अध्याय 3
श्लोक 1-2
अर्जुन
उवाच
ज्यायसी
चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं
कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।3.1।।
हे जनार्दन यदि आपको यह मान्य है कि कर्म से
ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर हे केशव आप मुझे इस भयंकर कर्म में क्यों प्रवृत्त करते
हैं?
व्यामिश्रेणेव
वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं
वद निश्िचत्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।3.2
आप इस मिश्रित वाक्य से मेरी बुद्धि को मोहित सा करते हैं अत आप उस एक (मार्ग) को
निश्चित रूप से कहिये जिससे मैं परम श्रेय को प्राप्त कर सकूँ।।
तात्विक व्याख्या--
क्रियायोग में मूलाधार
से आज्ञा चक्र तक प्राण चालन ही कर्म कांड है । कूटस्थ से ऊपर इन्द्रिय निग्रह कर सहस्त्रार
पद में नाद, श्रवण, ज्योति दर्शन कर तन्मय होना बुद्धि की क्रिया- ज्ञानकांड है ।कर्म से ही बुद्धि
का स्फुरण होता है अतः कर्म श्रेष्ठ है बुद्धि से ही ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती
है. इस प्रकार बुद्धि श्रेष्ठा है; साधक को लगता है कि जब कूटस्थ में ध्यान का आनंद है तो प्राण चालन करने का
कष्ट क्यों उठाया जाए ? साधक नहीं समझते कि बिना प्राण चालन के बुद्धि शुद्ध
नहीं होती . साधक कहता है आप ही तो जन्म मरण नाश करने वाले केशव हैं तब मुझे क्यों घोर
कर्म में नियुक्त करते हैं ? योग और सांख्य में
कर्म और ज्ञान में कौन मुक्ति देता है साधक
यह तय नहीं कर पाते हैं ।
श्लोक 3-4
श्री
भगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा
निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन
सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3.3।।
श्री भगवान् ने कहा,- हे निष्पाप (अनघ) अर्जुन इस
श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है ज्ञानियों की
(सांख्यानां) ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से।।
न
कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न
च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।3.4।।
कर्मों के न करने से मनुष्य नैर्ष्कम्य को
प्राप्त नहीं होता और न कर्मों के संन्यास से ही वह सिद्धि (पूर्णत्व) प्राप्त
करता है।।
तात्विक व्याख्या
नि:= निशेष, ष्ठा= स्थिति- निष्ठा । जिस स्थिति की
अवधि नहीं वह है निष्ठा । शरीर में प्राण, चालक शक्ति है, मन चैतन्य शक्ति है । प्राण
में मन देना कर्म योग है । मन में मन देना ज्ञान योग । सुषुम्ना के 6 चक्रों में प्राण में मन
दिया जाता है । आज्ञाचक्र के ऊपर मन में मन देना होता है । दोनों एक ही हैं । ब्रम्ह
विद्या के अधिकारी साधक निष्पाप होने के कारण अनघ है । प्राण चालन के बिना चित्त शुद्धि असंभव होने
से, नैष्कर्म्य अवस्था प्राप्त
नहीं होती । कर्म त्याग करके सन्यासी होने से सिद्धि लाभ नहीं होता । प्राण चालन जरूरी
है.
