अध्याय 2
श्लोक 1
तं तथा
कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं
वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।2.1।।
संजय ने कहा --
इस प्रकार करुणा और विषाद से अभिभूत, अश्रुपूरित
नेत्रों वाले आकुल अर्जुन से मधुसूदन ने यह वाक्य कहा।।
तात्विक व्याख्या-5 महाभूतों से ऊपर चेतना
लाने से ही दिव्य ज्योति का दर्शन होता है । इस दर्शन से उत्पन्न ज्ञान ही संजय है
। विष- जो फैलता है । आ- आसक्ति । द- दान करना । विषाद- व्याप्ति में आसक्ति । ब्रम्ह की व्यापकता
में आसक्ति रखने से ब्रम्हत्व प्राप्त होता है । माया की व्यापकता में आसक्ति रखने
से विषाद होता है ।
मधु- मीठी लगने वाली भोग वासना । वासना
का विनाश करने वाला ईश्वर ही मधुसूदन है।
श्लोक 2
कुतस्त्वा
कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2.2।।
श्री भगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह मोह कहाँ से उत्पन्न हुआ? यह आर्य आचरण के विपरीत न तो स्वर्ग प्राप्ति का साधन ही है और न कीर्ति कराने वाला ही है।।
तात्विक व्याख्या-कूटस्थ में रंग- बिरगें दृश्य कश्मल हैं । जो साधक समदर्शी है वही आर्य है । जो जड़ जगत के झमेले में उलझकर समता खोते हैं, वहीं अनार्य हैं । माया का खिचांव अनार्य बनाता है । अस्वर्ग्य-- स्वर्ग = स+ व्+ र+ ग; “स” – सूक्ष्मश्वास, “व”-शून्य, “र”-तेज, “ग”-गति । सूक्ष्मश्वास के शून्य होने पर तेजोमयगति, अर्थात आत्मज्योति की प्राप्ति स्वर्ग है । “य” प्रत्यय लगने से ज्योति का अभाव, कश्मलों का प्रभाव होता है ।
“अकीर्तिकर”- कर्म की सिद्धि से प्राप्त
होने वाली ख्याति । जो साधक हर तरफ़ माया का खिचांव होने पर भी अपनी ऊर्ध्व गति नहीं
छोड़ते, वही कीर्ति लाभ करते हैं । जो माया के खिचांव से अटक जाते हैं, उनके कश्मल दिव्य दृष्टि
को ढक कर, अकीर्ति पाते हैं; जन्म-मरण के चक्र में बंधे रहते हैं । इसलिए भगवान कहते हैं - इस प्रकार कश्मल तुममे
कैसे आये? आत्मा प्रभा शक्ति से तुमने भूर्भवः आदि जीतकर स्वर्ग भ्रमण किया, सहस्त्रार के सहस्त्र दल
में विचरण किया, महादेव के प्रसाद से पाशुपत अस्त्र पाया । शिव पद में प्रतिष्ठित होने की शक्ति
पाई । तुम में इस प्रकार की मोह प्राप्ति शोभा नहीं देती ।
श्लोक 3
क्लैब्यं मा स्म
गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं
हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।2.3।।
हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो। यह तुम्हारे
लिये अशोभनीय है, हे ! परंतप हृदय की
क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ।।
तात्विक व्याख्या-तुम्हारी जननी पृथा, पिता शूरसेन को त्यागकर, कुंति भोज की कन्या बनी
। तुम भी उसी शक्ति से मायामुक्त होकर ब्रम्हत्व पा सकते हो । जैसे हिजड़ा दु:ख भोग करता है, वैसे ही माया ग्रस्त होकर
तुम भोग-योग से वंचित रहकर दु:ख पाओगे । परतंप - जो प्रकृति की शक्ति को तपाता है ।
तुम सूक्ष्म प्राणायाम कर प्राकृतिक चंचलता को नष्ट करने में सक्षम हो। ह्रदय की दुर्बलता त्याग कर उच्च अवस्था में स्थिति
हो। “द”, “य”, “प”, “उ” ये चार स्थिति के स्थान
साधना द्वारा “प” में स्थित रहकर, शाम्भवी मुद्रा द्वारा कूट भेद करना होता है । कपिध्वज अवस्था में, मस्तक ग्रंथि में स्थित "प’’ एवं आज्ञाचक्र समसूत्र
होते हैं । मन में खिंचाव आने पर यह दोनों समसूत्र नहीं रहते । आज्ञा च्रक ऊपर और “प” थोड़ा नीचे हो जाता है
।
यही रथोपस्थ अवस्था है । संसार बीज
नाश करने के लिए प और आज्ञाचक्र को समसूत्र करना होता है। शाम्भवी मुद्रा में कूट भेद
करने से, श्वास की ठोकर लगाने से चैतन्य समाधि लाभ होता है।
शलोक 4
अर्जुन उवाच
कथं
भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः
प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।2.4।।
अर्जुन ने कहा -- हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार भीष्म और द्रोण के साथ
बाणों से युद्ध करूँगा? हे अरिसूदन, वे
दोनों ही पूजनीय हैं।।
तात्विक व्याख्या--शरीर में नर-नारायण शक्तियां लगातार
क्रियाशील हैं । नर मूलाधार में, नारायण सहस्त्रार में । मन सूक्ष्म व स्वाधीन है, प्राण स्थूल व पराधीन है
। मन से जीव भाव है प्राण से जीवन है । जीव भाव का संशय, आत्मभाव में समाधान पाता है । यही कृष्ण - अर्जुन संवाद है । संव्ये- सं-सम्यक्, रख-आकाश, य- यान, ए- स्थिति । देहाभिमान
त्याग कर चिदाकाश में स्थिति । इषुभि: आत्ममंत्र से प्राण अत्यंत सूक्ष्म एवं तीव्रवेगशाली होता
है, यही भेदने वाला है जो अंतःकरण के आवरणों का भेदन करता है ।
साधक सोचते हैं - देह से अलग होकर, मन को आकाश की तरह निर्लिप्त
बनाकर, सूक्ष्म प्राण-चालन से, श्वांस की टक्कर से मन को कैसे मारुगां
! भीष्म-मन का अंहभाव, द्रोण-मन चलित बुद्धि को कैसे
नष्ट करूगां ! ममत्व से ही बुद्धि, समृद्धि, विभूति है । ये दोनों ही हमारे पूजनीय हैं, नाश के योग्य नहीं है ।
श्लोक 5
गुरूनहत्वा हि
महानुभावान्श्रेयो
भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु
गुरूनिहैवभुञ्जीय
भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।2.5।।
इन महानुभाव
गुरुजनों को मारने से इस लोक में भिक्षा का अन्न भी ग्रहण करना अधिक कल्याण कारक
है, क्योंकि गुरुजनों को मारकर मैं इस लोक में रक्तरंजित
अर्थ और काम रूप भोगों को ही भोगूँगा।।
तात्विक व्याख्या--दोनों को नष्ट करके यदि
प्राकृतिक जगत में, सकाम कर्म से अभाव में भी रहना पड़े तो, बेहतर है किंतु इन दोनों को नष्ट करके
प्रकृति पर आधिपत्य पाना अच्छा नहीं है । क्योंकि अहंत्व न रहने पर, संवेदना नहीं रहती, प्राकृतिक बुद्धि न रहने
पर, भला बुरा बोध, नहीं रहता, उस अवस्था में विषय भोग, शरीर धारण करना केवल विडंबना
है ।
श्लोक 6
न चैतद्विद्मः
कतरन्नो गरीयोयद्वा
जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव
हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः
प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।2.6।।
हम नहीं जानते
कि हमें क्या करना उचित है। हम यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे, या वे हमको जीतेंगे, जिनको
मारकर हम जीवित नहीं रहना चाहते वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने युद्ध के
लिए खड़े हैं।।
तात्विक व्याख्या--प्रकृति के वश में रहना
अच्छा है या प्रकृति को वश में करना? एक में संसार बीज नष्ट होता है दूसरे में विषय भोग । ऐसी
मानसिक वृत्तियां साधक को संशय में रखती हैं ।
श्लोक 7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावःपृच्छामि
