अध्याय 18
अर्जुन
उवाच
संन्यासस्य
महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य
च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।18.1।।
अर्जुन ने कहा -- हे महाबाहो ! हे हृषीकेश ! हे केशनिषूदन ! मैं संन्यास और त्याग
के तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ।।
तात्विक व्याख्या --योग शब्द के दो भाव हैं- सन्यास और त्याग। केशिनि सूदन -केश=आवरण या
लोम जो छुपा कर रखता है, जो स्वयं प्रकाश है
ज्ञान की आवरण शक्ति का विनाशक है ।प्रश्न अज्ञानता से जन्म लेता है। केशिनिसूदन
अर्थात् दैत्यहारी । दैत्य है व्यभिचारी क्षत्रिय, क्रिया अवस्था साधक की क्षत्रिय अवस्था है। क्षत= असंपूर्णता, जो असंपूर्णता से त्राण पाकर परिपूर्णत्व लेने की चेष्टा करते हैं
उन्हें क्षत्रिय कहते हैं। क्षत्रिय अवस्था में प्रश्न उठने से क्रिया में
व्यभिचार आता है। उस व्यभिचार के विनाश के लिए साधक विष्णु के शरणागत होते हैं, निजबोध में लक्ष्य करते हैं। अब इंद्रियां संयत हो गई साधक पर शासन
नहीं करती इसीलिए ऋषिकेश कहा है। हृषीका=इंद्रिय समूह,ईश=नियंता, सब कुछ निज बोध से
स्पष्ट होता है अतः महाबाहु कहकर सन्यास व त्याग का सार तत्व जानना है।
श्री भगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।18.2।।
श्रीभगवान् ने कहा -- (कुछ)
कवि (पण्डित) जन काम्य कर्मों के त्याग को "संन्यास" समझते हैं और
विचारशील जन समस्त कर्मों के फलों के त्याग को "त्याग" कहते हैं।।
तात्विक व्याख्या 2 भगवान उवाच, निज बोध से मीमांसा। शब्द,
स्पर्श, रूप, रस,
गंध काम्य वस्तुएं हैं। कर्म अर्थात ब्रह्म मार्ग में वायु चालन। इस
मार्ग में पांच विषयों का स्मरण करने की अवस्था काम्यकर्म है ।जो प्रतिक्षण नवीनता
का अनुभव करे वह कवि है।वे कविगण काम्यकर्म के नाश को सन्यास
कहते हैं ।ब्रह्म मार्ग में वायु चालन के दौरान मन अपने लक्ष्य विष्णु को नहीं
छोड़ता, इस
अवस्था का नाम सन्यास है। सर्व कर्म फल त्याग अर्थात मन जब कूटस्थ में स्थिर हो, विष्णुपद से विचलित न हो, परंतु अभ्यासवश ब्रह्म मार्ग के सब स्थानों में वायुचालन अभी भी बंद नहीं
हो, परंतु मन किसी में लिप्त ना हो ऐसी अवस्था । इस अवस्था
में साधक जितनी देर तक रह सके वह उतना त्यागी है ।जिस साधक की प्रकृति पुरुष के
ऊपर अभाव दृक शक्ति का प्रक्षेप स्थाई हो उन्हें
विचक्षण कहते हैं । वे विचक्षणगण सर्वकर्मफलत्याग करने वाले को त्यागी कहते हैं।
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।।18.3।।
कुछ मनीषी जन कहते हैं कि समस्त कर्म दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य हैं; और अन्य जन कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म
त्याज्य नहीं हैं।।
निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः।।18.4।।
हे भरतसत्तम ! उस त्याग के
विषय में तुम मेरे निर्णय को सुनो। हे पुरुष श्रेष्ठ ! वह त्याग तीन प्रकार का कहा
गया है।।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।18.5।।
यज्ञ, दान और तपरूप कर्म
त्याज्य नहीं है, किन्तु वह नि:सन्देह कर्तव्य है; यज्ञ, दान और तप ये मनीषियों (साधकों) को पवित्र
करने वाले हैं।।
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्िचतं मतमुत्तमम्।।18.6।।
हे पार्थ ! इन कर्मों को भी,