श्लोक 5-8
न
हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते
ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।
कोई भी पुरुष कभी क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता, क्योंकि प्रकृति से
उत्पन्न गुणों के द्वारा अवश हुए सब (पुरुषों) से कर्म करवा लिया जाता है।।
कर्मेन्द्रियाणि
संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा
मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।
जो मूढ बुद्धि
पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन)
करता रहता है वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है।।
यस्त्विन्द्रियाणि
मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः
कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।3.7।।
परन्तु हे
अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेंन्द्रियों से
कर्मयोग का आचरण करता है वह श्रेष्ठ है।।
नियतं
कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि
च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।3.8।।
तुम (अपने) नियत
(कर्तव्य) कर्म करो क्योंकि अकर्म से श्रेष्ठ कर्म है। तुम्हारे अकर्म होने से
(तुम्हारा) शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।।
तात्विक व्याख्या-
प्राण की क्रिया ‘कम’ है ज्ञानी-अज्ञानी इनके अधीन हैं
। 3 गुणों के अधीन सभी को अवश
होकर यह कर्म करना होता है । सतोगुण में प्राण सुषुम्ना के अंदर क्रिया करता है, रजोगुण में इड़ा, तमोगुण में पिङ्गला में
चलता है । 3 गुणों से अतीत अवस्था प्राप्त किए बिना कर्म त्याग नहीं होता । मन से विषयों
का आकर्षण मिटाये बिना केवल इन्द्रयों का संयम मिथ्याचार है । आसन लगाकर, क्रिया योग अभ्यास से प्राण चालन करना साधक को युक्त बनाता
है । चक्षु, कर्ण, नासिका, और मुख को बंद कर परम पुरुष दिव्य दर्शन होता है जो परमगति है । वही साधक पुरुष
विशिष्ट हैं । कर्मक्षय से जो अकर्म होता है वही परम पद दिलाता है; कुशलता से प्राण चालन अलौकिक
आनंद देता है । यही नियत कर्म है ।
श्लोक 9-11
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र
लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं
कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।।3.9।।
यज्ञ के लिये
किये हुए कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्म में प्रवृत्त हुआ यह पुरुष कर्मों द्वारा
बंधता है इसलिए हे कौन्तेय! आसक्ति को त्यागकर यज्ञ के निमित्त ही कर्म का सम्यक्
आचरण करो।।
सहयज्ञाः
प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन
प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।3.10।।
प्रजापति (सृष्टिकर्त्ता) ने (सृष्टि के) आदि में यज्ञ सहित प्रजा का निर्माण कर
कहा,- इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त हो और यह यज्ञ तुम्हारे लिये इच्छित
कामनाओं को पूर्ण करने वाला (इष्टकामधुक्) होवे।।
देवान्भावयतानेन
ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं
भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।3.11।।
तुम लोग इस यज्ञ
द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार
परस्पर उन्नति करते हुये परम श्रेय को तुम प्राप्त होगे।।
तात्विक व्याख्या-
यज्ञ अर्थात् देवताओं
के लिए आहुति । भगवान कृष्ण ही परम देवता हैं । वहीं कूटस्थ पुरुष हैं । प्राण चालन
ही आहुति है । यही प्राणयोग या अन्तर्योग है । सहस्त्रार में प्राण स्थापित होने पर
