद्धि शुद्ध न रहने पर, संसार की सीमा में बंधी
रहती है । यही द्रोण का कौरवों का सेनापति होना है । क्रिया अभ्यास की शुरू की अवस्था
में, सांसरिक बुद्धि बलवती रहकर
वैराग्य का पोषण नहीं करती । यही आचार्य के समीप जाना है ।
श्लोक 3
पश्यैतां
पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां
द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।1.3।।
हे
आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र (धृष्टद्द्युम्न) द्वारा व्यूहाकार
खड़ी की गयी पाण्डु पुत्रों की इस महती सेना को देखिये।
तात्विक व्याख्या –धृष्टद्युम्न - चैतन्य ज्योति है जो विवेक
को खिलाती है । अत: धृष्टद्युम्न या चैतन्य
ज्योति द्वारा साधनानुकूल वृत्ति समूह सजाया हुआ है, ऐसा वर्णन किया हुआ है ।
श्लोक 4-6
अत्र शूरा
महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो
विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।1.4।।
इस सेना में
महान् धनुर्धारी शूर योद्धा है , जो युद्ध में भीम
और अर्जुन के समान हैं, जैसे -- युयुधान, विराट
तथा महारथी राजा द्रुपद।
धृष्टकेतुश्चेकितानः
काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च
शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।1.5।।
धृष्टकेतु, चेकितान, बलवान
काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज
और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य।
युधामन्युश्च
विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो
द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।1.6।।
पराक्रमी
युधामन्यु, बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र (अभिमन्यु) और द्रोपदी के पुत्र -- ये सब
महारथी हैं।
तात्विक व्याख्या-युयुधान- श्रद्धा अकेले ही अनंत
विपक्षियों से युद्ध करने की क्षमता रखती है । विराट- समाधि (वि-विगत, राट्- राज्य) जो अपना राज्य दूसरे को देकर सदा अलग
रहते हैं वही विराट हैं । द्रुपद – अन्तयार्मी शक्ति (दु-द्रुत, पद-गमने) विद्युत की तरह तीव्र शक्ति । धृष्टकेतु- यम, जब 6 चक्रों की क्रियाऐं सयंत
होती हैं । चेकितान- स्मृति। साधना में अनाहत नाद से पहले सुनाई देने वाला श्रेष्ठ स्वर। काशीराज- श्रेष्ठ प्रकाश । पुरूजित-प्रत्याहार, इंन्द्रियों के विषयों
से मन को समेटना । कुन्तिभोज - आसन। शैव्य- नियम । युधामन्यु- प्राणायाम, युद्ध सुनते ही जिसका क्रोध उदय होता
है । उत्तमौजा-वीर्य । सौभद्र – संयम, धारणा, ध्यान, समाधि का समावेश । द्रौपदेय-पांच महाभूतों के विकार ।
श्लोक 7
अस्माकं तु
विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका
मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।1.7।।
हे
द्विजोत्तम ! हमारे पक्ष में भी जो विशिष्ट योद्धागण हैं, उनको आप जान लीजिये; आपकी
जानकारी के लिये अपनी सेना के नायकों के नाम मैं आपको बताता हूँ।
तात्विक व्याख्या--द्रोण संस्कार से उत्पन्न
बुद्धि होने के कारण द्विज हैं । ब्राम्हण होकर वेद ज्ञान पाकर, क्षत्रिय वृत्ति का सहारा लेकर धनुर्विद
होने से द्रोण उत्तम हैं। बुद्धि कभी ब्रम्हानंद का भोग करती है कभी संसार बंधन में
पड़कर इष्ट की रक्षा और अनिष्ट का नाश करने के लिए तत्पर रहती है; इसलिए बुद्धि उत्तम है
।
श्लोक 8-9
भवान्भीष्मश्च
कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा
विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।1.8।।
एक तो स्वयं आप, भीष्म, कर्ण, और युद्ध विजयी कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र है।
अन्ये च बहवः शूरा
मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः
सर्वे युद्धविशारदाः।।1.9।।
मेरे लिए प्राण
त्याग करने के लिए तैयार, अनेक प्रकार के
शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित तथा युद्ध में कुशल और भी अनेक शूर वीर हैं।
तात्विक व्याख्या--प्रत्येक शब्द का गूढ़
अर्थ है । भवान् – द्रोण, दो आखें होने पर भी कोए की तरह दोनों तरफ़ न देखकर केवल एक तरफ़ देखने के कारण उपजा
अंहकार । कर्ण- कर्त्तव्य या राग । कृप – कल्पना या अविद्या । अश्वत्थामा - यम , काम , क्रोध का कर्मफल ।
पितामह का दोष गुण पौत्र पर उतरता है । अश्वत्थामा द्वारा परीक्षित के प्राण नाश