फल और आसक्ति को त्यागकर करना चाहिए, यह मेरा
निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।।
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।18.7।।
नियत कर्म का त्याग उचित नहीं है; मोहवश उसका त्याग करना
"तामस त्याग" कहा गया है।।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।18.8।।
जो मनुष्य, कर्म को दु:ख समझकर शारीरिक कष्ट के भय से त्याग देता है, वह पुरुष उस राजसिक त्याग को करके कदापि त्याग के फल को प्राप्त नहीं होता
है।।
तात्विक व्याख्या
3-8
जो साधक मन को वश में कर चुका है वह मनीषी है।मनीषीगण ब्राह्मी स्थिति का रसास्वादन कर के
कर्म (प्राण चालन ) के कंपन को भी अच्छा नहीं मानते । इसलिए उनके लिए कर्म भी
त्याज्य है। जिसका मन वशीभूत नहीं हुआ है वे कहते हैं कि यज्ञ, दान, तप
क्रिया त्यागने योग्य नहीं है। त्याग भी तीन प्रकार का होता है- मन को लेकर यज्ञ,
तप, दान, छोड़ नहीं सकते
संस्कार आप ही आप करवाता है। क्योंकि विवेकियों का अंतरण शुद्धि का उपादान यज्ञ,
दान, तप है।ब्रह्म मार्ग में वायु जलन होने से
समस्त यज्ञ दान तप का कर्म संपन्न होता है अर्थात इच्छा रूपिणी माया का संग ना
रहने के कारण कर्म फल में लिप्त नहीं होना पड़ता । इसलिए संग (कर्म फल की इच्छा )
परित्याग करके यज्ञ, दान, तप, कर्म करना ही कर्तव्य है। फल इच्छा रहित कर्म का उपदेश करने से कर्म त्याग
का उपदेश नहीं किया गया है। मूर्ख लोग मोह के वश जिस कर्म का त्याग करते हैं वह
तामस त्याग है। खाली बैठने से शरीर में जड़ता आती है जिससे शरीर अस्वस्थ होता है
।काल्पनिक भय से कर्म को परित्याग करने वाले एक छोड़कर दूसरा कर्म करते हैं ।परंतु
ब्राह्मी स्थिति में जो महत् त्याग का फल है उसे ऐसे
लोग नहीं पाते। उनका त्याग राजस त्याग है।
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।18.9।।
हे अर्जुन ! "कर्म करना कर्तव्य है" ऐसा समझकर जो नियत कर्म
आसक्ति और फल को त्यागकर किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग
माना गया है।।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।।18.10।।
जो पुरुष अकुशल (अशुभ) कर्म से
द्वेष नहीं करता और कुशल (शुभ) कर्म में आसक्त नहीं होता, वह
सत्त्वगुण से सम्पन्न पुरुष संशयरहित, मेधावी (ज्ञानी) और
त्यागी है।।
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।18.11।।
क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा अशेष कर्मों
का त्याग संभव नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही पुरुष त्यागी कहा जाता है।।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।18.12।।
कर्मों के शुभ, अशुभ और मिश्र ये त्रिविध फल केवल
अत्यागी जनों को मरण के पश्चात् भी प्राप्त होते हैं; परन्तु
संन्यासी पुरुषों को कदापि नहीं।।
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।18.13।।
हे महाबाहो ! समस्त कर्मों की सिद्धि के लिए ये पांच कारण सांख्य सिद्धांत में कहे गये हैं, जिनको तुम मुझसे भलीभांति जानो।।
तात्विक व्याख्या--ज्ञानेंद्रियों, कर्मेंद्रियों से नियत कर्म करते-
करते अनासक्त भाव से ब्रह्म नाड़ी में प्राण चालन सात्विक त्याग है । जो सत्व
अर्थात सत्भाव -सत्य, न्याय, धर्म,दया, भक्ति, महत्व पवित्रता को
उत्पन्न करता है अर्थात आत्मा ।जो आत्मा में संतुष्ट है वह है सत्व समाविष्ट ।जो