अमृत प्रवाहित होता है जिसे जीभ के अगले भाव पर धारण कर वैश्वानर अग्नि में आहुति देनी होती है । यही यज्ञ है । इसी से देवेश्वर विष्णु प्रसन्न
होते हैं । जिस प्राण चालन से यज्ञेश्वर प्रसन्न होते है वहीं तदर्थ कर्म है । तदर्थ
कर्म के सिवाय प्राकृतिक जगत के कर्म बंधन हैं । अत: आसक्ति त्याग कर तदर्थ कर्म का उपदेश
भगवान देते हैं । मातृ प्राण- पितृप्राण के मिलन से शरीर रूपी ब्रम्हाण्ड की सृष्टि होती
है । सप्तधातु युक्त शरीर में 7 स्थानों पर महामाया जगदधात्री 7 स्थानों पर दैवी शक्तियों को सचेष्ट
करती हैं । यही प्रज्ञा सहयज्ञ है । मनुष्य के प्रज्ञापति हैं - जन्मदाता जनक और गुरू ।
गुरू शिष्य को बाहर से अतंजर्गत में प्रवेश का अधिकार देकर दूसरा जन्म देते हैं। 5 देवता- शिव, शक्ति, विष्णु, सूर्य, गणपति, मानव, गंधर्व, किन्नर आदि के आश्रय हैं।
मानव देह में एक परब्रम्ह ही भूलोक-मूलाधार में गणपति, भुर्व लोक- स्वाधिष्ठान में शक्ति, मणिपूर में स्वर लोक सूर्य, महर्लोक - अनाहत में विष्णु: जनलोक में शिव हैं । ये 5 क्षर ब्रम्ह हैं । तपलोक
में आज्ञाचक्र में अक्षर ब्रम्ह की उपासना होती है । सत्यलोक-सहस्त्रार में उत्तम पुरूष
को समझ कर सत्-असत् के परे की स्थिति होती है ।
क्रियायोग अभ्यास से ध्यान
यज्ञ द्वारा देवताओं को जगाना है । जागृत देवगण मनुष्य को मुक्ति देते हैं । पूरक- रेचक
से नाड़ियों में वायु प्रवेश कराकर सभी चक्रों से होते हुए उर्ध्वगति करनी होती है
जिससे देह में स्थित देवी देवता प्रसन्न होते हैं । यही देवताओं को भावना है । तत्वज्ञान
प्राप्त होने से ही देवगण से प्रज्ञा की भावना कहा है । इस प्रकार भावना क्रिया होने
से परम ज्योति तथा तत्वज्ञान एक होने से चिदानंद रूप: शिवोहं हो जाते है ।
श्लोक 12-13
इष्टान्भोगान्हि
वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो
यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।3.12।।
यज्ञ द्वारा
पोषित देवतागण तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे। उनके द्वारा दिये हुये भोगों को जो
पुरुष उनको दिये बिना ही भोगता है वह निश्चय ही चोर है।।
यज्ञशिष्टाशिनः
सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते
ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।3.13।।
यज्ञ द्वारा पोषित देवतागण तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे। उनके द्वारा दिये हुये
भोगों को जो पुरुष उनको दिये बिना ही भोगता है, वह निश्चय ही चोर
है।।
तात्विक व्याख्या -
भावना के 2 प्रकार हैं- स्वाभाविक जो बिना साधना
के होती है । कौशलिक जो साधना से होती है । मानव देह में ह्दय में स्थित देवगण ही जीव
को कर्म फल देते हैं । शरीर में अज्ञात रूप से देवताओं की भावना हो जाती है । बिना
साधना किये ईष्ट प्रसन्न नहीं होते । संकल्प के साथ कौशल का सहारा लेना होता है । साधना
से मन , प्राण, शरीर- सार- सुधा प्रत्येक निर्मल होते हैं । विषय-सुख शरीर को रोगी बनाकर दु:ख देते हैं । देवगुण का पोषण नहीं होने देते । देवताओं को प्रसन्न न करके विषय भोग करना चोरी करने जैसा है
। प्राणायाम यज्ञ है । प्राणस्थिर होना यज्ञ शेष है । इसी शेषभाग का जो भोजन करते है, वहीं पुरूष यज्ञशेष भोजी हैं । वही मुक्त है । भोगी मनुष्य पापाचारी हैं । उनके अंदर
मन चंचल रहता है स्थिर नहीं होता ।
श्लोक 14-15
अन्नाद्भवन्ति
भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति
पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।3.14।।
समस्त प्राणी
