अध्याय नवम
श्री
भगवानुवाच
इदं
तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं
विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।9.1।।
श्रीभगवान् ने कहा -- तुम अनसूयु (दोष दृष्टि रहित) के लिए मैं इस गुह्यतम ज्ञान
को विज्ञान के सहित कहूँगा, जिसको जानकर तुम
अशुभ (संसार बंधन) से मुक्त हो जाओगे।।तात्विक व्याख्या 1मोक्ष मार्ग को जानने के बाद साधक को इहलोक में
जीवन मुक्ति पाने का उपदेश दिया गया है।इंदन्तु ते--यह उपदेश अत्यंत गुप्त है; भाषा से नहीं मिल सकता! पानी में गोता लगाने का अनुभव करना होता है । ज्ञान
विज्ञान समझ लो। ज+ञ +आ+ न=ज्ञान; जो=जायमान =उत्पत्ति, स्थिति, नाश
सब कुछ;ञ=गंधानु= शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध
जिसमें है।; आ =आसक्ति।; न= नास्ति।
उत्पत्ति, स्थिति, नाश- दृश्य जगत की किसी भी अवस्था में आसक्ति
ना होना; मृत्यु और निंदा रहित स्थिति ही ज्ञान अवस्था है। विज्ञान -प्रकृति
का विशिष्ट ज्ञान।
विज्ञान सहित ज्ञान पाने के बाद निर्लिप्तता
की बाधा नहीं आएगी क्योंकि प्रकृति की फांस में पड़ कर 'जीव' बन गया
था; समझ आने के बाद ज्ञान पा लिया! ,' शिव' हो गया ! जीवन मुक्ति भी मिल जाती है।
राजविद्या
राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं
धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।9.2।। यह ज्ञान
राजविद्या (विद्याओं का राजा) और राजगुह्य (सब गुह्यों अर्थात् रहस्यों का राजा)
एवं पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष ज्ञानवाला और धर्मयुक्त है, तथा करने में सरल और अव्यय है।।
अश्रद्दधानाः
पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य
मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।। हे परन्तप ! इस धर्म में श्रद्धारहित पुरुष
मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूपी संसार में रहते हैं (भ्रमण करते हैं)।।
मया
ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि
सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।9.4।।
यह सम्पूर्ण जगत् मुझ (परमात्मा) के अव्यक्त स्वरूप से व्याप्त है; भूतमात्र मुझमें स्थित है, परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूं।।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न
च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।9.5।। और (वस्तुत:)
भूतमात्र मुझ में स्थित नहीं है; मेरे ईश्वरीय योग
को देखो कि भूतों को धारण करने वाली और भूतों को उत्पन्न करने वाली मेरी आत्मा उन
भूतों में स्थित नहीं है।।
तात्विक व्याख्या 2-5राज विद्या श्रेष्ठ विद्या है, अति गोपनीय है। बिना ऊपर उठे इसे जाना नहीं जा सकता।
उत्(. ऊर्ध्व)+तम(स्थिति ) =उत्तम
है
। इससे ऊपर कुछ भी नहीं है। जिससे किसी के साथ विरोध उपस्थित न हो, उसी को धर्म कहते हैं। प्रजा, धर्म का परिणाम है। प्रजा की उत्पत्ति, स्थिति, भंग
होता है। जो अपरिणामी है वही धर्म है, अव्यय
है, नित्य है, सुंदर सुख का कारण है ।गुरु उपदेश का पालन करना
श्रद्धा है ।जिस महाशक्ति से विघ्न, बाधा
का विनाश होता है वही श्रद्धा है। जिसमें श्रद्धा नहीं, वही कापुरुष है ।वह जन्म मृत्यु भोग करता रहता है ।पृथ्वी अप्रकाश
है, सूर्य स्वप्रकाश है। सूर्य पृथ्वी मिल कर
भी परस्पर लिप्त नहीं होते। आत्मा भी भूतों से मेल भाव रखकर भी लिप्त नहीं होती। ईश्वर
या आत्मा का योगैश्वर्य देखो ! मिलना
योग कहलाता है, एक पर दूसरे का प्रभुत्व ऐश्वर्य कहलाता
है। प्रकृति भूतों की रानी है। परमात्मा उपाधि रहित हैं। प्रकृति, पुरुष का स्पर्श करते ही भाव विभोर हो जाती है परंतु
परमात्मा निर्लिप्त रहते हैं ।'न च
मत्स्थानि
भूतानि' इसलिए कहा है क्योंकि ईश्वर के सबसे निकट
प्रकृति है। परंतु फिर भी प्रकृति पर परमात्मा का प्रभुत्व है ।परमात्मा या आत्मा भूतों
के जन्म का कारण है। ससीम की माता असीम है। क्योंकि शरीर को जन्म देने वाला आत्मा सीमा
रहित है, जब कि शरीर की सीमा है।
यथाऽऽकाशस्थितो
नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा
सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।9.6।।