अनित्य संसार का वर्जन करे वही त्यागी है ।मैं ब्रह्म के सिवाय और कुछ नहीं हूं इस
स्मृति में जिसे कंपन ना हो वह है मेधावी। ऐसे साधक संशय रहित, अहितकर कर्मों से द्वेष, हितकर कर्मों से राग नहीं
रखते । देह से जुड़े साधक त्यागी नहीं हो सकते। जो साधना के फल का भी त्याग करे,
वही सच्चा त्यागी है। कामना परायण लोग तीन प्रकार के कर्मफल अगले
जन्म में भुगतते हैं । सन्यासी को कर्म फल स्पर्श नहीं करते ।शरीर धारण करने से जो
कुछ पाप होता है वह उनके निंदक गण ग्रहण करते हैं। जो उनकी प्रशंसा करते हैं वे
सन्यासियों के पुण्य का फल ग्रहण करते हैं। अतः कर्मफल त्यागियों की मुक्ति
निश्चित है।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।18.14।।
अधिष्ठान (शरीर), कर्ता ,विविध
करण (इन्द्रियादि) ,विविध और पृथक्-पृथक् चेष्टाएं तथा
पाँचवा हेतु दैव है।।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।18.15।।
मनुष्य अपने शरीर, वाणी और मन से जो कोई न्याय्य
(उचित) या विपरीत (अनुचित) कर्म करता है, उसके ये पाँच कारण
ही हैं।।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।18.16।।
अब इस स्थिति में जो पुरुष असंस्कृत बुद्धि होने के कारण, केवल शुद्ध आत्मा को कर्ता समझता हैं, वह दुर्मति
पुरुष (यथार्थ) नहीं देखता है।।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।18.17।।
जिस पुरुष में अहंकार का भाव
नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह
पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है।।
तात्विक व्याख्या 13-17
जिस शास्त्र से आत्मज्ञान का उदय हो वही सांख्य
है। जो शास्त्र प्रपंच की अनित्यता, आत्मा की नित्यता, समझाए वही
कृतांत या वेदांत है कृत=किया गया कर्म; इसका अंत जिससे हो
वही कृतांत है ।आत्मज्ञान के लिए सर्व कर्म की निष्पत्ति के पांच कारण हैं--
अधिष्ठान (शरीर), कर्ता (भोक्ता), 12
करण( पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, मन,बुद्धि),49 वायु के
आकर्षण-विकर्षण से नाना प्रकार का क्षय-उदय का प्रकाश और दैव(पूर्वकृत कर्म का
फल)। जो देह अभिमानी,दुर्मति अपनी आत्मा से दूर रहते हैं वह
इस सत्य को नहीं समझते। जो साधना से अपने अच्युत भाव में रहकर आदि- मध्य-अंत
किसी से लिप्त नहीं होता उसकी देह का वध हो जाने पर भी वह कर्म फल
में नहीं फंसता।
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।18.18।।
ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता ये त्रिविध कर्म
प्रेरक हैं, और, करण, कर्म. कर्ता ये त्रिविध कर्म संग्रह हैं।।
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।18.19।।
ज्ञान, कर्म और कर्ता भी गुणों के भेद से
सांख्यशास्त्र (गुणसंख्याने) में त्रिविध ही कहे गये हैं; उनको
भी तुम मुझ से यथावत् श्रवण करो।।
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।18.20।।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्। ।।18.20।। जिस ज्ञान से मनुष्य, विभक्त रूप में स्थित समस्त
भूतों में एक अविभक्त और अविनाशी (अव्यय) स्वरूप को देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्त्विक जानो।।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।18.21।।
जिस ज्ञान के