अन्न से उत्पन्न होते हैं अन्न की उत्पत्ति पर्जन्य से, पर्जन्य की उत्पत्ति यज्ञ
से और यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होता है।।
कर्म
ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं
ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।3.15।।
कर्म की उत्पत्ति ब्रह्माजी से होती है और ब्रह्माजी अक्षर तत्त्व से व्यक्त होते
हैं। इसलिये सर्व व्यापी ब्रह्म सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।।
तात्विक व्याख्या-
कूटस्थ अक्षर से शब्द
ब्रम्ह या प्रणव उत्पन्न होता है । प्राण ही कर्म है जिसे महामाया कहते हैं । प्राण
से ग्रहण-त्याग क्रिया चलती है । शब्द ब्रम्ह सभी चक्रों में व्याप्त है । आकाश वायु, तेज, जल, मिट्टी में व्याप्त हैं, वायु का स्पर्श, तेज का रूप, जल का रस, मिट्टी की गंध व्योम में
नहीं है । मणिपूर में तेज के प्रभाव से जो वायु प्रवाह चल रहा है उसके आघात से सारे
शरीर में सर्वदा अविराम ध्वनि उत्पन्न होती है । मन की गति बाहर होने पर वह सुनी नहीं
जा सकती । मन को अंदर एकाग्र करने पर, तुमुल की तरह नित्य प्रणव सुनाई देता है । मणिपूर चक्र के
नीचे रजोगुण चंचलता है । मणिपूर से नीचे कर्म क्षेत्र, कुरु क्षेत्र और ऊपर धर्म की
प्रधानता के कारण, धर्मक्षेत्र है ।
श्लोक 16-17-18-19-20-21-22
एवं
प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो
मोघं पार्थ स जीवति।।3.16।।
जो पुरुष यहाँ
इस प्रकार प्रवर्तित हुए चक्र का अनुवर्तन नहीं करता, हे पार्थ! इंन्द्रियों में
रमने वाला वह पाप आयु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।।
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव
च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3.17।।
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमने वाला, आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही
सन्तुष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता।।
नैव
तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न
चास्य सर्वभूतेषु कश्िचदर्थव्यपाश्रयः।।3.18।।
इस जगत् में उस पुरुष का कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं है और न वह किसी वस्तु
के लिये भूतमात्र पर आश्रित होता है।।
तस्मादसक्तः
सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो
ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।3.19।।
इसलिए, तुम अनासक्त होकर सदैव कर्तव्य कर्म का सम्यक् आचरण
करो; क्योकि, अनासक्त
पुरुष कर्म करता हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है।।
कर्मणैव
हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि
संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।3.20।।
जनकादि (ज्ञानी
जन) भी कर्म द्वारा ही संसिद्धि को प्राप्त हुये लोक संग्रह (लोक रक्षण) को भी
देखते हुये; तुम कर्म करने योग्य हो।।
यद्यदाचरति
श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स
यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा
ही अनुकरण करते हैं; वह पुरुष जो कुछ
प्रमाण कर देता है, लोग भी उसका अनुसरण
करते हैं।।
न
मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं
वर्त एव च कर्मणि।।3.22।।
यद्यपि मुझे
त्रैलोक्य में कुछ भी कर्तव्य नहीं हैं तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य
(अवाप्तव्यम्) वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो
भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ।।
तात्विक व्याख्या -