जैसे सर्वत्र विचरण करने वाली महान् वायु सदा आकाश में स्थित रहती हैं, वैसे ही सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा तुम जानो।।
सर्वभूतानि
कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये
पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।9.7।।
हे कौन्तेय ! (एक) कल्प के अन्त में समस्त भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं; और (दूसरे) कल्प के प्रारम्भ में उनको मैं फिर रचता
हूँ।।
तात्विक व्याख्या 6-7आकाश असीम है वायु ससीम होकर भी अपने
परमाणुओं में आकाश को धारण कर, असीम
बन जाती है। पर आकाश पर वायु की छाप नहीं लगती। इसी तरह सभी भूतों के अणु परमाणुओं
में परमात्मा व्याप्त होकर भी अव्यक्त, निर्लेप
रहता है। जल का घर समुद्र है ।वायु की शोषण शक्ति से जल शोषित होकर आकाश में उड़
जाता है । पर्वत पर उगे पेड़ों की नई पत्तियों में भी वही महासागर का जल होता है।
वायु से शोषित जल कण मेघ रूप धारण कर वर्षा करते हैं। पेड़ पौधों को वर्षा सींच कर
उगाती है। वर्षा का जल नदी से पुनः मिलकर समुद्र के पास वापस चला जाता है। यह कल्प
आदि और कल क्षय हुआ । इसी प्रकार मन कल्पना परित्याग कर जब बुद्धि का आश्रय करता
है तुरंत बुद्धि अहंकार का आश्रय लेती है । अहंकार ही जीव भाव है। जब तक
साधक चित्त भेद करके विवस्वान के ऊपर के पीठ में प्रवेश ना करें तबतक उनको चित्त के
अधीन रहना होता है। क्रिया की परावस्था भोग करने के बाद भी साधक को पुनः संसार अवस्था
में उतरना पड़ता है, जिसे कल्प आदि कहते हैं। जन्म के बाद कुछ
समय तक साधक परिलीन अवस्था में रहता है जिसे महाप्रलय कहते हैं ।परिलीन अवस्था को ही
कल्पक्षय कहते हैं । प्राकृतिक स्फुरण कल्प का आदि और स्फुरण का लय कल्पक्षय कहलाता है
। मनुष्य का मन जब कल्पना को त्याग कर बुद्धि का आश्रय लेता है, तभी बुद्धि अहंकार का आश्रय लेती है । अहंकार ही
जीवभाव है । जब तक साधक चित्त भेद कर के विवस्वान के ऊपर ना पहुंच जाए तब तक उसे चित्त
के अधीन रहना होता है। क्रिया की परावस्था का अनुभव करने के बाद भी साधक को पुनः संसार
अवस्था में आना होता है। यह कल्पादि हुआ । क्रिया की परावस्था में ब्रह्मत्व का अनुभव
करने के बाद, विवश होकर जो पुनः संसार में लौटना या जन्म
लेना होता है इससे अधिक काल तक परिलीन अवस्था में रहने का नाम महाप्रलय है ।परिलीन
अवस्था को ही कल्पक्षय कहते हैं।
प्रकृतिं
स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं
कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।9.8।। प्रकृति को अपने
वश में करके (अर्थात् उसे चेतनता प्रदान कर) स्वभाव के वश से परतन्त्र (अवश) हुए
इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को मैं पुन:-पुन: रचता हूँ।।
तात्विक व्याख्या 8
जैसे दर्पण में मुख है और गाय के खुर के
जल में आकाश है, वैसे ही चित्त में,'मैं' प्रतिबिंबित
हूं । इस 'मैं' में 'मैं' एक से अनेक की सृष्टि करता हूं। जैसे दूरबीन में अनेक कांच लगाने पर एक
वस्तु के अनेक प्रतिबिंब देखे जा सकते हैं वैसे ही ईश्वर अपनी माया का विस्तार करके
अनंत सृष्टि करता है। जैसे कांच की दूरबीन को घुमाने से अनेक दृश्य दिखते हैं पर मूल
वस्तु वैसे ही बिना हिले डोले अपनी जगह पर रहती है वैसे ही ईश्वर की माया अनंत भ्रम
उत्पन्न करती है। भूतों का ग्राम अर्थात शरीर में इंद्रियों
की क्रियाएं चलती रहती है।
न
च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं
तेषु कर्मसु।।9.9।। हे धनंजय ! उन कर्मों में
आसक्ति रहित और उदासीन के समान स्थित मुझ (परमात्मा) को वे कर्म नहीं बांधते हैं।।
तात्विक व्याख्या 9हे धनंजय! मैं उदासीन रहता हूं, कहने का अर्थ है कि गुरु के उपदेश के अनुसार प्राण
चालन नामक कर्म जब तक किया जा सके तब तक ही रजोगुण की क्रिया है। जैसे-जैसे रजोगुण की क्रिया का अवसान होता जाता है सतोगुण
का प्रकाश बढ़ता जाता है। जब प्रकाश स्थिर हो जाता है तब शुद्ध तम: स्थिति आती है। इस तमो को गुणातीत अवस्था कहते हैं, जिसे कर्म छू नहीं सकते । ईश्वर इसी अवस्था में
अति उच्च पद पर उदासीन वत बैठा है।
मयाऽध्यक्षेण
प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन
कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।9.10।। हे कौन्तेय !