की चेष्टा का भावार्थ यह है । विकर्ण- अकर्त्तव्य कर्म या दोष । सौमदति- कर्म या संसार। जयद्रथ- अभिनिवेश या मृत्यु का
भय। शल्य- कांटे जो कष्ट देते हैं । शल्य जीव का संस्कार से प्रेरित कर्म है। क्रिया योग
अभ्यास से यह अंत में आकाश तत्व में लीन होते हैं । इसलिए महाभारत में युद्धिष्ठिर
द्वारा शल्य का वध बताया बया है। कृत वर्मा- शरीर में मोह, आसक्ति। युद्ध विशारद: सभी वृत्तियां सत्कर्म
के पथ पर कांटे की तरह जीव को संसार में बांध कर रखती हैं अर्थात् युद्ध करने में धुरंधर
हैं जिनके कारण जीव की मुक्ति नहीं हो पाती
।
श्लोक 10
अपर्याप्तं
तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं
त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।1.10।।
भीष्म
के द्वारा हमारी रक्षित सेना अपर्याप्त है; किन्तु
भीम द्वारा रक्षित उनकी सेना पर्याप्त है अथवा, भीष्म
के द्वारा रक्षित हमारी सेना अपरिमित है किन्तु भीम के द्वारा रक्षित उनकी सेना
परिमित ही है।
तात्विक व्याख्या धृष्टद्युम्न द्रोण का
शिष्य है, अर्थ है कि चैतन्य ज्योति बुद्धि के द्वारा प्रकाशित होती है। चैतन्य ज्योति
प्रकाशित होने पर बुद्धि को लय करने की चेष्टा में रहती है, तब साधक के मन में वासना
जाकर विषयों की तरफ़ लुभाने के लिए बुद्धि से
कहती है- तुम जिसको प्यार करती हो, तुमसे ही जिसकी बुद्धि है, वह चैतन्य ज्योति ही तुम को नष्ट करने
पर उतारू है । अब उसको सहयोग मत देना, शीघ्र ही उसका विनाश करो । ये वृत्ति समूह महारथी हैं । तब
भी आध्यात्मिक शक्ति के सामने सभी अकिचंन हैं। भीष्म व कर्ण आदि के साथ कामनाओं में
क्षत्रिय बल और ब्रम्ह बल होना है। शत्रु दल परीमित अर्थात् भीम से रक्षित है । भीम
अर्थात् प्राण वायु जो सदा चंचल और अनिश्चित प्रताप है । कर्ण ने प्रतिज्ञा की थी कि
जितने दिन भीष्म युद्ध करेगें, वह उतने दिन शस्त्र नहीं उठाऐगें । भावार्थ है कि जब तक देहाभिमान
रहता है, तब तक साधना के पथ पर कर्त्तव्य कर्म सक्रिय नहीं होते ।
श्लोक 10
अपर्याप्तं
तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं
त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।1.10।।
भीष्म
के द्वारा हमारी रक्षित सेना अपर्याप्त है; किन्तु
भीम द्वारा रक्षित उनकी सेना पर्याप्त है अथवा, भीष्म
के द्वारा रक्षित हमारी सेना अपरिमित है किन्तु भीम के द्वारा रक्षित उनकी सेना
परिमित ही है।
श्लोक11
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु
भवन्तः सर्व एव हि।।1.11।।
विभिन्न मोर्चों
पर अपने-अपने स्थान पर स्थित रहते हुए आप सब लोग भीष्म पितामह की ही सब ओर से
रक्षा करें।
तात्विक व्याख्या—भीष्म की रक्षा करना अर्थात देहाभिमान के प्रबल रहने पर, हजारों ब्रम्हज्ञान के उपदेश भी, वासनाजाल को नष्ट नहीं कर सकते।मेरुदंड
के 6 चक्र ही 6 अयन हैं।प्रत्येक चक्र या
अयन में प्रवृत्ति-निवृत्ति मौजूद हैं।संयम मित्र और लोभ शत्रु है।अश्वत्थामा इन छ: स्थानों में ही हैं।
श्लोक 12
तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं
विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।।1.12।।
उस समय कौरवों में वृद्ध, प्रतापी पितामह भीष्म ने उस (दुर्योधन) के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये उच्च स्वर में गरज कर शंखध्वनि की।
तात्विक व्याख्या-- सिंहनाद- साधना को शुरू की अवस्था में, वायु का निरोध करने पर, साधक, वायु को तीव्रता से छोड़ते हैं, वेग में दीर्घ सांस छोड़ते हैं जो अंदर सिहंनाद सा सुनाई पड़ता है। शंख सी ध्वनि सुनाई देती है। शरीर को यह नाद सुखकर लगता है। वासना की वृत्ति खिलने लगती है कि चलो विषय भोग का सुयोग आ गया। यही दुर्याधन का हर्ष है। उस श्रुतिमधुर को सुनते जाओ तो वह वायु की ताड़ना से मिलकर, अस्पष्ट शब्द में बदल जाता है जिसे तुमुल कहा है ।
1.शांतनु =निर्विकार ब्रह्म चैतन्य
2. गंगा = चैतन्य
प्रकृति
3. भीष्म = आभास
चैतन्य (गंगा के गर्भ से आठ पुत्र हुए,
वे ही सब अष्टवसु हैं अष्टम
का नाम प्रभास अस्मिता)
4. सत्यवती = जड़ प्रकृति
5. वेदव्यास = भेदज्ञान
(पराशर ऋषि के शुक्रजात पुत्र)
6. चित्रांगद = ऐश महत तत्व
7. विचित्रवीर्य = ऐश अंहकार
8. अम्बालिका = निश्चय वृत्ति
9. अम्बिका = संशय वृत्ति
10. धृतराष्ट्र = मन अन्ध:
11. पाण्डु = निर्मल बुद्धि (