मूलाधार से आज्ञाचक्र तक चेतना लाना अनुवर्तन है। जो यह नहीं करता वह आत्मारामी नहीं हो सकता । अत: उसका जीवन व्यर्थ है । मन-इन्द्रियों में प्राण प्रवाह कार्य करते हैं । मन की, आत्मा के प्रति गति, कर्म है । आत्मारामी के लिए जगत आत्ममय है । आत्मारामी 5 भूतों में विचरण करके भी निर्विकार, निर्लिप्त रहते हैं । जल में कमल की तरह वह विशुद्ध रहते हैं । आत्मारामी कार्य और कर्म अनासक्त भाव से करते हैं । अनासक्ति से मुक्ति लाभ होता है । प्राणायाम तात्विक रूप से हल, शरीर तात्विक रूप से क्षेत्र, सीता तात्विक रूप से शुद्धमति है । अनासक्त साधक तात्विक रूप से जनक है । भूलोक से सत्योक तक, मूलाधार से सहस्त्रार तक लय योग अभ्यास करने वाले, ब्रम्ह में स्थिति रखकर कर्म करते हैं । जन यानि इन्द्रियां जिनका प्रधान है-मन। इन्द्रियां मन के पीछे चलती हैं । मन के सहस्त्रार की ओर उठने पर इन्द्रियां भी तदाकार होती हैं । आसक्ति छोड़ कर प्राण क्रिया करनी पड़ती है । जो अस्तित्व को बनाये रखे वहीं कर्त्तव्य है । मानव के अनेक प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक कर्त्तव्य हैं । शरीर का आश्रय प्राण, प्राण का मन, मन का जीवात्मा,और जीवात्मा का आश्रय परमात्मा है । जीव अल्पज्ञ, एक काल दर्शी है । परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वव्यापी है। साक्षी भाव आने पर कुछ पाने की इच्छा शांत हो जाती है । निर्विकार आनंद शेष रह जाता है ।
श्लोक 23-24-25-26-27-28
यदि
ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम
वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।3.23।।
यदि मैं सावधान हुआ (अतन्द्रित:) कदाचित कर्म में न लगा रहूँ तो, हे पार्थ ! सब प्रकार से मनुष्य मेरे मार्ग (र्वत्म)
का अनुसरण करेंगे।।
उत्सीदेयुरिमे
लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य
च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।3.24।।
यदि मैं कर्म न करूँ, तो ये समस्त लोक
नष्ट हो जायेंगे; और मैं वर्णसंकर का
कर्त्ता तथा इस प्रजा का हनन करने वाला होऊँगा।।
सक्ताः
कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्िचकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।3.25।।
हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म
करते हैं वैसे ही विद्वान् पुरुष अनासक्त होकर, लोकसंग्रह
(लोक कल्याण) की इच्छा से कर्म करे।।
न
बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि
विद्वान् युक्तः समाचरन्।।3.26।।
ज्ञानी पुरुष, कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम
उत्पन्न न करे, स्वयं (भक्ति से) युक्त होकर
कर्मों का सम्यक् आचरण कर, उनसे भी वैसा ही
कराये।।
प्रकृतेः
क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा
कर्ताऽहमिति मन्यते।।3.27।।
सम्पूर्ण कर्म
प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार
से मोहित हुआ पुरुष, "मैं
कर्ता हूँ" ऐसा मान लेता है।।
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा
गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।3.28।।
परन्तु हे महाबाहो ! गुण और कर्म के विभाग के सत्य (तत्त्व)को जानने वाला ज्ञानी
पुरुष यह जानकर कि "गुण ही गुणों में बर्तते हैं",कर्म में आसक्त नहीं
होता।।