मुझ अध्यक्ष के कारण ( अर्थात् मेरी अध्यक्षता में) प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न
करती है; इस कारण यह जगत् घूमता रहता है।।
अवजानन्ति
मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं
भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।9.11।। समस्त भूतों के
महान् ईश्वर रूप मेरे परम भाव को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मनुष्य शरीरधारी मुझ
परमात्मा का अनादर करते हैं।
मोघाशा
मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं
चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।9.12।। वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अविचारीजन राक्षसों के
और असुरों के मोहित करने वाले स्वभाव को धारण किये रहते हैं।। तात्विक व्याख्या 10-12जिसके पास मन है उसी को मानुष कहते हैं।
मन का धर्म संकल्प - विकल्प है। जिसका अंतःकरण दुर्बल है वही
मूढ़ है ।भोग की लालसा से वह जीवित रहता है लालसा ना रहने पर मर जाता है। इस अवस्था
में जीने वाले मनुष्य संकीर्णचेता हैं। वह अपने दिव्य विराट स्वरूप को नहीं समझते।
अनित्य आशा, अनित्य कर्म, अनित्य ज्वालामयी राक्षसी, आत्मघाती प्रवृत्ति का आश्रय लेना है इसका कारण
है।
महात्मानस्तु
मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो
ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।9.13।। हे पार्थ !
परन्तु दैवी प्रकृति के आश्रित महात्मा पुरुष मुझे समस्त भूतों का आदिकारण और
अव्ययस्वरूप जानकर अनन्यमन से युक्त होकर मुझे भजते हैं।।
सततं
कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च
मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।9.14।।
सतत मेरा कीर्तन करते हुए, प्रयत्नशील, दढ़व्रती पुरुष मुझे नमस्कार करते हुए, नित्ययुक्त होकर भक्तिपूर्वक मेरी उपासना करते हैं।।
तात्विक व्याख्या 13-14 महत् तत्व प्रधान है और मैं आत्मा हूं।
यह मूल प्रकृति या माया जब सब छोड़कर मैं को सामने रखती है तब माया की इस अवस्था
में रहने वाला साधक महात्मा कहलाता है ।तीव्र साधक इस अवस्था को प्राप्त करता है।
इस अवस्था में प्रकृति प्रसव शक्ति त्याग कर पति रता होती है। इसे देही प्रकृति
कहते हैं। साधक सर्व शक्ति कारण 'मैं' को जानकर, अव्यय
निश्चय करके, उसमें मिलने की चेष्टा करते हैं।
प्रकृति ही साधक है । साधक तृतीय नेत्र में प्रवेश कर के
अंदर बाहर अणु परमाणु में मिलाकर आधा 'मैं' होकर निर्गुण ब्रह्म और सगुण साधक एकत्व का अनुभव करते हैं, वही कीर्तन है। साधक की आंतरिक
प्रसन्नता को बाहर का कोई नहीं समझ सकता। यह कीर्तन मन को मतवाला करता है।
निर्गुण ब्रह्म कीनिर्मलता में जिस तरह गुण का विकार नहीं आ सकता, गुण में भी निर्मलता का दीखना, फिर मलिनता में आना, यहीं ऊंचा नीचा हो कर खड़ा होना नमस्कार कहलाता
है। गुरु वचन में अटल विश्वास का नाम भक्ति है। अभ्यास करते - करते प्रकृति परमात्मा में तद्रूप हो जाती है।
ज्ञानयज्ञेन
चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन
पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।9.15।। कोई मुझे
ज्ञानयज्ञ के द्वारा पूजन करते हुए एकत्वभाव से उपासते हैं, कोई पृथक भाव से, कोई
बहुत प्रकार से मुझ विराट स्वरूप (विश्वतो मुखम्) को उपासते हैं।।
तात्विक व्याख्या 15 एक की एक में आहुति देना यज्ञ कहलाता है।
बिल्वपत्र में घी लगाकर अग्नि में डालना हवन कहलाता है । साधना करते करते निज बोध का
प्रकाश व ज्ञान बढ़ता जाता है । ज्ञान में अज्ञान, आहुति की तरह भस्म हो जाता है। यह ज्ञान यज्ञ, उदार है। समझ आता है कि सब कुछ परमात्मा ही है
। ज्ञान जब नहीं था तब 'विश्व' था ।धर्म से भटका साधक गुरु की शरण जाता है। गुरु उसके भाव को समझा कर
उपदेश देते हैं--" वत्स तुम तीन तापों से भरे संसार की ज्वाला
में जलते हुए आए हो तुम्हें मुक्ति चाहिए। जिससे यह तीनों ताप तुम्हें धोखा ना दे सके!" गुरु शिष्य की बहिर्मुखी वृत्ति को अंतर्मुखी कर
चित्त में पहुंचा देते हैं। साधक मूलाधार में ऊपर बैठकर ,अपने अधिष्ठान को स्वाधिष्ठान में प्राप्त कर, मणिपुर में पहुंचकर, अनाहत में ज्योति दर्शन कर तीनों तापों की ज्वाला
से मुक्त हो जाता है । अंदर की ज्योति खिलने पर साधक विशुद्ध, निर्मल हो जाता है। अज्ञान नष्ट हो जाता है। ज्ञान
में अज्ञान की आहुति होने पर साधक अनुभव से सब कुछ समझ जाता है।
अहं
क्रतुरहं यज्ञः स्वधाऽहमहमौषधम्।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं
हुतम्।।9.16।। मैं ऋक्रतु हूँ; मैं