पुरुष हो कर भी नपुंसक वत रहे
12. गान्धारी = प्रवृत्ति आसक्ति (ग्रहण, त्याग)
13. कुंती= निवृत्ति में आसक्ति
14. वैश्या = प्रवृत्ति
में आसक्ति
15. माद्री = निवृत्ति आसक्ति
16. दुर्योधनादि =काम-क्रोधादि
17. युधिष्ठिर = आकाशतत्व (शब्द गुण)
18. युयुत्सु = युद्धेच्छा (इसने युद्ध के प्राककाल
में पांडव पक्ष का अवलम्बन किया था।
19. अर्जुन = तेजस्तत्व (शब्द स्पर्श रूप गुण)
20. नकुल = रसतत्व (शब्द स्पर्श रूप रस गुण)
21. सहदेव = पृथ्वीतत्व (शब्द स्पर्श रूप रस गंध
गुण)
22. द्रौपदी = कुलकुण्डलिनी
23. सुभद्रा = अतिशय मंगल शक्ति
24. अभिमन्यु = संयम अर्थात् धारणा-ध्यान-समाधि का एकत्र समावेश।
श्लोक- 13
ततः शङ्खाश्च
भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त
स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।1.13।।
तत्पश्चात् शंख, नगाड़े, ढोल व शृंगी आदि वाद्य एक साथ ही बज उठे, जिनका बड़ा भयंकर शब्द हुआ।
तात्विक व्याख्या-साधना
की इस अवस्था में नाड़ियों में वायु प्रवेश होने पर, तुरी, भेरी, ढक्का,
ढ़ोल, काँसी,
वंशी जैसे नाद सुनाई देते हैं।
श्लोक- 14
ततः
श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः
पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।।1.14।।
इसके उपरान्त श्वेत अश्वों से युक्त भव्य रथ में बैठे हुये माधव (श्रीकृष्ण) और
पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी अपने दिव्य शंख बजाये।
तात्विक व्याख्या --साधक जब ह्रदय में प्रवेश करते हैं, तब किसी एक स्थिति में अटक जाते हैं यही उत्कृष्ट
रथ है। शुभ ज्योति दिखती है जिसे श्वेत अश्व कहा है। यह ज्योति चार दिशाओं में दिखकर
लुप्त होती है। इस ज्योति के बाद ह्रदय में अखण्ड मंडलाकार घोर कृष्ण वर्ण दिखता है।
वही माधव है। मा = लक्ष्मी, सत्वगुणा महाशक्ति (प्रकाश)+ धव = पति । महान प्रकाश जिसकी गोद में प्रकाशित
होता है वही माधव है। कृष्णवर्ण मंडल के अंदर एक उज्ज्वल बिंदु दिखता है जो पाण्डव
अर्जुन है। इसे देखने से मन निष्पंद हो जाता है। तब आकाशवाणी शब्द गूंजता है।
श्लोक 15-18
पाञ्चजन्यं
हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं
दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः।।1.15।।
भगवान् हृषीकेश ने पांचजन्य, धनंजय (अर्जुन) ने देवदत्त तथा भयंकर कर्म करने वाले भीम ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।
अनन्तविजयं राजा
कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः
सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।1.16।।
कुन्तीपुत्र राजा
युधिष्ठिर ने अनन्त विजय नामक शंख और नकुल व सहदेव ने क्रमश: सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये।
काश्यश्च
परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो
विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।1.17।।
श्रेष्ठ धनुषवाले
काशिराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, राजा विराट और अजेय सात्यकि।
द्रुपदो
द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च
महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्।।1.18।।
हे राजन् ! राजा द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र
और महाबाहु सौभद्र (अभिमन्यु) इन सब ने अलग-अलग शंख बजाये।
तात्विक व्याख्या --हृषिकेश - इन्द्रियों के नियंता जिनके तेज से इन्द्रियां सक्रिय रहती
हैं। निचले 5 चक्रों के 5 स्वर मिलकर आज्ञा च्रक में अनुभव में आते हैं इसलिए श्री कृष्ण के शंख को
पांचजन्य कहते हैं ।
धनंजय - जन्म- मृत्यु, सुख-दुख विभूति पर विजय पाना । तेज से ही वायु गतिमान है अत: तेज तत्व को धनंजय कहते
हैं । इसका स्थान मणिपुर चक्र है । यहां वैश्वानर नामक जीवनी शक्ति रहती है । यह सभी
देवताओं का मुख है। मणिपुर चक्र में जो शब्द उठता है वही देवदत्त शंख ध्वनि है। सानंद
सम्प्रज्ञात समाधि अवस्था है।
वृकोदर - वृक नामक अग्नि के पेट
में निवास करने के कारण भीम को वृकोदर कहते हैं। अग्नि, वायु से उत्पन्न हो वायु से ही शमन
होती है। वायु का स्थान अनाहत चक्र है। यहां दीर्घ घंटानाद सुनाई देता है जिसे पौंड्र
शंख ध्वनि कहा है। यह अंहकार वृत्ति या सम्प्रज्ञात समाधि अवस्था है।
