अध्याय
पॉँच
अर्जुन
उवाच
संन्यासं
कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय
एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्िचतम् ।।5.1।।
अर्जुन ने कहा हे -- कृष्ण ! आप कर्मों
के संन्यास की और फिर योग (कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं। इन दोनों में एक जो
निश्चय पूर्वक श्रेयस्कर है, उसको मेरे लिए
कहिये।।
श्री
भगवानुवाच
संन्यासः
कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु
कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।5.2।।
श्रीभगवान् ने कहा -- कर्मसंन्यास और
कर्मयोग ये दोनों ही परम कल्याणकारक हैं; परन्तु
उन दोनों में कर्मसंन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।।
ज्ञेयः
स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो
हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।5.3।। जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की
आकांक्षा, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, हे
महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है।।
सांख्ययोगौ
पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः
सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।5.4।। बालक अर्थात्
बालबुद्धि के लोग सांख्य (संन्यास) और योग को परस्पर भिन्न समझते हैं; किसी एक में भी सम्यक् प्रकार से स्थित हुआ पुरुष
दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है।।
यत्सांख्यैः
प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं
सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।5.5।। जो स्थान ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता
है, उसी स्थान पर कर्मयोगी भी पहुँचते हैं। इसलिए जो पुरुष
सांख्य और योग को (फलरूप से) एक ही देखता है, वही
(वास्तव में) देखता है।।
संन्यासस्तु
महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो
मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।5.6।। परन्तु, हे
महाबाहो ! योग के बिना संन्यास प्राप्त होना कठिन है; योगयुक्त मननशील पुरुष परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त
होता है।।
योगयुक्तो
विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा
कुर्वन्नपि न लिप्यते।।5.7।। जो पुरुष
योगयुक्त, विशुद्ध अन्तकरण वाला, शरीर
को वश में किये हुए, जितेन्द्रिय तथा
भूतमात्र में स्थित आत्मा के साथ एकत्व अनुभव किये हुए है वह कर्म करते हुए भी
उनसे लिप्त नहीं होता।।
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यन्
श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।5.8।। तत्त्ववित् युक्त पुरुष यह सोचेगा (अर्थात्
जानता है) कि "मैं किंचित् मात्र
कर्म नहीं करता हूँ" देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श
करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता
हुआ, चलता हुआ, सोता
हुआ, श्वास लेता हुआ,।।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु
वर्तन्त इति धारयन्।।5.9।। बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण
करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बन्द करता हुआ (वह) निश्चयात्मक
रूप से जानता है कि सब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में विचरण कर रही हैं।।
ब्रह्मण्याधाय
कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते
न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।। जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और
आसक्ति को त्यागकर करता है, वह पुरुष कमल के
पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता।।
कायेन
मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः
कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।5.11।। योगीजन, शरीर, मन, बुद्धि और
इन्द्रियों द्वारा आसक्ति को त्याग कर आत्मशुद्धि (चित्तशुद्धि) के लिए कर्म करते
हैं।।
तात्विक व्याख्या 1-11-साधक की जिज्ञासा है सन्यास एवं योग
में कौन सा मार्ग बेहतर है
?भगवान कहते हैं
दोनों ही मार्ग मोक्ष देने वाले हैं तब भी कर्म योग श्रेष्ठ है । कर्म और सन्यास
साधना के दो स्तर हैं -कर्म नीचे है सन्यास ऊपर । जो साधक
नीचे हैं उन्हें ऊपर आने के लिए कर्म का सहारा लेना है । तभी वह सन्यास प्राप्त
करेंगे। कर्म किए बिना सन्यास पाना संभव नहीं है, अतः कर्म ही श्रेष्ठ है। कर्म से सन्यास और
सन्यास से मोक्ष मिलता है। साधक के लिए सिद्धि प्राप्त करने की इच्छा ही एकमात्र
आकांक्षा है, प्राकृतिक भाव त्याग करने की इच्छा
हीद्वेष है । जो साधक आकांक्षा व द्वेष से परे रहकर क्रिया अभ्यास करते हैं वे
सावधानी से देखते हैं कि ठीक गुरु उपदेश के अनुसार क्रिया हो रही है या नहीं। वही
निष्काम साधक हैं उनमें सुख-दुख
राग द्वेष का द्वंद नहीं रहता। उनके लिए आत्म पथ खुला रहता है; उनके लिए मुक्ति अर्थात विष्णुपद
अनायास ही साध्य हो जाता है, क्योंकि
वह नित्य सन्यासी हैं । जो लोग क्रिया योग का अभ्यास नहीं करते, वे शास्त्र पढ़कर भी अज्ञ है; कर्म शून्य ज्ञानी हैं । वह तत्वदर्शी
नहीं है। वह विचार करते हुए विश्व प्रपंच के आदि कारण को प्रत्यक्ष करते हैं, अतः वह पंडित हैं । वे अनुमान लगाकर
भाषा द्वारा विश्लेषण करते हैं, सत्य का अनुभव कराने वाली दर्शन शक्ति उनमें नहीं है। पंडित देखते
हैं कि धारा एक ही है, अतः वह अंदर एवं बाहर की पवित्रता पर बल देते हैं। प्राण में मन
मिलाकर तन्मय हो जाने से जो फल मिलता है कूटस्थ को भेदकर सहस्त्रार में स्थित होकर
नाद के साथ मन मिलाने पर भी वही फल है । दोनों में ही मोक्ष है; चित्त लयहोना ही मोक्ष है चाहे कर्म
से हो या सांख्य से। 6 चक्रों की क्रिया को योग कहते हैं और
सहस्त्रार की क्रिया को सांख्य। ब्रह्म नाड़ी में प्रवेश किए बिना चक्र भेद नहीं
होता। चक्र भेद सेक्रिया-
निष्क्रियता एक हो जाती है । जो इस एक
भाव का अनुभव कर लेता है, वही ब्रह्म विद है। योग के बिना सन्यास नहीं होता । योग अभ्यास
हीचित्त शुद्धि करता है । कूटस्थ भेदही ब्राह्मी अवस्था का मार्ग है । ब्राह्मी
स्थितिलाभ करने के बाद संसार में लौट आने पर भी साधक विशुद्ध आत्मा रहते हैं।
ज्ञान की अग्नि उनके कर्म के बीजों को भस्म कर देती है । विषय ग्रहण करने पर भी, इंद्रियां विषय में आसक्त नहीं होती ।
वे साधक सभी को आत्मामय देखते हैं। वे ' मैं
मेरा ' की भावना से परे हो जाते हैं ।उनका
शरीर प्रारब्ध भोग करता है; पर वह निर्लिप्त रहते हैं। मन का सुषुम्ना, बज्रा, चित्रा
नाड़ी में प्रवेश करना ही कुंडलिनी शक्ति का जागना है । यहीज्ञाननाड़ी भी है; इसका एक छोर मूलाधार में और दूसरा
सहस्त्रार में है ।मूलाधार का छिद्र खुला है और सहस्त्रार का बंद। सिद्ध पुरुष देह
त्याग के समय सहस्त्रार का मुंह खोलकर प्राण त्याग करते हैं जिसे ब्रह्मरंध्र का
फटना कहते हैं। ब्रह्म नाड़ी में विचरण करता हुआ प्राण-अपान प्रत्येक कमल को खिलाता है ।प्राण
चालन ही ब्रह्म में कर्म का समर्पण है । सुषुम्ना के सभी अनुभवों को छोड़कर कूटस्थ में ध्यान एकाग्र करना
ही ‘मामनुस्मरन्’
है ।; संग त्याग है ; पाप से मुक्त होना है । कमल जैसे जल में जन्म लेकर भी जल से परे
रहता है वैसे ही साधक चेतना को ऊपर रखता है । कर्म से बंधता नहीं है । वायु, पित्त, कफ नाड़ी पथ को बंद रखते हैं ।बंद नाड़ी
में
प्राण चालन नहीं हो सकता । यह शरीर का मल है शब्द, स्पर्श, रूप, रस ,गंध में मन से रमण करना चित्त का मल है।
मलिन चित्त में आत्म निष्ठा नहीं रहती ।आत्म शुद्धि के लिए आसन, मुद्रा, क्रिया