यज्ञ हूँ; स्वधा और औषध मैं हूँ, मैं
मन्त्र हूँ, घी हूँ, मैं अग्नि हूँ और हुतं अर्थात् हवन कर्म मैं हूँ।।
तात्विक व्याख्या 16 2 को द्वैत 1 को अद्वैत
कहते हैं। वेद में बताई गई क्रिया को कृतु कहते हैं। कृतु सोमरस साध्य है ।सोम कहते
हैं चंद्रमा को। चंद्रमा से झरने वाली सुधा को पुष्टि या अमृत कहते हैं। शरीर में जठर
अग्नि भोजन को पचाती है । पचे हुए भोजन के अंश प्रकृति के अनुसार, ठोस, जल, वायु में परिवर्तित हो जाते हैं। जिस अंश को अग्नि
क्षय नहीं कर सकती उसे अमृत कहते हैं ।अमृत मेरुदंड के मार्ग से, वायु के सहारे, शरीर के सभी अंगों में अणुओं से संयोग करके, क्षय के अंश का आपूरर्ण करके, सहस्त्रार में मूल त्रिकोण में पहुंचता है। त्रिकोण के तीन द्वार हैं जो इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना में खुलते हैं। इड़ा नाड़ी से प्रवाहित होने वाली
धारा शरीर को पुष्टि देती है। साधक देखते हैं कि बाईं नाक से श्वास बहने पर भूख लगती
है। जीभ को गले में प्रवेश कराकर तालु पर लगाकर बाईं तरफ़ झुकाने से सुधा कूप अर्थात
ब्रह्मरंध्र का पता लगता है ।यहां से अमृत पिंगला नाड़ी में जाता है । जीभ से पिंगला
का द्वार रोकने पर, जीभ के अगले भाग को दांत से दबाने से एक
योनि स्थान दिखता है ।उस योनि में सुधा कूप में स्थित लिंग का संयोग होने पर सुधाक्षरण
प्रवाह होता रहता है । वह सुधा जीभ के सहारे जठरा में आकर वैश्वानर अग्नि में पड़ती
है ।वैश्वानर इसको पचा नहीं सकता ।अतः सुधा वैश्वानर को तृप्त कर के मेरुदंड के मार्ग
से शरीर के सभी अंगों के अणुओं को पुष्टि देती है। फिर सहस्त्रार के मूल त्रिकोण में
उठती है। बार-बार यह होता रहता है ।साधक के इस अवस्था
में आने पर अपक्षय शून्य हो जाता है ।अपक्षय शून्य होना है परिणाम शून्यता है । ग्रहण
परित्याग शून्यता ही अपरिणामी है। जो अपरिणामी है वही सत्, ब्रह्म या मैं हूं ।अहम् कृतु का अर्थ अब साधक समझ
लेते हैं ।
अहम यज्ञ:-- आदान-प्रदान को यज्ञ कहते हैं। जिसका आश्रय
लेकर सभी यज्ञ होते हैं वही विष्णु है ।विष+ण+उ-- विष
का अर्थ है व्याप्ति या व्यापन ।ण का अर्थ है निर्गुण, उ का अर्थ है पांच देव --शिव, शक्ति, गणेश,विष्णु,सूर्य अर्थात समष्टि। इस अवस्था में सब एक हैं।
किसी गुण की क्रिया नहीं होती ।विश्व व्यापक चैतन्य आत्मा ही विष्णु है। शरीर नामक
विश्व में आदान-प्रदान रूप पुष्टि क्रिया हीपालन है। जिस
चैतन्य सत्ता से वह पालित,
संपादित होती है वही विष्णु है ।विष्णु
ही यज्ञेश्वर है अतः वह यज्ञ भी मैं हूं।
अहम स्वधा--स्वधा अग्नि देवता की पत्नी है। अग्नि का नाम तेज
है ।यह तेज सोहागिनी शक्ति मैं हूं। जीवत्व से ब्रह्मत्व की यात्रा में चित्त के ऊपर
दिशा में उठने में जो महाशक्ति सहायता करती है वही स्वधा है। स्व शब्द में अपना; एक जगह से चलकर चलते-चलते तदाकार और विश्राम भूमिका में उपनीत होने का
नाम धाम है। सृष्टि सुख भोगने के लिए मैं आत्महारा होकर दौड़ा था, सृष्टि भोग के पश्चात मैं को उसी 'मैं' में
पहुंचना है इसलिए मैं स्वधा हूं।
अहम औषध:-- जो रोग का नाश करके जीव को बचाए वह औषध है। जीव का कार्य जन्म मरण भोग
है। यही भव व्याधि है इस व्याधि के वैद्य श्री गुरु महाराज हैं
।उनके श्रीमुख जो मैं वाचक शब्द हैं वही औषध है। वह शब्द, अभ्यास करते रहने पर जीवत्व की क्रिया शेष करा कर
मैं का मूल, 'मैं' में मिला देते हैं इसलिए औषध भी मैं हूं।
अहम् मंत्र:--जो मन का त्राण करें मन को मुक्त करें दुविधा से
छुटकारा दिलाए वही मंत्र है। मन का धर्म संकल्प- विकल्प है। जब साधना से मन वृत्ति शून्य हो जाता है, तब मन की निवृत्त अवस्था ही मैं हूं।
अहम् आज्यं--हवि को आज्य कहते हैं। जो पुनर्भव है वही हव है।
हवन में होम की गई सामग्री सूक्ष्म तत्व में विलीन होकर पांचों तत्वों का शोधन करती
है।पांचों तत्व नवीन शक्ति से शक्तिमान होकर सहस्त्र मुख से क्रिया करने लगते हैं।
इस क्रिया से समस्त प्रजा-
शरीर में, समय के अनुसार आवश्यक शक्ति का संचार होता है। इसलिए
प्रजा फिर नवीन प्रजा को उत्पन्न करती है । यह बाहरी जगत की क्रिया है ।अंतर्जगत में
जब साधक मैं का 'मैं' में हवन करता है तब आत्ममय होकर विश्वरूप अनुभव करता है।
अहम अग्नि--जो अपने उत्पत्ति स्थान को खा जाता है योनिभुक होता
है, उसे अग्नि कहते हैं । काष्ठ के भीतर अग्नि
है ।2 काष्ठ घिसने पर अग्नि निकल आती है। जब तक
काष्ठ और अंगार रहता है तब तक अग्नि का नाम ऊर्द्ध शिख है क्योंकि इसकी शिखा ऊंची दिशा
में है। जब मैं ने माया के गर्भ में प्रवेश किया तब वह काष्ठ में अग्नि की तरह था।