महाशंख - आज्ञाचक्र के ऊपर 51 छिद्र युक्त अस्थि है जिसे महाशंख कहते हैं। इसके मध्य बिंदु को
सुमेरू कहते हैं । शरीर का समस्त स्थान ही आहत है केवल दशांगुल परिमित स्थान अनाहत
है। साधना से जब वायु सुमेरू को भेद करके सहस्त्रार में जाती है वही भीम की शंख ध्वनि
है ।
युद्धिष्ठिर - जिसे युद्ध से कोई हटा
न सकें । आकाश स्थिर है। मिट्टी, जल, तेज, वायु, आकाश को चंचल नहीं कर सकते । विशुद्ध चक्र में आकाश तत्व, मेघ गर्जना करता है । इसे
अनंत विजय शंख ध्वनि कहते हैं । इसमें मन लय होने पर असम्प्रज्ञात समाधि अवस्था आती है ।
नकुल - रसतत्व । भोग से रसों का पार नहीं मिलता । रस तत्व ही नकुल है। स्वाधिष्ठान चक्र में, रस तत्व वंशी की तरह सुघोष शंख ध्वनि कर, सविचार सम्प्रज्ञात समाधि अवस्था अनुभव देता है।
सहदेव - पृथ्वीतत्व । पृथ्वी के
साथ जीवात्मा पंच विषयों का खेल खेलती है। इस घनिष्टता के कारण स्थूल शरीर का अभिमान
है । मूलाधार चक्र में, भँवरे के स्वर जैसे गूंज होती है यही मणिपुष्पक शंख है ।
यह सवितर्क सम्प्रज्ञात समाधि अवस्था है ।
आज्ञा चक्र में अकम्पन स्थिति लाभ करने
से ही ज्ञानविज्ञान विद् होते हैं। यहां अति सूक्ष्मकार पंच तत्व वर्तमान रहते हैं।
क्रिया अभ्यास में वायु तेजी से मेरुदण्ड के उपर उठती है। जिस से अलग-अलग नाद सुनायी देते
हैं। आज्ञा च्रक पर ध्यान करने से, वायु का पहला धक्का आज्ञा च्रक में ही अनुभव होता है। अनेक
रंगों की ज्योतियों के दर्शन होते हैं।
श्लोक 19
स घोषो
धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च
पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।1.19।।
वह भयंकर घोष आकाश और पृथ्वी पर गूँजने लगा और उसने धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय
विदीर्ण कर दिये।
तात्विक व्याख्या -नाद सुनने पर साधक का मन
इतना आनंदमय हो जाता है कि उसे हर तरफ़ वही
आनंद मिलने लगता है। तब भी संस्कारवश कभी वासना, कभी वैराग्य भाव प्रकट होता है जिसे
धृतराष्ट्र व पाण्डव कहा गया है।
श्लोक 20
अथ व्यवस्थितान्
दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते
शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।1.20।।
हे महीपते ! इस प्रकार जब युद्ध प्रारम्भ होने वाला ही था कि कपिध्वज अर्जुन ने
धृतराष्ट्र के पुत्रों को स्थित देखकर धनुष उठाकर भगवान् हृषीकेश से ये शब्द कहे।
तात्विक व्याख्या- क्रिया करते समय जीभ को
पलटकर तलुवे पर लगाकर थोड़ा सा बाईं ओर रखने को कपिध्वज अवस्था कहा गया है।
धनुरुद्यमन - रीढ़ धनुष की तरह झुक जाती है। छाती
व मस्तक को सीधा कर ठोड़ी को गले में झुकाना
होता है। प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते – प्रवृत्ति निवृति वृत्तियों की अभिव्यक्ति । इस दृढ संयम
से हषीकेश- ईश्वर का प्राकट्य होता है। संयम की शक्ति हृषिकेश
हैं।
श्लोक 21-23
अर्जुन उवाच
हृषीकेशं
तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये
रथं स्थापय मेऽच्युत।।1.21।।
अर्जुन ने कहा
-- हे! अच्युत मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कीजिये।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं
योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया
सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।।1.22।।
जिससे मैं युद्ध
की इच्छा से खड़े इन लोगों का निरीक्षण कर सकूँ कि इस युद्ध में मुझे किनके साथ
युद्ध करना है।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं
य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य
दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।1.23।।
दुर्बुद्धि
धार्तराष्ट्र (दुर्योधन) का युद्ध में प्रिय चाहने वाले जो ये राजा लोग यहाँ एकत्र
हुए हैं, उन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा।
तात्विक व्याख्या-अर्जुन- साधक की संसार में बंधी अवस्था । साधक की पहली अवस्था है
बालक अवस्था; दीक्षा प्राप्त कर क्रिया अभ्यास द्वारा सुषुम्ना के प्रवेश द्वार तक चेतना
लाना । कूटस्थ में ज्योति दीखने से साधक के हदय में बल का संचय होता रहता है । इसे
ही महाभारत में पाण्डवों का वनवास कहा है। दूसरी अवस्था
में प्राण ब्रम्हनाड़ी में प्रवेश करता है; 24 तत्वों के जिस तत्व से चेतना खेलती
है, वही तत्व चेतनायुक्त होकर