त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छ्रेयः
स्यान्निश्िचतं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं
शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।2.7।।
करुणा के कलुष
से अभिभूत और कर्तव्यपथ पर संभ्रमित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, कि मेरे लिये जो श्रेयष्कर हो, उसे आप निश्चय करके कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ; शरण में आये मुझको आप उपदेश दीजिये।।
तात्विक व्याख्या-साधक गुरु पद में आत्मसमर्पण कर देते हैं । ममत्व से बोधशक्ति ढक गई । चित्त मोहित है । आपसे पूछता हूं - जो श्रेय हो वह कहिये। अंहकार त्यागकर गुरु चरणों में आत्म समर्पण करना होता है ।
श्लोक 8
न हि प्रपश्यामि
ममापनुद्या द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य
भूमावसपत्नमृद्धम्राज्यं
सुराणामपि चाधिपत्यम्।।2.8।।
पृथ्वी पर निष्कण्टक समृद्ध राज्य को और
देवताओं के स्वामित्व को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर
सके।।
तात्विक व्याख्या--भूमि = क्षेत्र या शरीर । असपत्न
- शत्रुरहित । शरीर के
तीन शत्रु हैं-- दैव प्रतिकूलता, असतवृत्ति, प्राकृतिक विकृति । आसन-प्राणायाम से शरीर शत्रुविहीन होता
है । योग सिद्धि से ऋद्धि या विभूति मिलते हैं । विभूति भूषण होने से शरीर असपत्न ऋद्ध
राज्य होता है । सुर- (स+उ+र)। स- ईश्वर या प्राण, उ- सहस्त्रार पद, र-तेज । सहस्त्रार में प्राण स्थित होने पर जो तेज प्रकाशित
होता है वही सुर है । तेज के आगे पीछे नाद-बिंदु में मन समर्पण करने से जो शक्ति
प्राप्त होती है वही ‘सुराणां आधिपत्यं’ है ।
श्लोक 9
सञ्जय
उवाच
एवमुक्त्वा
हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न
योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।2.9।।
संजय ने कहा -- इस प्रकार गुडाकेश परंतप अर्जुन
भगवान् हृषीकेश से यह कहकर कि हे गोविन्द "मैं युद्ध नहीं करूँगा" चुप
हो गया।।
तात्विक व्याख्या--कूटस्थ में परम पुरुष के दर्शन से साधक
में निःस्तब्ध अवस्था का तुष्णीम्भाव आ जाता है । जो आलसी नहीं है, निद्रा में भी माया चक्र
से प्रभावित नहीं होते, जागृत-स्वप्न में सर्वदा आत्म चैतन्य में रहते हैं वही गुडाकेश
है (जो शारीरिक कष्टों के
विघ्नों को पार करके स्थिरासन में बहुत देर तक बैठ सकते हैं, आराम का अनुभव करते हैं) वहीं आसन सिद्ध हुए हैं
।
श्लोक 10
तमुवाच
हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये
विषीदन्तमिदं वचः।।2.10।।
हे भारत
(धृतराष्ट्र) ! दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकमग्न अर्जुन को भगवान् हृषीकेश ने
हँसते हुए से यह वचन कहे।।
तात्विक व्याख्या-अंतराकाश ज्योतिर्मय होने से चित्त
पुलकित हो जाता है यही हृषिकेश प्रहसन्निव अवस्था है । जो महान साधक
इस अवस्था में पहुचते है उनका जीवन सार्थक, धन्य है ।
श्लोक 11
श्री
भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं
प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च
नानुशोचन्ति पण्डिताः।।2.11।।
श्री भगवान् ने
कहा -- (अशोच्यान्) जिनके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके लिये तुम शोक करते हो और ज्ञानियों के से वचनों
को कहते हो, परन्तु ज्ञानी पुरुष मृत
(गतासून्) और जीवित (अगतासून्) दोनों के लिये शोक नहीं करते हैं।।
तात्विक व्याख्या-साधक की परावस्था में, अंत:करण में स्थिरता होने से
जन्म-मृत्यु अनुभव नहीं होते । तुम स्थित पद में ना रहकर भी, स्थित पद में रहने वालों
की तरह भाषण करते हैं ।
श्लोक 12
न
त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न
चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2.12।।
वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तुम नहीं थे अथवा ये
राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।
तात्विक व्याख्या- “मैं”- आत्मभाव, “तुम”- जीवभाव, जनाधिप - जन-अंतकरण की वृत्तियां, अधिप- प्रधान वृत्तियां । अतीत
तथा वर्तमान कर्म सूत्र में बंधा है । बंधन न खुलने से, भविष्य में भी यह क्रम चलेगा अर्थात्
“मैं”, “तुम”, वें सब उत्पन्न होंगे ।
श्लोक 13
देहिनोऽस्मिन्यथा
देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा
देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2.13।।
जैसे इस देह में देही जीवात्मा की कुमार, युवा
और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही उसको अन्य
शरीर की प्राप्ति होती है; धीर पुरुष इसमें
मोहित नहीं होता है।।
तात्विक व्याख्या-शरीर की अवस्था बदलने पर भी आत्मा नहीं
बदलती वैसे ही देह बदलने पर भी आत्मा नहीं बदलती। धीर (धी-बुद्धि, रा धातु-ग्रहण करना) जो साधक बुद्धि क्षेत्र
में स्थिति लाभ करते हैं वह मोहित नहीं होते हैं । वह निश्चयात्मिका वृत्ति द्वारा
सत्-असत् पहचान कर सत् का आश्रय लेते हैं ।
श्लोक 14-15
मात्रास्पर्शास्तु
कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व
भारत।।2.14।।
हे कुन्तीपुत्र ! शीत और उष्ण और सुख दुख को देने
वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग का प्रारम्भ और अन्त होता है; वे अनित्य हैं, इसलिए, हे भारत ! उनको तुम सहन करो।।
यं
हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं
धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2.15।।
हे पुरुषश्रेष्ठ
! दुख और सुख में समान भाव से रहने वाले जिस धीर पुरुष को ये व्यथित नहीं कर सकते
हैं वह अमृतत्व (मोक्ष) का अधिकारी होता है।।
तात्विक व्याख्या-11 इन्द्रियों की वृत्तियां मात्रा कहीं
जाती हैं । इनका अपने विषय से संयोग मात्रास्पर्श है । इसे सहना ही होता है। ब्रम्ह
नाड़ी में आगे बढ़ने पर पांचो विषय साधक को मोहित करने का प्रयास करते हैं। मन को संयत
कर, कूट बिंदु में तन्मय होने
से, अमृत पद पाया जाता है ।
श्लोक 16
नासतो
विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि
दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।।
असत्
वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का
ही तत्त्व, तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के
द्वारा देखा गया है।।
तात्विक व्याख्या-सत्- आत्मा, असत् – आत्मा प्रकृति के 24 अंश । मूल से ऊपर देखना- विलोम ऊपर से मूल देखना अनुलोम
है। तत्वदर्शी सत् – असत् का भेद जान जाते हैं।
श्लोक 17
अविनाशि
तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य
न कश्चित् कर्तुमर्हति।।2.17।।
उस वस्तु को तुम
अविनाशी जानों, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त
