अध्याय
13
अर्जुन
उवाच
प्रकृतिं
पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।
एतद्वेदितुमिच्छामि
ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।।13.1।।अर्जुन ने कहा --
हे केशव ! मैं, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान और ज्ञेय को जानना
चाहता हूँ।।
श्री
भगवानुवाच
इदं
शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो
वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।13.2।।
श्रीभगवान् ने कहा -- हे कौन्तेय ! यह शरीर क्षेत्र कहा जाता है और इसको जो जानता
है, उसे तत्त्वज्ञ जन, क्षेत्रज्ञ
कहते हैं।।
क्षेत्रज्ञं
चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं
यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।13.3।। हे भारत ! तुम
समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान
है, वही (वास्तव में) ज्ञान है , ऐसा मेरा मत है।।
तत्क्षेत्रं
यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत्।
स
च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु।।13.4।।
इसलिये, वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है, और जिस (कारण) से जो (कार्य) हुआ है तथा वह
(क्षेत्रज्ञ) भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह
संक्षेप में मुझसे सुनो।।
ऋषिभिर्बहुधा
गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव
हेतुमद्भिर्विनिश्िचतैः।।13.5।।
(क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विषय में) ऋषियों द्वारा विभिन्न और विविध छन्दों में बहुत
प्रकार से गाया गया है, तथा सम्यक् प्रकार
से निश्चित किये हुये युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा (अर्थात् ब्रह्म के सूचक
शब्दों द्वारा) भी (वैसे ही कहा गया है)।।
तात्विकव्याख्या 1-5
भक्ति योग
में प्रतिकूल/ अनुकूल
वृत्तियाँ साधक के अनुभव में आती रहती है| साधक की जिज्ञासा पुनः पुनः प्रश्न करती है; भगवान का उत्तर है- खेत में बीज बोने पर हवा, गर्मी, पानी की सहायता से बीज अंकुरित होते
हैं| शरीर में
गुरु के उपदेश का बीज बोने पर, प्राण योग में एकांतिक इच्छा प्रभाव से, गुण क्रिया के फल से अभीष्ट फल उत्पन्न
होता है |24 तत्वों से
रचित शरीर में पांच कोष, तीन अवस्था है; इससे परे आत्मा है| माया से आकाश, आकाश से वायु, वायु से तेज, तेज से अप अर्थात जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति है| परमात्मा माया का वेत्ता होने से
क्षेत्रज्ञ कहलाता है।
महाभूतान्यहङ्कारो
बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि
दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।13.6।। पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (प्रकृति), दस
इन्द्रियाँ, एक मन, इन्द्रियों के पाँच विषय।।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।
एतत्क्षेत्रं
समासेन सविकारमुदाहृतम्।।13.7।।। इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात (स्थूलदेह), चेतना (अन्त:करण की चेतन वृत्ति) तथा धृति - इस प्रकार यह क्षेत्र विकारों के सहित संक्षेप में कहा
गया अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं
शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।13.8।। अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्य
की सेवा, शुद्धि, स्थिरता
और आत्मसंयम।।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।13.9।। इन्द्रियों
के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि
और दुख में दोष दर्शन...৷৷.असक्ितरनभिष्वङ्गः
पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं
च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।13.10।।आसक्ति