जब गुरुदेव ने आत्ममुखी और सृष्टि मुखी वृत्ति को एक करके रगड़ दिया तब ज्ञान की अग्नि
जल उठी। माया भस्म हो गई । मैं ऊंची अवस्था में पहुंचकर विश्राम पा गया ।अतः अग्नि
भी मैं हूं।
अहम् हुतं--हुत हवन कार्य को कहते हैं।जिस गुरु उपदिष्ट क्रिया
से जगत व्यापार को मैं में,
अर्थात ब्रह्माग्नि में आहुति देकर मुक्ति
ली जाती है, वही क्रिया है। वह क्रिया भी मैं हूं।
पिताऽहमस्य
जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं
पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च।।9.17।। मैं ही इस जगत्
का पिता, माता, धाता (धारण करने
वाला) और पितामह हूँमैं वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ, पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद
और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।।
तात्विक व्याख्या 17 श्लोक 17
जो जाता है वह जगत है ।जो जाता है उसका
उत्पत्ति कर्ता मैं हूं । क्योंकि चित्त में प्रतिबिंबित होकर मैं जो, मैं कह कर अहंकार करता हूं उसकी, अहंकार से ही सृष्टि होती है ।इसलिए मैं सृष्टि
का पिता व जनक हूं ।जो जिस के गर्भ में जन्म लेता है वही उसकी माता है। मैं असीम हूं।
असीम जगत मेरे अंदर ही रह रहा है इसलिए मैं माता हूं ।साधक! अपने अनंत विश्राम को अल्पविश्राम में मिला लो, केवल मात्रा का प्रभेद है।
धाता-- जो धारण करके रहता है उसे धाता कहते हैं। मैं समस्त
को अपने गर्भ में धारण करके रहता हूं अतः मैं धाता हूं।पितामह -सृष्टि के पहले जब माया मुझसे पृथक नहीं हुई थी
खारे जल की तरह मुझ में घुली हुई थी वही एक मैं हूं। पुरुष से प्रकृति, फिर त्रिगुणात्मक सृष्टि, अनंत रूपों में अभिव्यक्त हुई। सबका आदि मैं
पितामह हूं ।वेद्यं जो जानने में आए वही ज्ञेय है। जो जानता है वही वेद्यं है
।साधक अनुभव से जान लोकि लवण सागर मैं के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।इसलिए मैं वेद्य
हूं ।जिसके उच्चारण से अति सूक्ष्म अवस्था से खींचकर अति स्थूल अवस्था दिखला कर पुनः
उसी अति सूक्ष्म में फेंक कर निरंतर रक्षा कर के दर्शन करता है वही प्रणव मैं हूं।ऋक--ऋ अर्थात पावन, क अर्थात सृष्टिकर्ता ब्रह्मा। ब्रह्मा को जो पावन करता है वह ऋक अर्थात
वेद है ।स्थूल शरीर धारी ज्ञान द्वारा मुक्ति लाभ करते हैं। विचार से ज्ञान की उत्पत्ति
होती है। कर्म का अर्थ लक्ष्य कर चलने का नाम विचार है। इसलिए ऋक कर्मकांड प्रधान, उपासनामय, सृष्टि
आडंबर है। इसका बीज अहंकार है इसलिए मैं हूं।साम= स +आ+म। से=सूक्ष्मश्वांस, आ =आसक्ति, म= मणि।
सूक्ष्म श्वांस में आसक्ति होने पर श्वास स्थिर हो जाने के बाद स्वच्छ आवरण के मध्य हीरे
के समान शुभ्र ज्योति प्रकाशित होती है उस ज्योति
में मैं और मेरे का भेद समझा जाता है ।साधक इसे ज्ञान लोक कहते हैं। जिस आलोक की शिखा
देखने की चेष्टा करने पर सदा पश्चिम मुखी है वही साम है । वह ज्योति ही मैं हूं ।अतःसाम
हूं ।यजु:-- य+ज्+उ:। य= स्वरूपे, ज= जायमान,उ= स्थिति का स्थान । साधना के समय योनि के मध्य में
जो ज्योतिर्मय स्वरूप दिखाई देता है जिसे आत्मदर्शन कहते हैं जब मैं देह नहीं हूं, मेरी देह भी नहीं है। मैं दोनों से परे हूं। मैं
कुछ ना कर के भी देह को धारण कर रहा हूं, स्पष्ट
समझ में आता है। वही साक्षात ज्ञान स्वरूप यजु: मैं
हूं। यह दक्षिण दिशा में दिखता है अतः साधक इसे दक्षिण आम्ना कहते हैं।
गतिर्भर्ता
प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः
प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।9.18।।
गति (लक्ष्य), भरण-पोषण करने वाला, प्रभु (स्वामी), साक्षी, निवास, शरणस्थान
तथा मित्र और उत्पत्ति, प्रलयरूप तथा स्थान
(आधार), निधान और अव्यय कारण भी मैं हूँ।।
तात्विक व्याख्या 18
परिणाम को गति कहते हैं ।जो भरण पोषण करें
वह भर्ता है। प्रभु अर्थात स्वामी साक्षी अर्थात देखने वाला निवास अर्थात जिसके अंदर
कोई वास करें। जिसके पास जाने से विपत्ति से रक्षा होती है वह शरण कहलाता है ।जो जाता
है वह जगत है ।इस जाने वाले के भ्रम से मुक्ति होने पर चिरंतन प्रकाश प्राप्त होता
है। इस चिरंतन प्रकाश में भेद नहीं है चंचलता नहीं है ।इसलिए चिरंतन स्वपद है। जिसका
विपरीत विपद है। मैं चिरंतन,चिर
विद्यमान इस जगत का विपद से परित्राण कर्ता मैं हूं ।
सुहृत-- इस जगत से प्रति उपकार का प्रयोजन मेरा नहीं है
।मैं सर्वदा जगत का कल्याण करता हूं ।अतः में जगत का सुहृत हूं,जीव रूप में नाचता हूं। मैं जगत का अस्तित्व संपादन