है। इस अव्यय का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।।
तात्विक व्याख्या-जीव - माया – ब्रम्ह तीनों आत्मा की अवस्थाऐं हैं।
क्योंकि जगत आत्मा से ही प्रकट हुआ है। आत्मा सदा परिपूर्ण है। इसे व्यय नहीं किया
जा सकता । इसका क्षय भी कैसे करोगे ?
श्लोक 18
अन्तवन्त
इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य
तस्माद्युध्यस्व भारत।।2.18।।
इस नाशरहित
अप्रमेय नित्य देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भारत !
तुम युद्ध करो।।
तात्विक व्याख्या-जैसे पानी में हवा के संयोग से तरंग, बुलबुले उठते हैं फिर शांत
हो जाते है, जल - जल में, वायु-वायु में मिल जाते हैं, वैसे ही ब्रम्हाण्ड में चेतना के संयोग से शरीर उत्पन्न होकर विनिहत होते रहते
हैं । अत: अनित्य शरीर में ममता न रखकर युद्ध करो, लय योग में आगे अभ्यास करो ।
श्लोक 19
य
एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ
तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2.19।।
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं, क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।।
तात्विक व्याख्या-आत्मा पूर्ण एवं एक है । आत्मा ही विश्वरूप है । दो न होने
से वह न हंता और न हत है ।
श्लोक 20
न
जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं
भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो
नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न
हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।
यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न
मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत
और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका
नाश नहीं होता।।तात्विक व्याख्या-अज- जो जन्म न ले ; नित्य-जो सदा विद्यमान है ; शाश्वत- जिसका नाश न हो ।पुराण-जो सृष्टि के पहले के बाद
में विद्यमान रहे । आत्मा का नाश, शरीर के नाश न होने पर भी नहीं होता । शरीर 5 कोष से बना है- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय । प्रथम कोष से स्थूल
शरीर, दूसरे, तीसरे, चौथे से सूक्ष्म शरीर तथा पांचवे कोष से कारण शरीर निर्मित है । एक के नष्ट न होने पर, वह लय योग द्वारा सूक्ष्म
होकर दूसरे में परिणत होकर, अतं में, विलय के बाद, सत्व में मिलता है। जैसे जल का बुलबुला जल में मिल जाता हैं
।
श्लोक 21
वेदाविनाशिनं
नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं
स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।2.21।।
हे पार्थ ! जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी, नित्य और अव्ययस्वरूप जानता है, वह कैसे किसको मरवायेगा और कैसे किसको मारेगा?
तात्विक व्याख्या-जो क्रिया अभ्यास करके
आत्मा को अविनाशी(indestructible), अप्रमेय {immeaasurable } नित्य(eternal), अज(birthless), अव्यय(inexhaustible) जानते हैं व परागति प्राप्त
करते हैं । भेद बुद्धि समाप्त होने से सब से एकत्व अनुभव होता है ।
श्लोक 22
वासांसि
जीर्णानि यथा विहाय
नवानि
गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा
शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि
संयाति नवानि देही।।2.22।।
जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।
तात्विक व्याख्या-वस्त्र बदलने की तरह आत्मा, अयोग्य देह को छोड़कर, नया देह ग्रहण करती है।
श्लोक 23-24
नैनं
छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न
चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।।
इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं
सकती।।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य
एव च।
नित्यः
सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।2.24।।
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य (काटी नहीं जा सकती), अदाह्य (जलाई नहीं जा सकती), अक्लेद्य (गीली नहीं हो सकती ) और अशोष्य (सुखाई नहीं जा सकती) है; यह नित्य, सर्वगत, स्थाणु (स्थिर), अचल और सनातन है।।
तात्विक व्याख्या-माया से उत्पन्न भूत समूह
निर्विकार आत्मा पर शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता । आत्मा को शस्त्र से नहीं काट सकते, आग में नहीं जला सकते, जल से भिगो नहीं सकते, वायु से सुखा नहीं सकते
। आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अटल, अचल, अनादि है ।
श्लोक 25-27
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं
विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।2.25।।
यह आत्मा
अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है; इसलिए इसको इस प्रकार जानकर तुमको शोक करना उचित नहीं
है।।
अथ
चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि
त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।2.26।।
और यदि तुम आत्मा को नित्य जन्मने और नित्य मरने वाला मानो तो भी, हे महाबाहो ! इस
प्रकार शोक करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है।।
जातस्य
हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे
न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।।
जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है; इसलिए जो अटल है अपरिहार्य - है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।।
तात्विक व्याख्या-लय योग से आत्मा की स्थिति अनुभव से समझ आती है । मृत्यु से पहले बाहरी जगत का ज्ञान शून्य हो जाता है । सभी किये गये कर्म सामने आकर फल देते हैं । योगी चिद्ज्योति जगाकर सभी संस्कारों के आवरण को नष्ट कर देता है । तीनों शरीरों को त्याग कर मुक्त हो जाता है । भोगी केवल स्थूल देह त्याग कर, कारण शरीर में संजोये संस्कारों का फल भोगने के लिए,सूक्ष्म शरीर सहित सूक्ष्म लोक में पहुंच जाता है । सूक्ष्म लोक में कर्मफल भोगकर भोगी नया स्थूल शरीर धारण करता है ।
जन्म-मरण दो प्रकार का है- श्वासगत और शरीरगत । श्वास लेने-त्यागते को श्वासगत जन्म-मृत्यु कहते हैं । शरीरगत
मृत्यु प्रवाह में, जीव, एक देह धारण करके, भोग के बाद उस देह को त्याग कर, संचित कर्म राशि को भोगने के लिए नया
देह ग्रहण करता हैं । अत: इस विषय में शोक करना अनुचित है ।
श्लोक 28
अव्यक्तादीनि
भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव
तत्र का परिदेवना।।2.28।।
हे भारत ! समस्त
प्राणी जन्म से पूर्व और मृत्यु के बाद अव्यक्त अवस्था में रहते हैं और बीच में
व्यक्त होते हैं। फिर उसमें चिन्ता या शोक की क्या बात है ?