क्रियाशील होता है । इन तीन के अतिरिक्त भी साधक अनेक अवस्थाओं का अनुभव करते हैं ।
सुषुम्ना के अंदर प्रवेश कर साधक, कुटस्थ की स्निग्ध
ज्योति - अच्युत को स्थिर भाव में
रखते हैं । सेनयोरुभयोर्मध्ये - प्रवृत्ति के मध्य विवेक का उदय होना है ।
श्लोक 24-25
संजय उवाच
एवमुक्तो
हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये
स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।1.24।।
संजय ने कहा -- हे भारत (धृतराष्ट्र) ! अर्जुन के इस प्रकार कहने पर भगवान् हृषीकेश ने दोनों सेनाओं के मध्य उत्तम रथ को खड़ा करके
भीष्मद्रोणप्रमुखतः
सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच
पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।1.25।।
भीष्म, द्रोण तथा पृथ्वी के समस्त शासकों के समक्ष उन्होंने
कहा,-- "हे पार्थ ! यहाँ एकत्र हुये कौरवों को देखो"।
तात्विक व्याख्या--साधक क्रिया करके फिर नीचे उतर कर मनोधर्मी होकर दिव्यदृष्टि में देखते हैं, यही संजय उवाच है ।
इन्द्रियों को
जीतने के बाद अर्जुन/साधक आत्मचिंतन करते हैं यही ‘भारत’ अवस्था है । भा- प्रकाश की चमक, रति-आसक्ति – भारत । गुड़ाकेश- (गुडाका नींद या आलस्य+ईश नित्यता) जिसने निद्रा को जीत लिया
। बिना आलस्य के साधना करना गुड़ाकेश अवस्था है । विषयों में लिप्त रहना निद्रा
अवस्था है। विषय वृत्ति मिट जाने पर अकम्पन विश्राम अवस्था को ज्ञानज निद्रा, आत्मनिष्ठा या समाधि
कहते हैं । निद्राजयी साधक अच्युत
अवस्था युक्त है। गुडाकेश अवस्था में
साधक में कूटस्थ से मानस इन्द्रिय को चलाने की शक्ति आने पर उसे हृषिकेश (
इन्द्रिय समूह का नियंता ईश्वर ) कहते हैं ।
रथोत्तम- रथ वह जिसमे चढ़ कर गमन किया जाये ।
मनोमय शरीर दं में रखने से केवल मूलाधार का ज्ञान ; यं में रखने से चार चक्रों - - मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर और अनाहत का ज्ञान;मस्तक ग्रंथि में पं में रखने से, छहों चक्रों का सूक्ष्म तत्व प्रत्यक्ष होता है ।
पं
में साधक कपिध्वज एवं कृष्णसारथी होता है ।
अतः इस स्थान को रथोत्तम कहा है।
उभय सेना- संसार मुखी प्रवृत्ति और असंसारमुखी निवृत्ति । दोनों के मध्य उत्तम ज्योति है ।
प्रकृत्ति सभी की जननी है
।
पृथा =प्रथ (विख्यात होना) + अ (कर्त्तृवाचक) =जो स्वतः विख्यात है
अर्थात प्रकृति ।
पार्थ- पृथा का पुत्र, वह साधक जो प्रकृत्ति को
जननी समझता है । समवेत कौरवों के दर्शन करने का ज्ञान साधक के हदय में जगता है।
श्लोक 26
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः
पितृ़नथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृ़न्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।1.26।।
वहाँ अर्जुन ने उन दोनों सेनाओं में खड़े पिता के भाइयों, पितामहों, आचार्यों, मामों, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, श्वसुरों और सुहृदों को भी देखा।
तात्विक व्याख्या--शरीर में हजारों नाड़ियां हैं । मन बुद्धि के सहयोग से नाड़ियों
में अनेक वृत्तियां जागती हैं, जिन्हें सांसारिक
संबंधों का नाम दिया हैं ।
श्लोक 27
मूल श्लोकः
शुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः
सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।1.27।।
इस प्रकार उन सब बन्धु-बान्धवों को खड़े देखकर कुन्ती पुत्र अर्जुन का मन करुणा से भर गया और विषादयुक्त होकर उसने यह कहा,--
तात्विक व्याख्या-कैवल्य स्थिति में भोग
वृत्तियां नष्ट हो जाती हैं । कौन्तेय अवस्था वह है जब साधक भोग, योग दोनों के प्रति आकृष्ट
होता है । कुंती ने आकर्षण मंत्र द्वारा देवताओं को वश में किया था । अर्जुन/साधक भी कृष्ण/गुरू को अपने वश में करके
भोगी-योगी दोनों ही होने की चेष्टा करते हैं । गुरू ने भोग त्याग का उपदेश दिया – किंतु साधक वासना को ही
प्राण का प्राण मान कर आसक्त होता है, मनमानी करता है ।
श्लोक 28-29
अर्जुन उवाच
कृपया
परयाऽऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
दृष्ट्वेमं
स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।1.28।।
अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा रखकर उपस्थित हुए इन स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुये जाते हैं, मुख भी सूख रहा है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच हो रहा है।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च
शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।1.29।।
अर्जुन ने कहा
-- हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा रखकर उपस्थित
हुए इन स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुये जाते हैं, मुख भी सूख रहा है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच
हो रहा है।
तात्विक व्याख्या--साधक में मानसिक चंचलता
के कारण, शरीर में पसीना निकलना, मुख सूखना, शरीर का कांपना एवं रोमांच होता है । हाथ की मुद्रा ढ़ीली होने
से गांडीव धनुष हाथ में से खिसकने लगता है, शरीर में ज्वाला की अनुभूति होती है । तनी पीठ ही गाण्डीव
है । साधना के ये अनुभव साधक के होते है । संकायशिरोग्रीवँ - शिर काया ग्रीवा यानि सिर-गर्दन को सीधा रखकर क्रिया अभ्यास करना होता है ।
श्लोक 30
गाण्डीवं स्रंसते
हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न
च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।1.30।।
मेरे हाथ से गाण्डीव (धनुष) गिर रहा है और त्वचा जल रही है। मेरा मन भ्रमित सा हो
रहा है, और मैं खड़े रहने में असमर्थ हूँ।
तात्विक व्याख्या --व्याकुल साधक आगे क्रिया
नहीं कर पाते । विपरीत भाव बढ़ने लगता है । प्राण को संशय में डालने वाली यंत्रणा, नरक भोग के समान लगती है
। साधक को लगता है कि वह स्थिर नहीं रह सकते ।
श्लोक 31
निमित्तानि च
पश्यामि विपरीतानि केशव।
न
च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।1.31।।
हे केशव ! मैं शकुनों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ और युद्ध में अपने
स्वजनों को मारकर कोई कल्याण भी नहीं देखता हूँ।
तात्विक व्याख्या--कृष्ण – मुक्ति की इच्छा न होने
पर भी जो महापुरूष खींचकर निर्वाण प्राप्त करा दें, वहीं कृष्ण हैं । साधक उहापोह में कहता
है – हे कृष्ण, प्राणायाम क्रिया द्वारा
वृत्ति समूह को नष्ट करने से किसी प्रकार का कल्याण दिखाई नहीं देता । मुझे विजय नहीं
चाहिए । राज्य सुख भी नहीं चाहिए ।
श्लोक 32-34
न काङ्क्षे विजयं
कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं
नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।1.32।।
हे कृष्ण ! मैं न विजय चाहता हूँ, न राज्य और न सुखों
को ही चाहता हूँ। हे गोविन्द ! हमें राज्य से अथवा भोगों से और जीने से भी क्या
प्रयोजन है?।
येषामर्थे
काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त
इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।1.33।।
हमें
जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि की
इच्छा है, वे ही लोग धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में
खड़े हैं।
आचार्याः पितरः
पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः
श्चशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।1.34।।
वे
लोग गुरुजन, ताऊ, चाचा, पुत्र, पितामह, श्वसुर, पोते, श्यालक तथा अन्य
सम्बन्धी हैं।
तात्विक व्याख्या-गोविंद - पृथ्वी का पालन करने वाला
; साधक कूटस्थ ज्योति के
शरीर रूपी क्षेत्र की गतिविधियों के मूल के रूप में देखने के बाद भी ‘मैं-मेरे’ के भ्रम से नहीं मुक्त
हो पाते (दुविधा में रहते हैं) । साधना का उद्देश्य जन्म-मरण के च्रक से मुक्त होना है । शरीर जन्मता है, बड़ा होता है, रोगी होता है, बूढ़ा होता है और नष्ट
हो जाता है । साधना से शरीर रूपी राज्य स्वतंत्र इच्छा शक्ति के अधीन होता है । साधनापथ
पर भोग त्याग कर, फिर अंहकार का नाश करना पड़ता है । सभी इन्द्रियों को रोक कर, प्राण को मस्तक में स्थापित
करना पड़ता है । इस तपस्या से डर कर साधक जैसा हूं वैसा ही ठीक हूं, सोचकर क्रिया त्याग का
विचार करता है ।
मधुसूदन- अशुभ मधु का नाश करने वाले
ईश्वर । नाड़ियों में प्राण प्रवाह के कारण तरह - तरह के भाव साधक अनुभव करते रहते हैं
।
श्लोक 35
एतान्न
हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि
त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।1.35।।
हे मधुसूदन ! इनके मुझे मारने पर अथवा त्रैलोक्य के राज्य के लिये भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए कहना ही क्या है!