कर रहा हूं। मैं जगत के मत से मत मिला रहा हूं। सदैकानुमत:सुहृत जीते रहने का नाम कल्याण है और मृत्यु का
नाम अकल्याण है ।
प्रभव अर्थात महामाया हमको जगत रूप से प्रसव करती है और मैं जगत रूप से उत्पन्न
होता हूं इसलिए प्रभव भी मैं हूं।
प्रलय अर्थात विश्व कल्प के अंत में हम ही में
विश्राम करता है इसलिए मैं ही प्रलय हूं ।
स्थान अर्थात आधार ।यह जगत मुझ में ही भासमान
है अतः मैं स्थान हूं।
निधान अर्थात सभी क्रियाओं की परिसमाप्ति जिसमें
होती हो। जगत का कार्य शेष होने से एकमात्र मैं ही मैं रहता हूं ।
बीज अर्थात जिससे जगत की उत्पत्ति होती
है। मैं को कोई नहीं समझा सकता। मैं अव्यय अर्थात विकार विहीन
हूं।
तपाम्यहमहं
वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं
चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।9.19।।हे अर्जुन ! मैं
ही (सूर्य रूप में) तपता हूँ; मैं वर्षा का
निग्रह और उत्सर्जन करता हूँ। मैं ही अमृत और मृत्यु एवं सत् और असत् हूँ।
तात्विक व्याख्या 19 सृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी के ऊपर पहली अशरीरी वाणी
तप है ।साधक जब नाद में प्रवेश करता है तो उसको ज्योति प्रत्यक्ष होती है ।उस ज्योति
के दर्शन मात्र से मन संकल्प विकल्प छोड़कर ज्योति में आकर्षित हो जाता है ।मन का अभाव
होने के बाद शरीर वाणी सब विस्मृत हो जाते हैं ।जगत व्यापार मिट जाने से अंतःकरण का
आवरण खुल जाता है ।यही समाधि स्थिति क्रिया की परावस्था है। यही आकर्षण या तापन है; जैसे सूर्य किरण से समुद्र के जल का अपहरण । वर्ष
अर्थात विकर्षण या स्त्राव। समाधि में चित्तलय की अवस्था में संसार बीज रहता है, क्योंकि शरीर का शेष निश्वास ना फेंक
करके
यह अवस्था आती है ।इसलिए पुनः संसार अवस्था में आना पड़ता है ।इस आने को विकर्षण या
वर्षण कहते हैं ।यह प्रकृति की संसार मुखी गति या निश्वास है।
निग्रह =नि:=नास्ति;ग्रह= ग्रहण
। जहां ग्रहण नहीं है, त्याग भी नहीं है। गृहण- त्याग शून्य अवस्था है निग्रह या प्रलय। प्रकृति
का विलय, प्रलय कहलाता है ।प्रकृति का स्फुरण सृष्टि
है। यह दोनों ही मुझसे होती हैं। संसार जाल समेटकर जब प्रकृति मुझ में विश्राम करती
है तब ही अमृत्व और सत अवस्था होती है। मुझ से खिसक कर जगतजाल का विस्तार असत् या मर
अवस्था है । जिसकी तीनों काल में विद्यमानता नहीं है वही है असत। यीशु ऊंची नीची दोनों
अवस्थाओं का आधार है इसलिए सत-असत
सबका वही आधार है।
त्रैविद्या
मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा
स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते
पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक
मश्नन्ति
दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।9.20।। तीनों वेदों के
ज्ञाता (वेदोक्त सकाम कर्म करने वाले), सोमपान
करने वाले एवं पापों से पवित्र हुए पुरुष मुझे यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग
प्राप्ति चाहते हैं; वे पुरुष अपने
पुण्यों के फलरूप इन्द्रलोक को प्राप्त कर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोग भोगते
हैं।।
तात्विक व्याख्या 20 क्रिया साधना की अवस्था में ब्रह्मा विष्णु
महेश तीनों देवताओं की पृथकता समाप्त हो जाती है। माया की इस अति उच्च अवस्था को त्रैविद्या
कहते हैं। इस अवस्था में सहस्त्रार से सुधा प्रवाहित होती है ।तब साधक सोम पायी कहलाता है ।चंचलता समाप्त होने से साधक निष्पाप
हो जाता है। सुधा का प्लावन ही यज्ञ है। यह सुख
जगत के किसी सुख से नहीं मापा जा सकता अतः इसे देवभोग
कहते हैं। जो आठों प्रहर क्रिया कर सके वही शूरवीर है। जिसका एक भी निश्वास व्यर्थ
ना जाए वही सुरेंद्र है। यह अवस्था निर्बीज समाधि से पहले की है।
ते
तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे
पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एव
त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं
कामकामा लभन्ते।।9.21।। वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर, पुण्यक्षीण होने पर, मृत्युलोक
को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे गये कर्म के शरण हुए और भोगों
की कामना वाले पुरुष आवागमन (गतागत) को प्राप्त होते हैं।।
तात्विक व्याख्या 21पुण्य={ पु+ण+य }पू=पुंज
अर्थात
मल, मूत्र युक्त देह।ण=निर्वाण, य=स्वरूप। मल, मूत्र
युक्त देह छोड़कर स्वरूप में स्थित
होने को पुण्य कहते हैं। इस
अवस्था का ना होना ही पाप है। स्वरूप में स्थिति अनंतता या ब्रह्मत्व है। यह तरंग