का अभ्यास करना है । बुद्धि से सत् असत् का निश्चय करके अंतःकरण में प्रवेश करके केवल इंद्रिय
द्वारा तत्पद, नाद, बिंदु आदि का अनुभव होता है । अंतर्मुखी इंद्रिय ही केवल इंद्रिय है । योगी इन क्रियाओं को करते समय फल की आशा
नहीं रखते। आसक्ति रखने पर आत्म शुद्धि नहीं होती।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः
कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।5.12।। युक्त पुरुष
कर्मफल का त्याग करके परम शान्ति को प्राप्त होता है; और अयुक्त पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा
बँधता है।।
सर्वकर्माणि
मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे
पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।5.13।। सब कर्मों का मन
से संन्यास करके संयमी पुरुष नवद्वार वाली शरीर रूप नगरी में सुख से रहता हुआ न
कर्म करता है और न करवाता है।।
न
कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न
कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।5.14।।
लोकमात्र के लिए प्रभु (ईश्वर) न कर्तृत्व, न
कर्म और न कर्मफल के संयोग को रचता है। परन्तु प्रकृति (सब कुछ) करती है।।
नादत्ते
कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं
ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।। विभु परमात्मा न
किसी के पापकर्म को और न पुण्यकर्म को ही ग्रहण करता है; (किन्तु) अज्ञान से ज्ञान ढका
हुआ है, इससे सब जीव मोहित होते हैं।।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं
प्रकाशयति तत्परम्।।5.16।।परन्तु जिनका वह
अज्ञान आत्मज्ञान से नष्ट हो जाता है, उनके
लिए वह ज्ञान, सूर्य के सदृश, परमात्मा को प्रकाशित करता है।।
तात्विकव्याख्या 12-16-
युक्त साधक कर्मफल त्याग करके नैष्ठिकी
शांति प्राप्त करते हैं ;
अयुक्त मनुष्य फल से आसक्त होकर बंधन में
रहते हैं । साधक की चारों वृत्तियां कूटस्थ में रहती हैं । यही है मन:क्षय अध्याय 4 श्लोक 7। अविचलित साधक परम शांति, परम आनंद पाते हैं । इंद्रियों से परे साधक वशी
होता है । संकल्प और निश्चय दोनों वृत्ति मिट जाने पर प्रकाशमान ज्योति में स्थिति
रहती है। वशी अवस्था में क्रिया ना होने पर भी, क्रियाशक्ति और अहम बोध
रहता
है । वशी
होने के बाद साधक प्रभु होते हैं जब एकमात्र चिंतन वृत्ति रहती है। 24 तत्वों के अंदर चैतन्य की सर्व प्रधान अवस्था यह
है ।साधक देखते हैं कि वह प्रकृति के अधीन नहीं है बल्कि, प्रकृति उनके अधीन है । प्रकृति उन के
माध्यम से खेल रही है, वह सब के साक्षी हो जाते हैं ।स्वभाव या
प्रकृति की दो अवस्थाएं हैं स्वाधीन और पराधीन । जब तक चेतना अहम् क्षेत्र पार ना करके जीव
भाव में है प्रकृति जननी और जीव पुत्र है । जब चेतना ईश्वर भाव में आ जाए तब प्रकृति
रमणी और ईश्वर स्वामी है । प्रभु अवस्था में क्रियाशक्ति लीन हो जाती है, जितेंद्रिय अवस्था आती है । प्रभु के बाद
विभु अवस्था आती है, जब साधक स्वयं को विश्वव्यापी अनुभव करते हैं। यही गुणातीत अवस्था है।
चेतना चित्त व महत् तत्व के बाहर जाकर भी, अव्यक्त और चित्त के संक्रम में थोड़ा सा संस्पर्श दोष रहता है। प्रवृत्ति-निवृत्ति मिट जाती है; चैतन्य माया मुक्त अवस्था से मायातीत हो
जाता है ।गुणातीत विभु अवस्था में ज्ञान टिकता है, उसके बाद ज्ञान भी मिट जाता है । जन्तव: अर्थात निष्क्रिय जड़ी भूत अवस्था आती है । समाधि भंग होने के बाद प्रभु अवस्था
में आने पर जिस आत्मज्ञान का विकास होता है वह आदित्यमय अर्थात प्रकाशमय है ।शरीर रूपी
विश्व का प्रत्येक अणु-परमाणु प्रत्यक्ष होता है; भूत और भविष्य वर्तमान दिखते हैं।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं
ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।।5.17।। जिनकी बुद्धि उस (परमात्मा) में स्थित है, जिनका मन तद्रूप हुआ है, उसमें