तात्विक व्याख्या-जो आदि-अंत युक्त है वही भूत है । अत: 24 तत्व ही भूत हैं । तीनों
गुणों की क्रिया में उत्पत्ति-स्थिति-लय क्रम चलता रहता है । इसके
लिए शोक क्यों करना ? भारत (भा-दीप्ति+रत-आसक्ति) योगानुष्ठान में आत्मज्योति
दर्शन कर उससे यक्त हो चुका साधक, अव्यक्त में लीन हो जाता है ।
श्लोक 29
आश्चर्यवत्पश्यति
कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति
तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः
श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं
वेद न चैव कश्चित्।।2.29।।
कोई इसे आश्चर्य
के समान देखता है; कोई इसके विषय में
आश्चर्य के समान कहता है; और कोई अन्य पुरुष
इसे आश्चर्य के समान सुनता है; और फिर कोई सुनकर
भी नहीं जानता।।
तात्विक व्याख्या--गुरू कृपा से आत्मा का
दर्शन कर साधक आश्चर्य चकित हो जाता है: प्रणव के गर्भ में नाद, नाद के गर्भ में बिंदु: अर्द्धनारीश्वर बिंदु से
बिंदु मिल कर (प्रकृति+पुरूष का नर्तन ; तांडव+लास्य = ताल ) लय बनती है । अखण्ड नाद के गर्भ में प्रकृति देवी का ताल
क्रम में, पाद चारण से जो व्यञ्जन - मिलन होता है, उसे छंद कहते हैं । छंद फिर ह्स्व, दीर्घ, प्लुत उच्चारण के लघु, गुरु, भंगिमा से 7 स्वर में प्रकट होता है
।ध्यान में इन सब का अनुभव होने से साधक अहंकार शून्य हो जाता है ।
श्लोक 30-31
देही
नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि
भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.30।।
हे भारत ! यह
देही आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है, इसलिए
समस्त प्राणियों के लिए तुम्हें शोक करना उचित नहीं।।
स्वधर्ममपि
चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि
युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।2.31।।
और
स्वधर्म को भी देखकर तुमको विचलित होना उचित नहीं है, क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई
कल्याणकारक कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिये नहीं है।।
तात्विक व्याख्या-आत्म ज्योति दर्शन कर, नित्य आत्मा में आनंद पाकर
अनित्य शरीर के लिए शोक करना शोभा नहीं देता । लय योग से अहंकार के प्रकट होने पर हम
ही सब, “मैं” ही मैं हूं का भाव आता है । यही स्वधर्म है, एकरसता है । सहस्त्रार में विष्णुपद
का अनुभव करने के बाद,
क्षम - दम के साथ, आत्म निगृह के लिए देह अभिमान नष्ट
करने के लिए, प्राणायाम नामक युद्ध के सिवाय और कुछ कल्याणकारी नहीं है ।
श्लोक 32
यदृच्छया
चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः
क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।2.32।।
और हे पार्थ ! अपने आप प्राप्त हुए और स्वर्ग
के लिए खुले हुए द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते
हैं।।
तात्विक व्याख्या-सुख=सु-सुंदर,शुभ+ख-शून्य। 5 भूतों से अपने का अलग कर लेना ही सुख
है। आकांक्षा मिटना ही शुभ; विषय शून्य शांति अवस्था ही सुख है । हीरे की तरह खिलती आत्म
ज्योति देखने के बाद, भाग्यशाली साधकों को क्रिया अभ्यास का युद्ध प्राप्त होता है। उसे त्यागना मूर्खता
है ।
श्लोक 33-35
अथ
चैत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः
स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।2.33।।
और यदि तुम इस धर्मयुद्ध को स्वीकार नहीं करोगे, तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त करोगे।।
अकीर्तिं चापि भूतानि
कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य
चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।2.34।।
और सब लोग तुम्हारी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति को भी कहते रहेंगे; और सम्मानित पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी अधिक होती है।।
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां
च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।2.35।।
और जिनके लिए तुम बहुत माननीय हो उनके लिए अब तुम तुच्छता को प्राप्त होओगे, वे महारथी लोग तुम्हें भय के कारण युद्ध से निवृत्त
हुआ मानेंगे।।
तात्विक व्याख्या-शुद्ध चैतन्य परमात्मा श्री कृष्ण का
दर्शन हो जाता है । उसके बाद भी यदि प्राणायाम का युद्ध अभ्यास वहीं करोगें तो उससे
स्वधर्म (ब्राम्ही स्थिति) और कीर्ति (ब्रह्मानंद ) का नाश होगा । जन्म-मृत्यु का प्रवाह जारी रहेगा। क्रिया
अभ्यास त्याग करने कर असफलता ही अकीर्ति है । यह अकीर्ति तुम्हें 5 भूतों के
अधीन कर देगी । तब तुम्हें सभी क्लेशों से पश्चात्ताप होगा । केवल संसार में ही उपहास नहीं मिलेगा बल्कि अंत:करण में प्रधान वृत्ति समूह (महारथी) आत्मग्लानि उत्पन्न करेंगी । साधक का पतन हो जायेगा ।
श्लोक 36-38
अवाच्यवादांश्च
बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव
सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।।2.36।।
तुम्हारे शत्रु तुम्हारे सार्मथ्य की निन्दा करते हुए बहुत से अकथनीय वचनों को कहेंगे, फिर उससे अधिक दु:ख क्या होगा ?