तात्विक व्याख्या- विषय में मन रखना तंद्रा , आत्मा में मन रखना जागरण है । मन समाधि में लय होने से, चित्त का अवलंबन रहने से, अतन्द्रित निष्क्रिय अवस्था प्राप्त होती है । प्राकृतिक तत्व एवं आत्म तत्व का मिलन संकर कहलाता है । परस्पर विरोधी मिलन संकर है । संकर होने पर प्रकति सृष्टि मुखी वृत्ति से मुक्त होकर ब्रम्हमुखी वृत्ति होने से प्रज्ञा (जो जन्म ले चुकी हो) अर्थात् जिन वृत्ति से सृष्टि विस्तार होता है, वह सब नष्ट हो जाता है । साधक ‘स्वामी’ हो जाता है,इन्द्रियां भोग का लोभी अविद्वान है । वैराग्य बुद्धि से आत्मानंद लाभ करने वाला विद्वान है । अविद्वान धन, देह, पुत्र, यश में आसक्त रहता है । विद्वान वह सब अनासक्त रह कर करता है । लोक संग्रह का अर्थ है-- लय योग से 6 चक्रों में स्थित लोकों का सहस्त्रार में लय कर ब्राम्ही स्थिति लाभ करना । कूटस्थ में केंद्र में दिखने वाला छिद्र भ्रामरी गुहा कहा जाता है । गुहा का मुख कृष्ण वर्ण है परंतु उसके चारो ओर ज्योति आवरण है । क्रिया अभ्यास करने पर मल, विक्षेप दूर हो जाता है । रेचक-पूरक से प्राण की टक्कर मारना ही कर्म है । ब्रम्हनाड़ी में कर्म करने पर अखंड ज्योति का विकास होता है । भ्रूमध्य में शांभवी प्रयोग करना ही सर्वकर्म समाचरण है । भ्रामरी सुनहरे प्रकाश से व्याप्त हो जाती है । अब धर्म का तत्व प्रत्यक्ष होता है । मस्तिष्क के अंदर अनेक वृत्तियों - राग-द्वेष , माया- ममता, क्षमा - दान आदि की क्रिया होती है, इन्द्रियां संस्कार एवं वृत्ति के अधीन रहकर क्रिया करती हैं । अनुभव से स्पष्ट होता है कि क्रिया में प्रकृति की ही प्रधानता हैं, मैं की नहीं । भ्रम से अहंकार स्वयं को कर्त्ता मानता है । आत्मक्रिया की उन्नति होने पर गुण, कर्म और आत्मा को तत्व ज्ञान होने पर अंह वृत्ति खिल उठती हैं । गुणों की क्रिया संपन्न होते रहता देखने पर, मैं कर्त्ता हूं यह भाव उत्पन्न ही नहीं होता ।
श्लोक 29-30-31-32-33
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः
सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो
मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।3.29।।
प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्म में आसक्त होते हैं, उन अपूर्ण ज्ञान वाले (अकृत्स्नविद:) मंदबुद्धि पुरुषों को पूर्ण ज्ञान प्राप्त पुरुष विचलित न करे।।
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो
भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।3.30।।
सम्पूर्ण कर्मों
का मुझ में संन्यास करके, आशा और ममता से
रहित होकर, संतापरहित हुए तुम युद्ध करो।।
ये
मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो
मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।3.31।।
जो मनुष्य दोष
बुद्धि से रहित (अनसूयन्त:) और श्रद्धा से युक्त हुए सदा मेरे इस मत (उपदेश) का
अनुष्ठानपूर्वक पालन करते हैं, वे कर्मों से
(बन्धन से) मुक्त हो जाते हैं।।
ये
त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि
नष्टानचेतसः।।3.32।।
परन्तु जो दोष दृष्टि वाले मूढ़ लोग इस मेरे मत का पालन नहीं करते, उन सब ज्ञानों में मोहित चित्तवालों को तुम नष्ट हुये ही समझो।।
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं
यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।3.33।।
ज्ञानवान् पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति पर ही जाते हैं, फिर इनमें (किसी का) निग्रह क्या करेगा?
तात्विक व्याख्या -