ही जिनकी निष्ठा है, वह (ब्रह्म) ही
जिनका परम लक्ष्य है, ज्ञान के द्वारा
पापरहित पुरुष अपुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं, अर्थात्
उनका पुनर्जन्म नहीं होता है।।
विद्याविनयसंपन्ने
ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि
चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18।।
(ऐसे वे) ज्ञानीजन विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण, तथा गाय, हाथी, श्वान और चाण्डाल में भी सम तत्त्व को देखते हैं।।
इहैव
तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं
हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।। जिनका मन समत्वभाव में स्थित है, उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग जीत लिया जाता है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्म में
ही स्थित हैं।।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य
नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो
ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।।5.20।।
जो स्थिरबुद्धि,
संमोहरहित
ब्रह्मवित् पुरुष ब्रह्म में स्थित है, वह
प्रिय वस्तु को प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं
होता।
।बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा
विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।5.21।।
बाह्य विषयों में आसक्तिरहित अन्त:करण वाला पुरुष आत्मा में ही सुख प्राप्त करता
है; ब्रह्म के ध्यान में समाहित चित्त वाला पुरुष
अक्षय सुख प्राप्त करता है।।
ये हि
संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।5.22।।
हे कौन्तेय (इन्द्रिय तथा विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं वे
दु:ख के ही हेतु हैं, क्योंकि वे आदि-अन्त वाले हैं।
बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता।।
शक्नोतीहैव यः सोढुं
प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।5.23।।।।5.23।। जो मनुष्य इसी लोक में शरीर त्यागने के
पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है,
वह योगी (युक्त) और सुखी मनुष्य है।।
तात्विकव्याख्या 17-23-असम्प्रज्ञात
समाधि भंग हो जाने के बाद जो अवस्था होती है वही है ज्ञानासीन
जीवन मुक्त अवस्था। यह अवस्था कश्मल विहीन है । इस अवस्था में शरीर त्यागने
पर विदेह मुक्ति या पुनरावृत्ति गति होती है। ऐसे ज्ञानी ब्राह्मण में, गाय में, कुत्ते में, चांडाल में समदर्शी रहकर ब्रह्म दर्शन करते हैं ।अभेदआनंद,अभेद बुद्धि उनके अंदर निवास करते हैं ।
प्राण स्थिर होने पर मन समता में स्थित होता है जिसे सम अवस्था कहते हैं। सम में
रहना ही समाधि है। राग, द्वेष, मोह ही दोष हैं ।सम
अवस्था में विषय जागने पर समाधि सदोष हो जाती है ।तत्वदर्शी की समाधि निर्दोष होती
है। शरीर ही सर्ग या सृष्टि है । ज्ञानी शरीर अभिमान से दूर हो जाते हैं।
ब्रह्मानंद में रहने से वे स्वर्गजयी हैं । प्रारब्ध के अनुसार शुभ-अशुभ पाने पर भी वह आनंदित या दुखी
नहीं होते। उनकी बुद्धि अचल, अटल ब्रह्म में स्थित रहती है ।अतः वे मोह
वर्जित हैं। कूटस्थ में मग्न रहने के कारण बाहरी संसार में उन्हें लगाव नहीं रहता, यही आत्म सुख लाभ है। इस अवस्था के बाद ब्रम्हयज्ञ शुरू होता है
। साधक ब्रह्म अग्नि में आत्मा की आहुति देकर
ब्रह्म समाधि लाभ करते हैं। समाधि में जो आनंद स्त्रोत बहता है वह है ब्रह्मानंद । एक बार इसका अनुभव प्राप्त हो जाने पर, विषय सुख का आकर्षण समाप्त हो जाता है;
अतः यह सुख अक्षय है।
प्रिय-अप्रिय में मोह नहीं रहता। साधक को विषयों
से इंद्रियों को मुक्त करने के लिए कहा जाता है। पांच इंद्रियों के भोग भोगने की सीमा