हतो वा प्राप्स्यसि
स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ
कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।2.37।।
युद्ध में मरकर
तुम स्वर्ग प्राप्त करोगे या जीतकर पृथ्वी को भोगोगे; इसलिय, हे
कौन्तेय ! युद्ध का निश्चय कर तुम खड़े हो जाओ।।सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ
जयाजयौ।
ततो
युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।
सुख-दु:ख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये
तैयार हो जाओ; इस प्रकार तुमको पाप नहीं
होगा।।
तात्विक व्याख्या-क्रिया साधन अभ्यास नामक युद्ध न
करने पर इन्द्रियां तुम पर हावी होकर तुम्हें नचायेंगी । आत्मग्लानि तुम्हें तड़पायेगी
। साधना करते-करते देह त्योग करोगे तो, अभ्यास के बल से, मन में सत्य का प्रकाश उदय होगा, जिससे आत्मा की सद्गति
होगी । यदि जय मिली तो अमर राज्य सुख (जीवन्मुक्ति) भोगोगे । अत: युद्ध करो । दु: - कलुषित; ख- आकाश (वासना से चिदाकाश कलुषित रहता है।) आत्मज्योति दर्शन न
करने पर मन व्याकुल रहता है । यही दु:ख है । क्रियायोग अभ्यास
करते रहो चाहे, आत्मज्योति दर्शन मिले या न मिले; इससे तुम 5 भूतों की दासता से बचे रहोगे ।
श्लोक 39-40
एषा
तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्ध्यायुक्तो
यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।2.39।।
हे पार्थ ! तुम्हें सांख्य विषयक ज्ञान कहा गया और अब इस (कर्म) योग से सम्बन्धित
ज्ञान को सुनो जिस ज्ञान से युक्त होकर तुम कर्मबन्ध का नाश कर सकोगे।।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति
प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य
धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।।
इसमें क्रमनाश और
प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता
है।।
तात्विक व्याख्या-24 तत्व और चेतन पुरूष यह 25 तत्व साख्यंज्ञान है ।
एक तत्व का दूसरे तत्व से मिलन ही योग है । चौबीस तत्वों के क्रम का नाम योग मार्ग
है और क्रम की समाप्ति ही योग है । साधक योग अभ्यास ये योगी होता है । योग अवस्था के
निचले स्तर पर साख्यंज्ञान है। मूल है उपदेश से प्राप्त ज्ञान- साख्यंज्ञान । फल है
अनुष्ठान या अभ्यास-मोक्ष योग । यही बुद्धि योग है। योग अभ्यास में आत्ममुखी बुद्धि के द्वारा, प्रारब्ध, संथित कर्म सब छूट जाता
है । योग अभ्यास में आत्ममुखी गति का नाश नहीं होता, विपरीत गति नहीं होती। इस का थोड़ा
सा अभ्यास भी मृत्यु के महान भय से मुक्त कर देता है । श्वासगत या शरीरगत चाहे किसी
भी प्रकार की मृत्यु हो, 2-5 जन्म-मृत्यु के प्रवाह से ही पार पहुंच सकते हैं ।
श्लोक 41-44
व्यवसायात्मिका
बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा
ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2.41।।
हे कुरुनन्दन ! इस (विषय) में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है, अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां (संकल्प) बहुत भेदों
वाली और अनन्त होती हैं।।
यामिमां
पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः
पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।2.42।।
हे पार्थ
अविवेकी पुरुष वेदवाद में रमते हुये जो यह पुष्पिता (दिखावटी शोभा की) वाणी बोलते
हैं? इससे (स्वर्ग से) बढ़कर और कुछ नहीं है।।।
कामात्मानः
स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां
भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।2.43।। कामनाओं से
युक्त? स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले लोग भोग और ऐश्वर्य
को प्राप्त कराने वाली अनेक क्रियाओं को बताते हैं जो (वास्तव में) जन्मरूप कर्मफल
को देने वाली होती हैं।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां
तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका
बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।2.44।।
उससे जिनका
चित्त हर लिया गया है ऐसे भोग और एश्र्वर्य मॆ आसक्ति रखने वाले पुरुषों के
अंतःकरण मे निश्चयात्मक् बुद्धि नही हॊती अर्थात वे ध्यान का अभ्यास करने योग्य
नही होते।
तात्विक व्याख्या--इस कर्मयोग से ही बुद्धि व्यवसायात्मिका (वि-आकाश, चक्षु+अव=विस्तार+सो=मरण) यानि आकाशमय आंख में
विस्तृत होकर स्थित या निश्चयात्मक होती है; कूटस्थ प्रकाश में प्रविष्ट होने के
बाद ब्रम्हानंदमयी होती है । अव्यवसायियों (अ = निषेघार्थ + वि = विशेष+अवा=निश्चय+सो=उद्योग करना ) यानि जो लोग विशेष निश्चय
के साथ उद्योग = (उत्=ब्राम्ही मार्ग में, योग=प्राणायाम आदि क्रियाएं) नहीं करते, उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में बटी रहती
है। बहुशाखायुक्त = भोगों में विभाजित, उन्हें शांति प्राप्त नहीं होती। विपश्चित् (वि+प्र= विप्रकष्ट +चि= संग्रह करना) जो लोग दूरवर्ती को संग्रह
करते रहते हैं, शरीर, मन, आत्मा, तीनों को एक करके दूरवर्त्ती (6 चक्रों के पार) बाद बिंदु को ग्रहण कर सकते हैं उन्हें विपश्चित् कहते हैं
। जो क्रियायोग करके संग्रह की चेष्टा नहीं करते – 5 चक्रो के भीतर स्थित विषयों को ग्रहण
करते हैं उनको अविपश्चित् कहते हैं । निष्काम कर्म से दूरवर्ती को ग्रहण होता है ।
सकाम मनुष्य अविपश्चित् या अविवेकी है । अविवेकी केवल दिव्य सुख भोग के स्थान स्वर्ग
तक पहुचंता है । वेद के कर्मकाण्ड में इसी का विधान है। वे भोग/ ऐश्वर्य से मतवाले रहते
हैं । वे समाधि में पहुंच कर व्यवसायात्मिका बुद्धियुक्त
नहीं होते।
सकाम और निष्काम कर्म के
फल स्वरूप समाधि के दो भेद हैं- सकाम कर्म में लय होने के समय किसी कारण विषय की स्मृति के
संस्कार के साथ विश्राम लेना होता हैं, समाधि भंग होते ही जागने के साथ वह स्मृति फिर जाग उठती है
। यह जड़-समाधि है। इसमें मुक्ति नहीं है । निष्काम कर्म से समाधि में जाने पर चैतन्य ही उद्देश्य
होता है । चेतना में ही लीन होना होता है। यही चैतन्य समाधि है। इसी से बुद्धि एकाग्र होती है । आसक्ति रखने वालों की, समाधि में जाने पर भी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं होती ।