जो कृत्सन (ब्रम्हाण्ड) को जानते हैं, वह कृत्स्नवित – (कूटस्थ चैतन्य) हैं और अकृस्नवित् (जीव) है । जो आत्म स्थिति पाने के लिए उद्यम नहीं करते, ईश्वर उनकी सहायता नहीं करता अर्थात् कूटस्थ पुरूष उसे आकर्षित नहीं करता , ज्योति विकास कर अँधियारा दूर नहीं करता । वही विषयी अपने को विषय चक्र में घुमाता रहता है । जब चित्त आत्मा के अतिरिक्त और किसी का चिंतन नहीं करता तभी अध्यात्म चित्त होता है । सुषुम्ना में प्राण न्यास करना ही कर्म संयास है । मन को विषयों के चिंतन से रहित करना “निराशी” होना है । मेरा कुछ भी नहीं मानना निर्मम: होना है । विगतज्वर-और क्रिया नहीं कर सकता, कुछ और कर लूं यही भाव विगतज्वर है । मन को कूटस्थ में स्थित कर, आत्म मंत्र उच्चारण करने से ही अध्यात्म चेता होते हैं । गुरू वचन में अटल विश्वास करके साधना करने वाले ही मोक्ष लाभ करते हैं । जो पराये गुण में भी दोष देखते हैं वह असूया युक्त हैं । जो गुरू के उपदेश के अनुसार उत्साह से अनुष्ठान नहीं करते वह उचेतस: या विवेक शून्य हैं । वही विषयी सर्वज्ञान विमूढ़ हैं । सत-रज-तम की साम्य अवस्था ही प्रकृति है । साम्य अवस्था भंग होने पर, प्रकृति परा तथा अपरा दो अंशो में क्रियाशील होती है । क्रियाशील, भूमि, आप, अनल, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार- 8 प्रकार की प्रकृति अपरा है । चेतना “परा” है । दोनों के संयोग से ममैवाशं: जीव निर्मित हैं । प्रकृति जीव को अधीन रखने के लिए अनेक प्रकार की चेष्टा करती है । जागृत जीवात्मा उसके आकर्षण से स्वयं को मुक्त कर आत्मक्रिया में रत रहता है । इन्द्रिय सकल साम्यावस्था प्राप्त करता है । यह अपने आप होता है, निग्रह नहीं करना पड़ता । जीव के परम शिव में अटक जाने पर, चेतना वहीं सिमट जाती है, शरीर में नहीं रहती, इस प्रकार इन्द्रिय सकल निष्क्रिय हो जाती हैं ।
श्लोक 34
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे
रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न
वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3.34।।
इन्द्रियइन्द्रिय (अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय) के विषय के प्रति (मन में) रागद्वेष
रहते हैं; मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो; क्योंकि वे इसके (मनुष्य के) शत्रु हैं।।
तात्विक व्याख्या -क्रिया अभ्यास करते समय
कभी सुखद अनुभूति होती है, कभी निराशा । तब भी संयम रखकर अभ्यास करना चाहिए ।
श्लोक 35
श्रेयान्स्वधर्मो
विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे
निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।
सम्यक् प्रकार
से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को
देने वाला है।।
तात्विक व्याख्या-
आत्मा “स्व” है, सत्-चित्-आनंद रूप है । 24 तत्व विकार शील हैं। तीन गुणों की साम्यावस्था में आत्म धर्म विगुण (विगत गुण) हैं, जीव गुणों की विषमता में सभी कर्म संपन्न होते रहने से पर धर्म (प्रकृति के अधीन) भयानक है । आत्मदर्शन के प्रयास में यदि शरीर का निधन हो जाये, तो भी साधक का भविष्य उज्ज्वल है । त्रिगुणों के अधीन रहकर निधन होने पर जन्म-मरण का चक्र जारी रहता है ।
श्लोक 36
अर्जुन
उवाच
अथ
केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि
वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।3.36।।
अर्जुन ने कहा
-- हे वार्ष्णेय ! फिर यह पुरुष बलपूर्वक बाध्य किये हुये के समान अनिच्छा होते
हुये भी किसके द्वारा प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?
तात्विक व्याख्या-
साधक क्रिया अभ्यास से स्थिर भाव प्राप्त करते हैं । जगत नि:सार लगता है आत्मगति होने पर भी कभी-कभी चचंलता पथ भ्रष्ट करती रहती है, आत्म जिज्ञासा होती है कि ऐसा क्यों हो रहा है ?