है; सीमा के बाद दुख उत्पन्न होता है। यही नियम
है। विषय भोग में मन की शक्ति निस्तेज होती है जिसका चित्त विषय से
मलिन नहीं है, उसकी आत्मा शक्ति बढ़ती है। आत्म सुख कभी
कम नहीं होता। आत्म सुख ही परम पुरुषार्थ है । काम, क्रोध इसके शत्रु हैं। दोनों साधक पर, अंदर व बाहर से आक्रमण करते हैं । जो मृत्यु क्षण तक मन को विषयों से मुक्त रखता है, वही साधक युक्त व सुखी है ।।इह का अर्थ है पांच तत्व । इहलोक में
वास करके भी जो कूटस्थ में स्थित है, वही युक्त एवं सुखी है।
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव
यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।5.24।। जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुख वाला, आत्मा
में ही आराम वाला तथा आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह
योगी ब्रह्मरूप बनकर ब्रह्मनिर्वाण अर्थात् परम मोक्ष को प्राप्त होता है।।
लभन्ते
ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।5.25।।
वे ऋषिगण मोक्ष को प्राप्त होते हैं - जिनके पाप नष्ट हो गये हैं, जो छिन्नसंशय, संयमी और भूतमात्र के हित में रमने
वाले हैं।।
कामक्रोधवियुक्तानां
यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।5.26।। काम और क्रोध से रहित, संयतचित्त वाले तथा
आत्मा को जानने वाले यतियों के लिए सब ओर मोक्ष (या ब्रह्मानन्द) विद्यमान रहता
है।।
स्पर्शान्कृत्वा
बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।5.27।। बाह्य विषयों को बाहर ही रखकर नेत्रों की दृष्टि को भृकुटि के बीच में
स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके,।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।5.28।।
जिस पुरुष की इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि संयत हैं,
ऐसा मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से
रहित है, वह सदा मुक्त ही है।।
भोक्तारं यज्ञतपसां
सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।5.29।।(साधक भक्त) मुझे यज्ञ और तपों का भोक्ता और सम्पूर्ण लोकों का महान्
ईश्वर तथा भूतमात्र का सुहृद् (मित्र) जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।।
तात्विकव्याख्या 24-29-
कूटस्थ में
स्थिर, चंचलता शून्य साधक, चित्त की ज्योति में आकर्षित रहकर ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करते
हैं। जो साधक योग द्वारा सर्व कर्म त्याग
करके, ऋषि अर्थात सम्यक दर्शी होते हैं, वहीं पुरुष सन्यासी होते हैं। उनका चित्त विक्षेप विहीन रहता है
।वह सर्व त्यागी सभी प्राणियों के हित में रत रहते हैं । उनके दर्शन मात्र से जीव जगत के प्राण में शांति का संचार होता
है । उनके उपदेश से ही ज्ञान लाभ किया जाता है।
ऐसे सन्यासी भी ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करते हैं ।सन्यासी जीवन में भी मुक्त और मरण
में भी मुक्त रहते हैं ।विदितात्मा अर्थात आत्मा को जानना है ।जैसे दीपशिखा दीपशिखा
से मिलकर एक हो जाती है; योग व सन्यास दोनों ही एक सा परिणाम देते
हैं। विषयों का मन से चिंतन ना करना ही अंतर से विषय को बाहर करना है ।क्योंकि चिंतन
से ही विषय अंदर प्रवेश करते हैं। भ्रूमध्य में आंख चढ़ाकर ध्यान करने से यतेंद्रिय
मनोबुद्धि अवस्था आती है। मन के उस अवस्था में लीन होने पर मुनि हो जाते हैं। जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति समाधि सभी अवस्थाओं में ब्रह्म
भाव रहने पर साधक सदा मुक्त रहते हैं । जितने भी यज्ञ व तप हैं सभी के भोक्ता नारायण
विष्णु हैं । भू, भुव:
आदि सभी लोकों में मंत्र विन्यास करके आत्म
प्रतिष्ठा करके आगे बढ़ना होता है , विष्णु सभी के नियंता,
सब की आत्मा हैं। योगी अंततः विष्णु
में मिल जाते हैं और अनंत शांति प्राप्त करते हैं।
No comments:
Post a Comment