श्लोक 45
त्रैगुण्यविषया
वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो
नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।
हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य
सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित
और आत्मवान् बनो।।
तात्विक व्याख्या--3 गुण ही 4 वेदों के विषय हैं । जो जानने में आये
वही वेद है । रजोगुण का धर्म-क्रिया, फल-दुख। सत्व का धर्म-प्रकाश (निज बोध रूप) फल-सुख । तमोगुण का धर्म-जड़ता (नाश), फल-मोह। इन तीनों का मिश्रित
धर्म आनंद है । जिस प्रकार बीज से अंकुर बिना जल, वायु, तेज, के अंकुरित नहीं हो सकते, तीनों के मेल से ही क्रिया
होती है । यदि तीनों गुणों का अंश समान रहे तो साम्य भाव आता है, असमान भाग से क्रिया खिलती
है ।
मूलाधार में सत्व का प्रारभं, तम का शेष, रजोगुण का पूर्ण विकास होता है । स्वाधिष्ठान में रज, सत्व से तीन गुणा होता हैं, मणिपूर में रज-सत्व बराबर होता है । अत: मूलाधार से मणिपूर रज प्रधान
है । आसन लगाने से पहले, बलपूर्वक प्राण चालन करना
पड़ता है । जब तक प्राण सूक्ष्म होकर बज्रा के अंदर प्रवेश न करे तब तक प्राण कर्म, प्रबल, मन, चंचल और कूटस्थ बादलों से ढका सा रहता है । यही दुख
है । बज्रा में प्रवेश करके मणिपूर में रहने से रज:सत्व समान मात्रा में होने से, ब्राम्ही शक्ति प्रत्यक्ष होती है, चारों दिशा में एक प्रकार की चमक दिखाई देती है । इस
चमक में नाद सुनाई देता है । यह ही ऋक वेद ‘अ’ है । जो नाद सुनाई देता है वहीं गायत्री मंत्र और वह देवी ऋक वेद की अधिष्ठात्री गायत्री देवी की प्रथम मूर्ति
है ।
मणिपूर भेद करके चित्रा के अंदर प्रवेश
करने पर अनेक रंग दीखते है । क्रिया अभ्यास से अनाहत चक्र में प्रवेश होता है जहॉ सतोगुण, 12 अंश, रजोगुण 4 अंश में होता है । विशुद्ध चक्र में सतोगुण 14 अंश, रजोगुण 2 अंश होता है । अत: दुख का अंत होकर सुख की अनुभूति होती है । उपासना होती रहती है, प्राण क्रिया की आसक्ति मिट जाती है, दृष्य-दृष्टा का अंतर कम हो जाता
है । 12 दलों के बीच 8 दल वाला कमल खिलता है । इसमें शंख–चक्र-गदा-पद्म धारिणी गरुण पर आरूढ़ वैष्णवी शक्ति प्रकट
होती है जो गायत्री की दूसरी मूर्ति है । दक्षिण
दिशा से गायत्री मंत्र का उच्चारण सुनाई देता है । शांभवी मुद्रा से ज्योति भेद हो
जाने पर 16 दल वाला कमल खिलता है जहॉ वहीं देवी
विद्युत वर्ण में दर्शन दे कर अंतर्हित हो जाती है । यह सत्व प्रधान उपासना जो विशुद्ध
क्षेत्र में अनुभव होता है, यजुर्वेद- कृष्ण यजु: और शुक्लयजु: में विभक्त है ।
आज्ञा में सतोगुण का पूर्ण विकास और
शुद्ध तमोगुण का आरंभ है । यहॉ स्थिरता-चंचलता का समावेश, रज-तम मिलन, छन्द, राग, रागिनी की उत्पत्ति, अहंकार, सप्रणव गायत्री, वेद, रिषि, गंधर्व, यक्ष नाट्यमंच की तरह अनुभव
में आते हैं । यही इहकांश जगत् कृसनं संचारचंर प्रकट है। यही सामवेद – म है । यही त्रिशूल-डमरु सहित वृषभ पर आरूढ़ रौद्री शक्ति, सामवेद की अधिष्ठात्री सरस्वती, गायत्री की तीसरी मूर्ति है ।
आज्ञाचक्र में सतोगुण के
अंदर रज - तम के संयोग स्थल को कूट कहते हैं। कूट में एक अनुपम सुनहरा बिंदु दीखता है
जो विश्वनाथ महेश्वर हैं । यही सरस्वती हैं । महेश्वर-मुख से निरंतर नाद- वेद मंत्र उच्चारित होते
हैं। आज्ञा से मूलाधार तक गायत्री-सावित्री-सरस्वती स्थित हैं । इसलिए
इस देवी को त्रिपदा कहते हैं। ब्राम्हण उपनयन
में जो गायत्री मंत्र शिक्षा पाते हैं वह त्रिपदा है । सन्यास काल में जो मंत्र दीक्षा
होती है वह गायत्री का चौथा पाद है । कूटस्थ भेद करके सहस्त्रार में न पहुंचने पर इन्हें
नहीं पहचान सकते ।
आज्ञाचक्र के बाद रजोगुण
मिट जाने पर, स्थिर प्रकाश सहस्त्रार में खिलता है। उस ज्योति में अतीत, अनागत, वर्त्तमान प्रत्यक्ष होता
रहता है। अब आद्याशक्ति कभी प्रकृति रूप धारण कर, साधक का मायाजाल छिन्न कर, भेद ज्ञान प्रकाशित करती
है, गायत्री उच्चारित होती
है- (उत्तर दिशा में) सन्यास भाव आता है, अंकपन अनाहत नाद उदय होता
है। नाद में ज्योतिर्मय बिंदु खिलता है, यही तारक ब्रम्ह है । मन इसमें अटक जाता है । साक्षी भाव
आ जाता है । यह आनंदमय अवस्था ही अथर्ववेद-“ऊ” है । बिंदु के अंदर हिरण्यमय परमशिव- नारायण- निरंजन पुरुष प्रकाशित होते हैं ।
भगवान अर्जुन को निस्त्रैगुण्य
होने के लिए कहते हैं । अर्थात् आज्ञा च्रक में तारक ब्रम्ह में लय हो जाओ । अब योग
क्षेम समाप्त हो जाता है । द्वन्द समाप्त हो जाते हैं ।
श्लोक 46-47
यावानर्थ
उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु
वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।
सब ओर से परिपूर्ण जलराशि के होने पर मनुष्य का छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है? आत्मज्ञानी ब्राह्मण का सभी वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है।।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा
कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है? फल
में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न
हो।।
तात्विक व्याख्या-बाढ़ आने पर जलाशय एवं कूप डूब जाते है । ब्रम्हज्ञान अनुभव का ब्राम्हण विजानत (सब जानने वाला) हो जाते हैं । वेद उनके
अंत:करण में प्रकाशित हो जाने के बाद पाठ की
जरूरत नहीं रहती ।
ब्रम्ह नाड़ी में मूलाधार
से आज्ञा चक्र का प्राण - चालन करना ही कर्म है। स्थूल इन्द्रियों के सभी कर्म, अकर्म हैं । पहला
अकर्म रज:तम क्षेत्र में, दूसरा अकर्म सत - तम क्षेत्र में सपंन्न होता है । पहले
में आसक्ति होने पर अनंत विपाक में गिरना होता है, दूसरे में आसक्ति होने पर कूटस्थ में
कश्मल आता है । अत: अनासक्त होकर कर्म करना है ।
श्लोक 48-50
योगस्थः
कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः
समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और
असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता
है।।
दूरेण
ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ
शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।2.49।।
इस बुद्धियोग की