तथा पुत्र, पत्नी, गृह आदि में अनभिष्वङ्ग (तादात्म्य का अभाव); और इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता।।
मयि
चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।13.11।। अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों
के समुदाय में अरुचि।।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं
तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति
प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।।13.12।। अध्यात्मज्ञान
में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह
अज्ञान है।।
तात्विकव्याख्या 6-12
इच्छा =किसी के प्रति आसक्ति; द्वेष =याद कर दुबारा अनुभव ना करने की वृत्ति;सुख =अनुकूल की प्राप्ति ;दुःख =प्रतिकूल की प्राप्ति; संघात = अणु-परमाणु मिलने से एकभाव, संयोग; चेतना= चेतन क्रिया; धृति = धारण करने वाली शक्ति; अमानित्व =भ्रम से मुक्त अवस्था; अदंभित्व= दिखावा कर लोगों को ठगने के भाव का ना
होना ;अहिंसा
अर्थात अंतःकरण में किसी का अनिष्ट ना
करने की वृत्ति;क्षांति = शक्ति होते हुए भी क्षमा भाव। आर्जव = सरलता; आचार्य उपासना =
उपदेशक की सेवा में रत होना; शौच = मल त्याग कर शुद्ध करना; अध्यात्म ज्ञान नित्यत्वं= सब में ब्रह्म दर्शन का भाव अंतः करण
में रखना; सब ब्रह्म
ही है यह बोध निरंतर होता है।
ज्ञेयं
यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।
अनादिमत्परं
ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।।13.13।। मैं उस ज्ञेय
वस्तु को स्पष्ट कहूंगा जिसे जानकर मनुष्य अमृतत्व को प्राप्त करता है। वह ज्ञेय
है - अनादि, परम ब्रह्म, जो न सत् और न असत् ही कहा जा सकता है।।
सर्वतः
पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः
श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।13.14।।
वह सब ओर हाथ-पैर वाला है और सब ओर से नेत्र, शिर
और मुखवाला तथा सब ओर से श्रोत्रवाला है; वह
जगत् में सबको व्याप्त करके स्थित है।।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं
सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव
निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।13.15।।
वह समस्त इन्द्रियों के गुणो (कार्यों) के द्वारा प्रकाशित होने वाला, परन्तु (वस्तुत:) समस्त इन्द्रियों से रहित है; आसक्ति रहित तथा गुण रहित होते हुए भी सबको धारणपोषण
करने वाला और गुणों का भोक्ता है।।
तात्विकव्याख्या 13-15
जानने
योग्य वह है जिसकी उत्पत्ति स्थिति नाश नहीं होता; ब्रह्म सत-असत दोनों का आधार है और दोनों से परे
है| पांच
भूतों से प्राप्त ताप को अधिभूत ; देवताओं से प्राप्त ताप को
आधिदैविक कहते हैं| क्रिया से उदारता व संकुचितता दोनों का नाश होता है साधक स्वयं को 3 तापों से परे अनुभव करता है। पृथ्वी का गंध, जल का रस, तेज का रूप, वायु का स्पर्श, आकाश का शब्द सर्वव्यापी है| तीन गुणों की क्रिया ही माया है; आत्मा ही गुणों की पालक है।
बहिरन्तश्च
भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं
दूरस्थं चान्तिके च तत्।।13.16।। (वह ब्रह्म) भूत
मात्र के अन्तर्बाह्य स्थित है; वह चर है और अचर
भी। सूक्ष्म होने से वह अविज्ञेय है; वह
सुदूर और अत्यन्त समीपस्थ भी है।।
अविभक्तं
च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ
च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।13.17।।
और वह अविभक्त है, तथापि वह भूतों में
विभक्त के समान स्थित है। वह ज्ञेय ब्रह्म भूतमात्र का भर्ता, संहारकर्ता और उत्पत्ति कर्ता है।।
ज्योतिषामपि
तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं
ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।13.18।।
(वह ब्रह्म) ज्योतियों की भी ज्योति और (अज्ञान) अन्धकार से परे कहा जाता है। वह