रहित, अवधिरहित,विस्तीर्ण है । जब तक साधक सबीज समाधि में इस ब्रह्म
संस्पर्श सुख का अनुभव करते हैं तब तक माया विकार का स्मरण नहीं
होता। अवस्था जाने
पर देह अभिमान आ जाता है। स्थिरता और चंचलता दो स्तर या स्वर्ग के दो प्रकार हैं ।इस
में आने जाने के लिए क्रिया अभ्यास करना साधक का काम है।
अनन्याश्चिन्तयन्तो
मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां
नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।। अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन
मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त
पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।।
येऽप्यन्यदेवता
भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।
तेऽपि
मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।। हे कौन्तेय ! श्रद्धा से युक्त जो भक्त अन्य
देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझे ही
अविधिपूर्वक पूजते हैं।।
अहं
हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न
तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।9.24।।
क्योंकि सब यज्ञों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ, परन्तु
वे मुझे तत्त्वत: नहीं जानते हैं, इसलिए वे गिरते हैं, अर्थात् संसार को प्राप्त होते हैं।।
यान्ति
देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि
यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।
देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरपूजक
पितरों को जाते हैं, भूतों का यजन करने
वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मुझे पूजने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते
हैं।।
तात्विकव्याख्या 22-25 चित्त का धर्म है चिंता करना। जब साधक आत्म रूप
में स्थित हो जाता है तो चित्तवृत्ति शून्य हो जाता है वह अनंत शांति अनुभव करता है
इस स्थिति में संसारी चेष्टा वह नहीं कर पाता तब परमात्मा उसके लिए आवश्यक साधन उपलब्ध
कराकर योग क्षेम वह करते हैं साधक जिस देवता का भजन करते हैं उनके चित्र में उसी देवता
का रूप अंकित रहता है भगवान कृष्ण सब की आत्मा होने के कारण सभी दिव्य रूपों के आधार
हैं अग्नि में आहुति देना यज्ञ कहलाता है अशरीरी वाणी
को श्रुति तथा ध्यान में जागृति आना स्मृति है दोनों के मध्य परमात्मा की स्थिति
है आत्मस्वरूप में हो अनुभव में जाने बिना पूर्ण आवृत्ति से छुटकारा असंभव है कर्म
का अभ्यास संस्कार का निर्माण करता है जिस देवता की छवि चित्र में संस्कार रूप में
अंकित होती है मृत्यु के समय वही देवता दर्शन देता है आत्मा को उसी देवता का सालों
के भोग ना होता है पितृ पूजने वाला साधक देहांत के बाद पितृलोक
जाता है यदि साधक क्रिया अभ्यास करते करते
ब्रह्म नारी को भेद ले तो चित्त भेद हो जाने के कारण देहांत के बाद पुनः मृत्यु लोक
में नहीं आना पड़ता।
पत्रं
पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं
भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।। जो कोई भी भक्त मेरे लिए पत्र, पुष्प, फल, जल आदि भक्ति से अर्पण करता है, उस शुद्ध मन के भक्त का वह भक्तिपूर्वक अर्पण किया हुआ
(पत्र पुष्पादि) मैं भोगता हूँ अर्थात् स्वीकार करता हूँ।।
तात्विकव्याख्या 26पत्र अर्थात वेद । पत्र से छाया होती है, गर्मी से राहत मिलती है । वेद से ज्ञान की शीतल
छाया मिलती है संसार वासना की अग्नि से राहत मिलती है। अतः वेद संसार वृक्ष
का पत्र है। पुष्प अर्थात गुरु उपदेश। वृक्ष का सबसे सुंदर अंश फूल है। मानव शरीर का
सुंदरतम अंश गुरु का उपदेश है, जिससे संताप नष्ट होता है, आत्मा में प्रीति जागती है, जीवन में सुगंधि आती है।फल
अर्थात
गुरु उपदेश से कृतत्व लाभ करना। जल अर्थात गुरु उपदेश ग्रहण करने वाली शक्ति जिससे
पत्र, पुष्प, फल की पुष्टि होती है। बाहरी साधना से तन का मैल दूर होता है किंतु मन
की कृपाणता दूर नहीं होती । जीवात्मा को देह देने वाले दो
देव हैं-
माता और पिता। जो इन दोनों की सेवा नहीं करता, वह किसी देवी देवता की कृपा नहीं पा सकता, योग साधना भी निष्फल रहती है। ऐसा मानव मन में मन, प्राण में प्राण नहीं मिला सकता । इन दोनों में
कृतज्ञता ना होने पर मनुष्य साधना में उन्नति नहीं कर सकता। माता पिता की सेवा से मन
निर्मल होता है, अंतः करण में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त
होता है।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि
कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9.27।। हे कौन्तेय !
तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो
कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह
सब तुम मुझे अर्पण करो।।
शुभाशुभफलैरेवं
मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा
विमुक्तो मामुपैष्यसि।।9.28।। इस प्रकार तुम
शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और
संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।।
समोऽहं
सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये
भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।9.29।।
मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय
है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक
भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ।।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव
स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।
यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है।।
तात्विकव्याख्या 27-30विषयों में आसक्ति
मातृभाव से होती है। विषय में आ सक्ति ना छोड़ सकना चित्त की कृपणता है ।
कृपणताको जीतकर पृथ्वी को जल में, जल
को तेज में, तेज को वायु में, वायु को आकाश में, आकाश को प्रकाश में, लाना करण कहलाता है। यही पितृभाव है। सर्वस्व को शुद्ध मैं
में फ़ेंकना ही हवन है। विषयों का त्याग ही साधक का दान है। माया विकार को ब्रह्म
अग्नि में भस्म करना मदर्पण है , जहां
शुभ - अशुभ नहीं रहता, कर्म बंधन समाप्त हो जाता है। सन्यास=सं= सम्यक; न्यास= निक्षेप
या त्याग। सब त्यागने से मैं विशुद्ध हो जाता है। देहबोध नहीं रहा, विशेष मुक्ति मिल गई ।तुम शुद्ध मैं हो गए। एक तत्व
में सब मिलकर समोहं हो गया । भोगों में विचरण करना सुदुराचार है, वह चचंलता है। कूटस्थ में स्थित हो जाना आत्म निष्ठा
है।
क्षिप्रं
भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय
प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।9.31।। हे कौन्तेय, वह
शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम
निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।।
मां
हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो
वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।9.32।।
हे पार्थ ! स्त्री, वैश्य और शूद्र ये
जो कोई पापयोनि वाले हों, वे भी मुझ पर
आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।
किं
पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं
लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।।9.33।। फिर क्या कहना
है कि पुण्यशील ब्राह्मण और राजर्षि भक्तजन (परम गति को प्राप्त होते हैं); (इसलिए) इस अनित्य और सुखरहित लोक को प्राप्त होकर (अब)
तुम भक्तिपूर्वक मेरी ही पूजा करो।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि
युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।9.34।। (तुम) मुझमें
स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे
पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य
हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।।
तात्विकव्याख्या 31-34एक बार आत्मनिष्ठा का सुख भोगने के बाद
उसके लिए आकुलता आ जाती है। जो बार-बार
चेष्टा करवाती है। चेष्टा विषयों में वितृष्णा जगाती है ।धारणा आ जाती है ।धर्म में
बंध कर चित्त स्थिर रहता है, शाश्वत
शांति की आधारशिला बन जाती है ।जन्म मरण के चक्र से मुक्ति मिलने लगती है। प्रतिज्ञा= जानने की वस्तु में आसक्ति। शुद्ध मैं में आसक्ति
हो जाती है। स्त्री भाव अर्थात भोग लालसा, वैश्यभाव
अर्थात क्रिया अभ्यास से प्राप्त अलौकिक विभूति दिखलाने के लिए लोगों के सामने बड़ा
होने की आतुरता। शुद्ध भाव
=कामान्ध अंतः करण (
श- श्वास,उ- स्थिति, द- योनि,र- प्रकाश;जिस
अवस्था में निश्वास -प्रश्वास योनि में प्रकाशमान रहता है )इन तीनों के क्षीण
होने
पर शुद्ध आत्मरूप प्रकाशित होता है । ब्रह्म संस्पर्श से जनित
सुख का अनुभव करने के बाद जिसकी देहात्म बुद्धि नष्ट हो जाती है वही महात्मा ब्राह्मण
है । जो विषय भोग करते हैं और विषय भोग का परिणाम जिसके सामने है वह अपरोक्ष
दर्शी है। जिसे विषय भोग,
आत्मज्ञान से विचलित नहीं कर सकते, वह राजर्षि है, पुण्यवान है,
भक्त है ।आज्ञा चक्र में उठ चुके साधक राजर्षि
भाव में रहते हैं । आज्ञा चक्र में स्थित होने के बाद करोड़ों सूर्य चंद्रमा का प्रकाश
दिखता है ।उसमें मन निवेश करना होता है। यह है मद् भक्त अवस्था । उस प्रकाशमय परमात्मा को स्थिर दृष्टि
से ताकना मद्याजी अवस्था है। प्रकाश में खोकर स्वयं को भूलना तन्मय होना,
नमस्कार
है ।परम पुरुष अपरिणामी है, परागति
है, उसका आश्रय लेने से मत् परायण
अवस्था आती है ।जब बोध
समाप्त हो जाता है, दृष्टा- दृश्य एक हो जाते हैं, तब युक्त
अवस्था होती है। मैं ही मैं शुद्ध रह जाता है।
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