तुलना में(सकाम) कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं? इसलिये
हे धनंजय तुम बद्धि की शरण लो फल की इच्छा करनेवाले कृपण (दीन) हैं।।
बुद्धियुक्तो
जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय
युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है? इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता योग है।।
तात्विक व्याख्या-कूट पर ध्यान केंद्रित करने से योगस्थ हुआ जाता है । प्राण
चालन कर निष्क्रिय अवस्था पाना ही कर्म की सिद्धि है । उस अवस्था को न पाना ही असिद्धि
है; सिद्धि असिद्धि में
समभाव रख कर कर्म करना है । ब्रम्हनाड़ी में प्राण चालन ही संग त्याग है । नि:श्वास-प्रश्वास समान होकर कूटस्थ
बिंदु सरोवर में डूबना ही साम्य भाव है । योगस्थ होकर कर्म करना बुद्धि योग है। सकाम
कर्म जीव को बांधता है अत: फल की इच्छा वाले कृपण हैं क्योकि कृपण जैसे आसक्ति के
कारण धन खर्चकर कोई काम नहीं करता, धन का बोझ लेकर मरता है । कामना त्याग से जो नित्यसुख मिलता
है वह कृपण नहीं जानता। अत: तारक ब्रम्ह में लीन रहो। संसार भुला कर चैतन्य समाधि का आनंद लो। प्रारब्ध नष्ट हो जाता है। यही कर्म
कौशल है । आत्म तेज से प्राण की आहुति देने से जो अवस्था आती है, वही योग है ।
श्लोक 51-54
कर्मजं
बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः
पदं गच्छन्त्यनामयम्।।2.51।।
बुद्धियोग युक्त
मनीषी लोग कर्मजन्य फलों को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हुये अनामय अर्थात्
निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं।।
यदा
ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा
गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।2.52।।
जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप दलदल (कलिल) को तर जायेगी तब तुम उन सब वस्तुओं से
निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे? जो
सुनने योग्य और सुनी हुई हैं।।
श्रुतिविप्रतिपन्ना
ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला
बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।2.53।।
जब अनेक प्रकार के विषयों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि आत्मस्वरूप में अचल और स्थिर हो जायेगी तब तुम (परमार्थ) योग को प्राप्त करोगे।।
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा
समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः
किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।
अर्जुन ने कहा -- हे केशव समाधि में स्थित स्थिर बुद्धि वाले पुरुष का क्या लक्षण
है स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है? कैसे चलता है?
तात्विक व्याख्या-एकाग्र चित्र से बिंदु
में स्थित चेतना मन पर अधिकार कर लेती है । यही मनीषी अवस्था है । कर्मफल क्षय होने
के बाद किसी प्राकृतिक आवरण में नहीं आना पड़ता। परमशांत विष्णु पद प्राप्त होता है
। यह निश्चय वाणी है । तब श्रोतव्य - भविष्य तथा क्षुद्र भूतकाल दोनों का ही बोध नहीं रहता । केवल वर्तमान
रहता है । साधक स्वयं काल में परिणत हो जाता
है। अपरिणामि सत्य में सदा वर्तमान रहते हैं
। ‘क्षुद्र मैं’ ‘बृहत मैं’ में मिल जाने से अभेदांनद अनुभव होता है । निर्वेद अवस्था- कुछ जानने की इच्छा न होना, हो जाती है । अनाहत नाद
में मन रमने से, चित्त मुग्ध हो जाने पर, बोध-शक्ति आत्म ज्योति में आकृष्ट हो जाती है । जागने में, चलने में, खाते, सोते वही भाव बना रहता
है। यह जागृत समाधि है। इन जीवन्मुक्तों का लक्षण पूछा जाता है।
श्लोक 55-61
श्री
भगवानुवाच
प्रजहाति
यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना
तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।
श्री भगवान् ने
कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन
में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः
सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः
स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।
दुख में जिसका
मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है? जिसके मन से राग? भय
और क्रोध नष्ट हो गये हैं? वह मुनि
स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
यः
सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति
न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।
जो सर्वत्र अति स्नेह से रहित हुआ उन शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त कर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है? उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित (स्थिर) है।।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.58।।
कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है? तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं
रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2.59।।
निराहारी देही पुरुष से विषय तो निवृत्त (दूर) हो जाते हैं? परन्तु (उनके प्रति) राग नहीं परम तत्व को देखने पर इस
(पुरुष) का राग भी निवृत्त हो जाता है।।
यततो
ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि
प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।
हे कौन्तेय
(संयम का) प्रयत्न करते हुए बुद्धिमान (विपश्चित) पुरुष के भी मन को ये इन्द्रियां
बलपूर्वक हर लेती हैं।।
तानि
सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे
हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.61।।
उन सब इन्द्रियों को संयमित कर युक्त और मत्पर होवे। जिस पुरुष की इन्द्रियां वश में होती हैं? उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है।।
तात्विक
व्याख्या -आत्ममय बुद्धि से विषय कामना समाप्त हो जाती है । विषय
में रुचि समाप्त होने पर राग-भय-क्रोध मिट जाते हैं।
मन परमात्मा में लीन होने से वे योगी मुनि
कहलाते हैं । राग-द्वेश मिटने से स्थित प्रज्ञ
रहते हैं। जीभ उलट कर, दृष्टि भूमध्य में स्थिर कर, काया-शिर-ग्रीवा सम करके अद्भुत गंध,रस,रुप, स्पर्श,शब्द अनुभव होने पर, तत्व-ज्ञान हो जाता है । गंध