तात्विक व्याख्या-जनार्दन- पुरुषार्थ प्राप्त करने की जो जनों से याचना करते है । साधक का मन कहता है- हे गुरू! हम कठोरता स्वीकार नहीं
कर सकते, ऐसा उपाय कहिये जिससे भोग भी रहे, योग भी रहे ।
श्लोक 36
निहत्य
धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।1.36।
हे जनार्दन !
धृतराष्ट्र के पुत्रों की हत्या करके हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें केवल पाप ही लगेगा।
तात्विक व्याख्या--माधव- लक्ष्मी के स्वामी । साधक का मन कहता है जो त्रिलोक के नियन्ता हैं, वही माधव, योगाचार्य भी हैं । उनमें योग-भोग दोनो हैं ; तो उन्हीं का अनुकरण करना अच्छा है । सब वृत्तियां मेरे अंत:करण में हैं।, साधना पथ पर बाधायें हैं। किंतु इस सब को नष्ट हो जाने पर हम में धर्म कहां रहेगा ? शरीर रूपी संसार, इन्द्रियों के बिना क्षणमात्र भी नहीं चल सकता । इन्द्रियों को रोकने से शरीर में व्याधि हो जायेगी, फिर धर्म साधना कैसे होगी ? कौन सा सुख मिलेगा ? अत: हे गुरू ! इनकी रक्षा करते हुए यदि कोई उपाय हो तो वह कहिये । नहीं तो, इस पाप कर्म में मेरी रूचि नहीं है ।
श्लोक 37-38
तस्मान्नार्हा वयं
हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं
हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।1.37।।
हे माधव ! इसलिये अपने बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना हमारे लिए योग्य नहीं है, क्योंकि स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं
दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।1.38।।
यद्यपि लोभ से
भ्रष्टचित्त हुये ये लोग कुलनाशकृत दोष और मित्र द्रोह में पाप नहीं देखते हैं।
तात्विक व्याख्या-शरीर रूपी राज्य में जीवात्मा कभी भोगी, कभी योगी, कभी चोर वृत्ति धारण करती रहती है ।
साधक कभी घृतराष्ट्र, कभी दुर्योधन, कभी पाण्डव का सा व्यवहार करते हैं । कभी गुरू, कभी शिष्य बन जाते हैं । साधक अर्जुन
बनकर कूटस्थ चैतन्य जनार्दन से कहते हैं - विषय ज्ञान के दल समूह, लोभ के कारण हत्बुद्धि हो गये हैं । युद्ध होने से दोनों पक्षों
का क्षय होगा । मित्रों के वध का पाप लगेगा
। इन लोगों को यह नज़र नहीं आता । किंतु हम लोग जान बूझ कर इस पाप से स्वयं को दूर
क्यों न रखें ?