द्वारा मनुष्य समस्त भूतों में नाना भावों को पृथक्-पृथक् जानता है, उस ज्ञान को तुम राजस जानो।।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।18.22।।
और जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक कार्य (शरीर) में ही आसक्त हो जाता है, मानो वह (कार्य ही) पूर्ण वस्तु हो तथा जो (ज्ञान) हेतुरहित (अयुक्तिक),
तत्त्वार्थ से रहित तथा संकुचित (अल्प) है, वह
(ज्ञान) तामस है।। तात्विक व्याख्या
कार्य के पांच हेतु और
तीन प्रेरक हैं- ज्ञान,ज्ञेय, परि ज्ञाता। ये ही
कर्म में नियुक्त करते हैं ।कर्मेंद्रियां करण हैं,
संचालन क्रिया 'कर्म' है;
'मैं' कर्ता हूं; करण,
कर्म, कर्ता, तीनों
कार्य के आश्रय हैं, जिन पर कार्य निर्भर करता है। सांख्य
शास्त्र में सत, रज, तम का ज्ञान,
कर्म व कर्ता के प्रकार निश्चित करता है। पांच भूत से उत्पन्न
स्वेदज (पसीने से उत्पन्न), अंडज(अंडे से जन्मने वाले),
उद्भिज( धरती से उत्पन्न ),जरायुज (गर्भ से
जन्म लेने वाले ),विनाशी, अनित्य हैं
परंतु इनके परिणाम में जो है वह नित्य और अव्यय है। दोनों एक दूसरे पर निर्भर करते
हैं एक के बिना दूसरा नहीं है, यह ज्ञान सात्विक है। पदार्थों
को पृथक देखना राजसी ज्ञान है। शरीर के भोगों को ही सब कुछ समझना, परमार्थ से भृष्ट रहना तामस ज्ञान है।
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।18.23।।
जो कर्म (शास्त्रविधि से) नियत
और संगरहित है, तथा फल को न चाहने वाले पुरुष के द्वारा बिना
किसी राग द्वेष के किया गया है, वह (कर्म) सात्त्विक कहा
जाता है।।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।18.24।
और जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त है तथा फल की
कामना वाले, अहंकारयुक्त पुरुष के द्वारा किया जाता है,
वह कर्म राजस कहा गया है।।अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।18.25।।
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और
सार्मथ्य (पौरुषम्) का विचार न करके केवल मोहवश आरम्भ किया जाता है, वह कर्म तामस कहलाता है।।
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।18.26।।
जो कर्ता संगरहित, अहंमन्यता से रहित, धैर्य और उत्साह से युक्त एवं कार्य की सिद्धि (सफलता) और असिद्धि
(विफलता) में निर्विकार रहता है, वह कर्ता सात्त्विक कहा जाता
है।।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः।।18.27।।
रागी, कर्मफल का इच्छुक, लोभी,
हिंसक स्वभाव वाला, अशुद्ध और हर्षशोक से
युक्त कर्ता राजस कहलाता है।।
अयुक्तः
प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।18.28।।
अयुक्त, प्राकृत, स्तब्ध,
शठ, नैष्कृतिक, आलसी,
विषादी और दीर्घसूत्री कर्ता तामस कहा जाता है।।
तात्विक व्याख्या 23-28
ब्रह्म मार्ग में प्राण चालन होता रहे, इच्छा,राग,
द्वेष, कर्म फल की इच्छा ना रहे तो कर्म
सात्विक होता है । यश की इच्छा से किया गया कर्म राजसी है ।बिना विधि का, दूसरे को दुख देने के लिए किया गया कर्म तामसी है। जिस साधक में इच्छा, अभिमान ना हो, मन ब्रह्मयोग में लीन हो, सिद्धि -असिद्धि में समभाव
हो, वह सात्विक है । अंतः करण में अनुराग,
कर्म फल की आकांक्षा, पराई संपत्ति में लोभ,
अनाचार, भोग पाने में हर्ष, ना पाने में शोक है, वह राजस कर्ता है ।जिसमें बच्चों की तरह चंचलता, विवेक
शून्यता, नम्रता का अभाव, ऊपर कुछ अंदर