रस में, रस रुप में, सिमटने पर शब्द में परिणत
हो जाता है । मन उसी शब्द में आकृष्ट होकर विष्णु पद लाभ करता है उस के चित्ताकाश में सदा ब्रम्हतेज उद्भासित रहने के कारण कोई
दूसरा तेज नहीं होता। न कामना रहती है न किसी रस की इच्छा । 10 इन्द्रियां क्रिया अभ्यास
से निष्क्रिय होती जाती हैं । अभ्यास न करने पर साधक को इन्द्रियां खींच कर
पथभ्रष्ट कर देती हैं । योगी जन इन्द्रियों को संयत कर के ‘मत्पर, होते हैं अर्थात मन
से इन्द्रियों को बाँध कर हिरण्यमय पुरुष में केंद्रित कर ‘व्यवसायात्मिका बुद्धि
युक्त’ होते हैं ।
श्लोक 62-65
ध्यायतो
विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्
संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है? आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है।।
क्रोधाद्भवति
संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्
बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।
क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर
बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है।।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु
विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा
प्रसादमधिगच्छति।।2.64।।
आत्मसंयमी
(विधेयात्मा) पुरुष रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई (आत्मवश्यै) इन्द्रियों
द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसन्नता प्राप्त करता है।।
प्रसादे
सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो
ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।2.65।।
प्रसाद के होने
पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि ही शीघ्र
ही स्थिर हो जाती है।।
तात्विक व्याख्या-विषय का ध्यान करने पर मैं-मेरे का भाव, बुद्धि नाश करता है ; योग से भ्रष्ट करता है
। असंयमी साधक नाश और संयमी साधक परम शांति लाभ करते हैं । 5 भूत ही सर्व कहलाते हैं
। ये सर्व कश्मल रूप धारण कर कूटस्थ को ढकते
हैं। यही दुख है। ज्योति विकास होने पर चित्त खिल कर प्रसन्न होता है। स्थिर चित्त
में बोध शक्ति निरालम्ब होकर शांत हो जाती
है।
श्लोक 66-69
नास्ति
बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न
चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।
(संयमरहित) अयुक्त पुरुष को (आत्म) ज्ञान नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान
की क्षमता नहीं होती भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख
कहाँ?
इन्द्रियाणां
हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य
हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।।
जल में वायु जैसे नाव को हर लेता है वैसे ही विषयों में विरचती हुई इन्द्रियों के
बीच में जिस इन्द्रिय का अनुकरण मन करता है? वह
एक ही इन्द्रिय इसकी प्रज्ञा को हर लेती है।।
तस्माद्यस्य
महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.68।।
इसलिये? हे महाबाहो जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सब प्रकार
इन्द्रियों के विषयों के वश में की हुई होती हैं? उसकी
बुद्धि स्थिर होती है।।
या
निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां
जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।
सब प्रणियों के लिए जो रात्रि है? उसमें संयमी पुरुष
जागता है और जहाँ सब प्राणी जागते हैं? वह
(तत्त्व को) देखने वाले मुनि के लिए रात्रि है।।
तात्विक व्याख्या-शम-दम-तितिक्षा-क्षद्धा युक्त साधक ब्रम्हपद पाता
है । इन से रहित मनुष्य अयुक्त होता है। उसकी बुद्धि चंचल, मलिन होने से वह भटकता है, अशांत रहता है । 5 मे से, किसी एक विषय से भी मन
अटकने पर बुद्धि नष्ट होती है । 5 विषयों से मन को हटाने
से बुद्धि शुद्ध रहती है । साधना बढ़ती है । मन के आत्मा में लीन होने पर इन्द्रियों
की निशा, मन के विषयों में रमण करने पर इन्द्रियों का दिन होता है । संयमी सजग रहते हैं, स्थूल-सूक्ष्म-कारण विश्व आत्मा में लीन करके आनंदमय रहते है । भूतों की निशा संयमी का दिन और भूतों का
दिन संयमी की निशा होती है । भूतों के दिन में आत्मज्योति न रहने से संयमी निशा का
अनुभव करता है ।
श्लोक 70-72
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः
प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा
यं प्रविशन्ति सर्वे
स
शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2.70।।
जैसे सब ओर से
परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (अनेक नदियों के) जल (उसे विचलित किये
बिना) समा जाते हैं? वैसे ही जिस पुरुष
के प्रति कामनाओं के विषय उसमें (विकार उत्पन्न किये बिना) समा जाते हैं? वह पुरुष शान्ति प्राप्त करता है? न कि भोगों की कामना करने वाला पुरुष।।
विहाय
कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो
निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2.71।।
जो पुरुष सब
कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित? ममभाव रहित और
निरहंकार हुआ विचरण करता है? वह शान्ति प्राप्त
करता है।।
एषा
ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि
ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2.72।।
हे पार्थ यह
ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस
निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।।
तात्विक व्याख्या-शांभवी द्वारा जिसने
मन को बिंदु सागर में डुबाकर अनंत उदारता का अनुभव कर लिया, कामनाऐं उनके चित्त में वैसे ही विलीन हो जाती हैं जैसे नदिया सागर में । विषय वृत्ति मिट जाने पर साधक शांत
चित्त रहते हैं । भोग वृत्ति चित्त को अशांत करती है । भोग का विषय काम है । साधक भोग में मन लगने पर कामकामी होता है ।
जो भोग त्याग कर, ममता विहीन होकर साधना करते हैं, वह नित्यानंद शांति लाभ करते हैं । यही सिद्धावस्था है ।
इस अवस्था में शरीर त्याग होने पर सब कुछ ब्रम्हमय अनुभव होता है । अत: पुन: जन्म नहीं लेना पड़ता ।
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