ज्ञान (चैतन्यस्वरूप) ज्ञेय और ज्ञान के द्वारा जानने योग्य (ज्ञानगम्य) है। वह
सभी के हृदय में स्थित है।।
इति
क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
मद्भक्त
एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।13.19।।इस प्रकार, (मेरे द्वारा) क्षेत्र, ज्ञान
और ज्ञेय को संक्षेपत: कहा गया। इसे तत्त्व से जानकर (विज्ञाय) मेरा भक्त मेरे
स्वरूप को प्राप्त होता है।।
कृतिं
पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च
गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।।13.20।।
प्रकृति और पुरुष इन दोनों को ही तुम अनादि जानो। और तुम यह भी जानो कि सभी विकार
और गुण प्रकृति से ही उत्पन्न हुए हैं।। तात्विकव्याख्या 16-20
सूक्ष्मदर्शी
साधक आत्मा की तत (गुणातीत)
अवस्था को समझते हैं जिसे स्थूल दर्शी नहीं समझ सकते |जैसे धुआं आकाश में रहता है, पर दोनों मिलते नहीं; वैसे ही ज्ञानी माया से लिप्त नहीं
होते| जैसे
स्मृति अतीत के दृश्यों को वर्तमान में अनुभव करवाती है वैसे ही तत अवस्था ज्योतिष
का आधार है| जिसमें
ज्योति है, वही
ज्योतिष| जैसे
सूर्य-चंद्र तारे|तत अवस्था ज्योतिषमानों की भी ज्योति है; ज्ञान की चरम अवस्था के बाद तत अवस्था
आती है जैसे आकाश के गर्भ में पृथ्वी है वैसे ही
तत के गर्भ में सर्व है| माया से धोखा खाकर जो मैं में मिलकर मुक्ति खोजेगा वहीं तत अवस्था का अनुभव कर मैं के भाव में
मतवाला होकर मुझको पाएगा ,भगवान कहते हैं|प्र =प्रकृष्ट पूर्वक; कृति =करते हैं जो; प्रकृति= जो कार्य करता है उसे प्रकृति कहते हैं; पुरुष = पुर ( घर) में जो सोया हुआ है, अनादि, जन्मरहित,
ना आदि, ना अंत है
जिसका |ब्रह्म+ मन =ब्रह्मण ;ब्रह्म = ;धातु में वृद्धि, महान; मन =अवधि रहित; दृश्य जगत में जो कुछ है उसका नाम और
रूप है| ब्रह्म
सत्य, नित्य, निर्विकार है| माया जड़ है ब्रह्मचैतन्य |प्रकृति-पुरुष दोनों अनादि हैं |प्रकृति से समस्त विकार, गुणों की कल्पना है।
कार्यकारणकर्तृत्वे
हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः
सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।13.21।।
कार्य और कारण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और पुरुष सुख-दु:ख के
भोक्तृत्व में हेतु कहा जाता है।।
पुरुषः
प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं
गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।13.22।।प्रकृति में
स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न गुणों को भोगता है। इन गुणों का संग ही इस पुरुष
(जीव) के शुभ और अशुभ योनियों में जन्म लेने का कारण है।।
उपद्रष्टाऽनुमन्ता
च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति
चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।13.23।।
परम पुरुष ही इस देह में उपद्रष्टा, अनुमन्ता
,भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा कहा जाता है।।
य
एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैःसह।
सर्वथा
वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।।13.24।। इस प्रकार पुरुष
और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य जानता है, वह
सब प्रकार से रहता हुआ (व्यवहार करता हुआ) भी पुन: नहीं जन्मता है।।
ध्यानेनात्मनि
पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये
सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।13.25।।
कोई पुरुष ध्यान के अभ्यास से आत्मा को आत्मा (हृदय) में आत्मा (शुद्ध बुद्धि) के
द्वारा देखते हैं; अन्य लोग सांख्य
योग के द्वारा तथा कोई साधक कर्मयोग से (आत्मा को देखते हैं )।।
तात्विकव्याख्या 21-25
मूल
प्रकृति ही विकृत होकर 5 तन्मात्राओं
– शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, बुद्धि, अहंकार सात मूर्तियों में प्रकृति-विकृति कहलाती है, यही कारण हैं |
प्रकृति के 16 रूप और भी हैं-- पांच भूत, पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, एक मन | इन सब से स्थूल शरीर बनता है जिसे कार्य कहते हैं| प्रकृति कार्य -
कारण की उत्पत्ति का हेतु है
पुरुष का कोई कारण नहीं है | जैसे आकाश गोले में गोल, चौकोर में चौकोर रहता है, ऐसे ही पुरुष प्रकृति के आवरण में दोष
रहित रहता है |जैसे आकाश
नीला दिखता है पर होता नहीं, वैसे ही सुख-दुख सब भ्रम की तरह भासते हैं |प्राकृतिक गुणों की बेड़ी से बंधा पुरुष देव, मानव, पशु, पक्षी आदि योनियों में जन्म ग्रहण करता
है| किसान फसल
की, पक्षियों
से रक्षा करने के लिए बिजूका खड़ा करता है| यह बिजूका उपद्रष्टा है; पुरुष भी प्रकृति के कार्य कारण व्यापार का उपद्रष्टा है| बिजूका जंतुओं को भगाकर किसान के काम
का अनुमोदन करता है अतः अनुमन्ता कहलाता
है ;पुरुष भी
प्रकृति के क्रियाकलापों का अनुमन्ता है| सूर्य उदय होने पर तालाब में कमल खिलता
है और सूर्य अस्त होने पर मुदित होता है; सूर्य - कमल की तरह प्रकृति और पुरुष है| सत्य ही मिथ्या का पोषण करता है| सत्य है ब्रह्म;
मिथ्या है प्रकृति; ब्रह्म प्रकृति काभर्त्ता है| जो भोजन करता है, उसे भोक्ता कहते हैं |सूर्योदय अंधकार को खाता है ब्रह्मज्ञान
भ्रमजाल को| अतः
ब्रह्म प्रकृति का भोक्ता है; जो साधक इस ज्ञान को आत्मसात कर लेता है उनका भूत, भविष्य नामक काल विभाग नष्ट होकर
सर्वथा वर्तमान अवस्था आ जाती है| सर्व ब्रह्ममय हो
जाने से उसमें पुनर्जन्म का बीज स्वरूप, वृत्ति का उदय नहीं होता।वह जीवन मुक्त रहता है; पुनर्जन्म नहीं लेता |भगवान साधक का क्रमिक अधिकार भेद बताते
हैं |सुषुम्ना
में प्राण चालन सरल होने पर 1728 बार
चातुर्थिक प्राणायाम करने से आत्मसाक्षात्कार हो जाएगा; विषयमुखी वृत्ति प्रवाहआत्मा के अधीन
हो जाएगा| इच्छा
अनुसार ब्राह्मी स्थिति लाभ होगा| ईश्वर को समर्पित रहकर तन्मयी वृत्ति द्वारा ईश्वर में मिलकर
काल काटने को, कर्म योग
कहते हैं।
अन्ये
त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते।
तेऽपि
चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः।।13.26।।
परन्तु, अन्य लोग जो स्वयं इस प्रकार न जानते हुए, दूसरों से (आचार्यों से) सुनकर ही उपासना करते हैं, वे श्रुतिपरायण (अर्थात् श्रवण ही जिनके लिए परम साधन
है) लोग भी मृत्यु को नि:सन्देह तर जाते हैं।।
यावत्सञ्जायते
किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि
भरतर्षभ।।13.27।। हे भरत श्रेष्ठ ! यावन्मात्र
जो कुछ भी स्थावर जंगम (चराचर) वस्तु उत्पन्न होती है, उस सबको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से
उत्पन्न हुई जानो।।
समं
सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं
यः पश्यति स पश्यति।।13.28।। जो पुरुष समस्त
नश्वर भूतों में अनश्वर परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।।
समं
पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न
हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।। निश्चय ही, वह
पुरुष सर्वत्र सम भाव से स्थित परमेश्वर को समान हुआ आत्मा (स्वयं) के द्वारा
आत्मा (स्वयं) का नाश नहीं करता है, इससे
वह परम गति को प्राप्त होता है।।
प्रकृत्यैव
च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति
तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति।।13.30।।
जो पुरुष समस्त कर्मों को सर्वश: प्रकृति द्वारा ही किये गये देखता है तथा आत्मा
को अकर्ता देखता है,
वही (वास्तव में)
देखता है।। तात्विकव्याख्या 26-30
जिस साधक