श्लोक 39
कथं न
ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं
दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।1.39।।
परन्तु, हेे जनार्दन ! कुलक्षय
से होने वाले दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से विरत होने के लिए क्यों
नहीं सोचना चाहिये।
तात्विक व्याख्या-विषय भोग बाहर के संसार
में इन्द्रियों में और अंदर मन से किया जाता है । विषय भोग, 10 इन्द्रियों, 5 प्राणों, मन व बुद्धि इन 17 कलाओं से होता है । वैराग्य
भी इन्हीं से उत्पन्न होता है । यही कुल है । आत्म-युद्ध में इस कुल का नाश किया जाता
है । इन सबके प्रत्येक का एक-एक गुण व धर्म है,- जैसे आंख का धर्म देखना, कान का सुनना आदि । कुल
क्षय होने से 17 कलाओं का सनातन धर्म नष्ट हो जाता है । इस प्रकार कुल क्षय से जो बचा रहेगा
वह सब अर्धम होगा ; उलट-पुलट हो जायेगा ।
श्लोक 40
कुलक्षये
प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे
नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।1.40।।
कुल के नष्ट होने से सनातन धर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्म नष्ट होने पर सम्पूर्ण कुल
को अधर्म (पाप) दबा लेता है।
तात्विक व्याख्या--जिसके गर्भ से संतति जन्म
ले, उसे स्त्री कहते हैं ।
चेतना के संयोग से इन्द्रियां अनेक वृत्तियों को जन्म देती हैं । अत: शरीर व इन्द्रियां सभी
स्त्री हैं । स्त्री दूषित होगी अर्थात् शरीर रोगी हो जायेगा । रोगी होने से वर्णदोष
अर्थात् शरीर का रूप लावण्यादि नष्ट हो जाएगा । शरीर के 24 यंत्र ठीक से कार्य नहीं कर सकेगें
।
श्लोक 41
अधर्माभिभवात्कृष्ण
प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु
दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः।।1.41।
हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं, और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर
वर्णसंकर उत्पन्न होता है।
तात्विक व्याख्या-रोगी शरीर में ब्रम्हज्योति
प्रकाशित नहीं होगी । प्राणायाम नहीं हो सकता । इस अवस्था में स्थूल शरीर का बोध नहीं
रहता । सूक्ष्म शरीर क्रियाशील रहता है । मृत्यु के बाद पितृलोग भी सूक्ष्म शरीर में
कर्मफल भोगते हैं । यह अवस्था पितृ अवस्था की ही तरह सूक्ष्म है । इसलिए इसे पितृ लोगों
का पतन, पिण्ड, उदक, क्रिया का लोप कहा है ।
श्लोक 42
सङ्करो नरकायैव
कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति
पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।1.42।।
वह वर्णसंकर
कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने का कारण बनता है। पिण्ड और जलदान की
क्रिया से वंचित इनके पितर भी नरक में गिर जाते हैं।
तात्विक व्याख्या--वर्णसंकर के विकार से शरीर
काम करने योग्य नहीं रहता । जाति कुल का सनातन धर्म संपादन नहीं हो पाता ।
श्लोक 43
दोषैरेतैः
कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते
जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।1.43।।
इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघाती दोषों से सनातन
कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।
तात्विक व्याख्या--जनार्दन - जन्म को पीड़ित कर मुक्ति देने वाले । कूटस्थ चैतन्य को सम्बोधित
कर कहते हैं - हे जनार्दन, सुना है कि मनोधर्म व्यक्ति
का शरीर, धर्म दूषित होकर, छूटने से, उनके मन में उत्कृष्ट प्रकार की चिंता, अभिलाषा आदि नहीं रहती
। प्रायश्चित करने की शक्ति नहीं रहती । वे सब निरंतर कष्ट भोगते हुए निकृष्ट चिंता
से शरीर त्यागते हैं ।
श्लोक 44
उत्सन्नकुलधर्माणां
मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं
वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।1.44।।
हे जनार्दन ! हमने सुना है कि जिनके यहां कुल धर्म नष्ट हो जाता है, उन मनुष्यों का अनियत काल तक नरक में वास होता है।
तात्विक व्याख्या--मैं योग के जाल में फंस कर
अपने सहजात शरीर को नष्ट कर योग राज्य पाने के लिए हाथ बढ़ा रहा हूं । हाय, क्या महापाप करता हूं ! आप ही अपने शरीर को नष्ट
करता हूं। आत्महत्या कर रहा हूं । कैसा सुख का भोग है, छि: छि: यह धिक्कार भाव, हताशा वश, साधक के अंदर आता है ।
श्लोक 45
अहो बत महत्पापं
कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन
हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।1.45।।
अहो ! शोक है कि हम लोग बड़ा भारी पाप
करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि इस राज्यसुख
के लोभ से अपने कुटुम्ब का नाश करने के लिये तैयार हो गये हैं।
तात्विक व्याख्या--अब योग क्रिया नहीं करूगा, प्राणायाम का शस्त्र धारण
नहीं करूगां । भोग वृत्तियां का नाश कर, जीवंमुक्त नाम पाना अच्छा
नहीं है । इस प्रकार योग अनुष्ठान कर, ब्रम्ह राज्य पाने की कोई ज़रूरत मुझे नहीं हैं ।
श्लोक 46
यदि
मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा
रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।1.46।।
यदि
मुझ शस्त्ररहित और प्रतिकार न करने वाले को ये शस्त्रधारी कौरव रण में मारें, तो भी वह मेरे लिये कल्याणकारक होगा।
तात्विक व्याख्या-रीड़ को ढ़ीला छोड़कर साधक, चिंतायुक्त होकर, चुपचाप बैठ जाते हैं ।
आत्मज्योति का दर्शन होने से पहले, साधक यही अनुभव करते है । शरीर, घुटना, पीठ में दर्द अनुभव होता है
। आसन नहीं लगता। हताश हो जाते हैं ।
श्लोक 47
सञ्जयउवाच
एवमुक्त्वाऽर्जुनः
संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य
सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।1.47।।
संजय ने कहा -- रणभूमि (संख्ये) में शोक से
उद्विग्न मनवाला अर्जुन इस प्रकार कहकर बाणसहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग
में बैठ गया।
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