श्लोक 37
श्री
भगवानुवाच
काम
एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो
महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।3.37।।
श्रीभगवान् ने कहा -- रजोगुण में से उत्पन्न हुई यह 'कामना' है, यही क्रोध है; यह महाशना (जिसकी भूख बड़ी हो) और महापापी है, इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो।।
तात्विक व्याख्या-
आकांक्षा रजोगुण से उत्पन्न
होकर मन को भटकाती है । कामदेव मन को मोहित कर चेतना की ऊर्ध्वगति को रोकते हैं । अनंतकाल तक
भोग करने पर भी कामदेव तृप्त नहीं होते अत: काम महाशन है । स्थिर न
होने के कारण काम महापात्मा है ; मोक्ष के शत्रु हैं ।
श्लोक 38
धूमेनाव्रियते
वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो
गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।3.38।।
जैसे धुयें से
अग्नि और धूलि से दर्पण ढक जाता है तथा जैसे भ्रूण गर्भाशय से ढका रहता है, वैसे उस (काम) के द्वारा यह (ज्ञान) आवृत होता है।।
तात्विक व्याख्या-
साधना में पहले कर्म द्वारा
अंतराकाश आलोकित होता है । कूटस्थ से चिदाकाश दर्शन होता है । सुषुम्ना में श्लेष्मा
सूखने पर प्राण वायु सूक्ष्म होने से, कश्मल मिट जाते हैं । श्वेत-श्याम- स्वर्ण वर्ण अन्तर्चक्षु दीखता है । आत्म ज्योति
दर्शन ही परम पुरुषार्थ है ।
श्लोक 39
आवृतं
ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण
कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39।।
हे
कौन्तेय ! अग्नि के समान जिसको तृप्त करना कठिन है ऐसे कामरूप, ज्ञानी के इस नित्य शत्रु द्वारा ज्ञान आवृत है।।
तात्विक व्याख्या-
ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता का एक होना समाधि, परम पुरुषार्थ है । लकड़ी
के बिना आग का अस्तित्व नहीं है । काम का आश्रय मन है । मन के आत्मानंद में लय होने
पर काम शत्रु सदा के लिए हार जाता है ।
श्लोक 40
इन्द्रियाणि
मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष
ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।3.40।।
तात्विक व्याख्या -
ज्ञान और काम परस्पर
विरोधी हैं । काम आज्ञा चक्र से बुद्धि क्षेत्र तक आश्रय पाता है इससे ऊर्द्व नहीं । ज्ञान ऊर्द्व
स्थिति रखता है । ज्ञान इन्द्रिय-मन-बुद्धि सहित आत्मा को खिलाता है, देही को सर्वदर्शी करता हैं ।
।।3.40।। इन्द्रियाँ, मन
और बुद्धि इसके निवास स्थान कहे जाते हैं; यह
काम इनके द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके देही पुरुष को मोहित करता है।।
श्लोक 41
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ
नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं
प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।3.41।।
इसलिये, हे अर्जुन ! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके, ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस कामरूप पापी को नष्ट
करो।।
तात्विक व्याख्या -
काम इन्द्रियों के सहयोग
के बिना भोग नहीं कर सकता । काम का नाश या त्याग न करने पर, ज्ञान-विज्ञान की स्फूर्ति नष्ट
हो जाती है । विषय आसक्ति से पाप वृद्धि होती है । आत्मज्ञान ही, तत्व ज्ञान ही, विज्ञान है जिससे मोक्ष लाभ होता है ।
श्लोक 42
इन्द्रियाणि
पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु
परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।3.42।।
(शरीर से) परे (श्रेष्ठ) इन्द्रियाँ कही जाती हैं; इन्द्रियों
से परे मन है और मन से परे बुद्धि है, और
जो बुद्धि से भी परे है, वह है आत्मा।।
तात्विक व्याख्या-
उपनिषद में अंर्तविषय
को अर्थ कहा है । मन अंधा है, बुद्धि प्रज्ञावती है । वायु तत्व की प्रधानता के कारण मन में निरंतर संकल्प -विकल्प चलता रहता है , बुद्धि द्वंदों के मध्य निर्णय लेती
है । आत्मा देह में साक्षी रूप में देही है, जिसे काम विमोहित करता है, किंतु स्पर्श
नहीं कर पाता ।
श्लोक 43
एवं
बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि
शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3.43।।
इस प्रकार बुद्धि से परे (शुद्ध) आत्मा को जानकर आत्मा (बुद्धि) के द्वारा आत्मा
(मन) को वश में करके, हे महाबाहो ! तुम
इस दुर्जेय (दुरासदम्) कामरूप शत्रु को मारो।।
तात्विक व्याख्या -साधक की प्रकृति आत्मामय
होती है । आत्मा निर्विकार है । आत्मा ही काम को जय कर नष्ट करती है । काम दुरासंद
अर्थात् बहुत कठिनाई से अधीन किया जाता है ।
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