में जड़ता अधिक सूक्ष्म तत्व निर्णय करने की शक्ति कम है, वह सांख्य योग से आत्मसाक्षात्कार नहीं कर सकते; विवेक रहित ऐसे साधक उपदेश सुनकर क्रम
से मृत्यु युक्त संसार का अतिक्रमण करते हैं; भक्ति का विकास होने पर उपदेश, नाद में परिणत होता है| नाद सुनने से मन विष्णुपद में लय हो
जाता है; प्रकृति
पुरुष का विश्लेषण करने पर क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का भ्रम
मिट जाता है| पुनर्जन्म
का बीज नष्ट हो जाता है, साधक अनुभव से जानते हैं कि जब क्रिया की परावस्था पाने की
इच्छा ना रखो उस दिन परावस्था प्राप्त हो जाती है; जब इच्छा रखो तब नहीं होती|परं= केवल, श्रेष्ठ; ईश्वर = माया संयुक्त ब्रह्म; प्रकृति में ज्योति नहीं है पुरुष में
है| पुरुष
संयोग से प्रकृति में जो इच्छा- क्रिया- ज्ञान का भ्रम उत्पन्न होता है, प्रकृति उस भ्रम को पुरुष में डालकर
पुरुष की ज्योति अपने में लेकर पुरुष को करता बनाकर आप स्वयंज्योति बन बैठती है| इस द्वयात्मक अवस्था का नाम ईश्वर है; जिस ईश्वर में केवलत्व और श्रेष्ठत्व है
वह परमेश्वर है| ज्ञानी
पर्वत, वृक्ष, पत्थर के अंदर-बाहर महाकाश को देखता है, अज्ञानी नहीं देखता| साधक अभ्यास से समझते हैं इन दोनों
अवस्थाओं को; ब्राह्मी
स्थिति अभ्यास से अनायास ही आ जाती है; त्रिगुणात्मक प्रकृति भगवान की माया है| मैं उस परमेश्वर की ज्योति के बिना कुछ
भी नहीं, ऐसा साधक
अनुभव कर स्वयं को अकर्त्ता मानते हैं।
यदा
भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत
एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।13.31।।
यह पुरुष जब भूतों के पृथक् भावों को एक (परमात्मा) में स्थित देखता है तथा उस
(परमात्मा) से ही यह विस्तार हुआ जानता है, तब
वह ब्रह्म को प्राप्त होता है।।
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि
कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।13.32।। हे कौन्तेय !
अनादि और निर्गुण होने से यह परमात्मा अव्यय है। शरीर में स्थित हुआ भी, वस्तुत:, वह
न (कर्म) करता है और न (फलों से) लिप्त
होता है।।
यथा
सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो
देहे तथाऽऽत्मा नोपलिप्यते।।13.33।। जिस प्रकार
सर्वगत आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, उसी
प्रकार सर्वत्र देह में स्थित आत्मा लिप्त नहीं होता।।
यथा
प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं
क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।13.34।।
हे भारत ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही क्षेत्री (क्षेत्रज्ञ) सम्पूर्ण
क्षेत्र को प्रकाशित करता है।।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं
ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं
च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।13.35।। इस प्रकार, जो पुरुष ज्ञानचक्षु के द्वारा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
के भेद को तथा प्रकृति के विकारों से मोक्ष को जानते हैं, वे परम ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।। तात्विकव्याख्या 31-35संसार, आत्मा से निर्गत अनुभव होने पर, ब्रह्मभाव की प्राप्ति होती है; ब्रह्मभाव से द्वंद अनुभव होने पर विषमता नहीं आती, समदर्शी भाव आ जाता है| आत्मा सभी देहों में रहकर भी, कभी लिप्त नहीं होता, जैसे सूर्य समस्त लोकों को प्रकाशित करता हुआ किसी के साथ लिप्त
नहीं होता वैसे ही क्षेत्री अनंत क्षेत्रों को प्रकाशित करता हुआ भी, लिप्त नहीं होता| ऐसे ज्ञानी साधक मोक्ष लाभ को धारणा, ध्यान, समाधि से प्राप्त करते हैं; शरीर में जीवन मुक्त रहते हैं |देहपात के बाद ब्रह्म में लीन हो जाते हैं पुनर्जन्म नहीं
लेते।
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