कुछ और भाव हो, अपने थोड़े से लाभ के लिए दूसरे की बड़ी हानि
करे, आलसी, कर्तव्य कर्म को टालने वाला
कर्ता तामस है।
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु।प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।18.29।।
हे धनंजय ! मेरे
द्वारा अशेषत: और पृथकत: कहे जाने वाले, गुणों के कारण
उत्पन्न हुए बुद्धि और धृति के त्रिविध भेद को सुनो।।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.30।।
हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति, कार्य
और अकार्य, भय और अभय तथा बन्ध और मोक्ष को तत्त्वत जानती है,
वह बुद्धि सात्विकी है।।
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।18.31।।
हे पार्थ ! जिस बुद्धि के
द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को यथावत् नहीं जानता है,
वह बुद्धि राजसी है।।
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसाऽऽवृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।18.32।।
हे पार्थ ! तमस् (अज्ञान अन्ध:कार) से आवृत जो बुद्धि अधर्म को ही धर्म
मानती है और सभी पदार्थों को विपरीत रूप से जानती है, वह
बुद्धि तामसी है।।
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.33।।
धृति शब्दके साथ दूर पड़े हुए अव्यभिचारिणी शब्दका सम्बन्ध है। जिस
अव्यभिचारिणी धृतिके द्वारा? अर्थात् सदा समाधिमें लगी
हुईजिस धारणाके द्वारा? समाधियोगसे मन? प्राण और इन्द्रियोंकी सब क्रियाएँ धारण की जाती हैं? अर्थात् मन? प्राण और इन्द्रियोंकी सब चेष्टाएँ
जिसके द्वारा शास्त्रविरुद्ध प्रवृत्तिसे रोकी जाती हैं? ( वह
धृति सात्त्विकी है )। ( सात्त्विकी ) धृतिद्वारा धारण की हुई ( इन्द्रियाँ ) ही
शास्त्रविरुद्ध विषयमें प्रवृत्त नहीं होतीं। कहनेका तात्पर्य यह है कि धारण करनेवाला
मनुष्य? जिस अव्यभिचारिणी धृतिके द्वारा समाधियोगसे मन?
प्राण और इन्द्रियोंकी चेष्टाओंको धारण किया करता है? हे पार्थ वह इस प्रकारकी धृति सात्त्विकी है।
यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।18.34।।
हे पृथापुत्र अर्जुन ! कर्मफल का इच्छुक पुरुष अति आसक्ति (प्रसंग) से
जिस धृति के द्वारा धर्म, अर्थ और काम (इन तीन पुरुषार्थों)
को धारण करता है, वह धृति राजसी है।।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।18.35।।
हो पार्थ ! दुर्बुद्धि पुरुष जिस धारणा के द्वारा, स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मद को नहीं त्यागता है, वह धृति तामसी है।।
तात्विक व्याख्या29-35
साधक ज्ञान की चरम सीमा
तक पहुंच कर कर्म विहीन निष्क्रिय पद में आत्म भाव में स्थित होकर सारे जगत को तीन
गुणों की लीला देखता है ।विशुद्ध बुद्धि युक्त, राग-द्वेष से मुक्त, पराभक्ति
से युक्त, चित्त में अनंत शांति का अनुभव करने वाला साधक
मोक्ष लाभ करता है । साधक जो अर्जुन के रूप में विशुद्ध बुद्धि की जय करने में
समर्थ है, धनंजय कहलाता है। प्रवृत्ति(ब्रह्मत्व पाने की
साधना ) निवृत्ति(ब्रह्मत्व पाने के बाद की सनातन विश्रांति), कार्य (जिसे करना होगा), अकार्य (जो कर चुके),भय (मृत्यु का स्मरण),अभय (मैं अमर हूं, यह निश्चय ज्ञान), बंध (जीवभाव ),मोक्ष(ब्रह्म ज्ञान का अधिकार) यह ज्ञान कराने वाली बुद्धि सात्विकी है।
धर्म (जिससे किसी से विरोध उत्पन्न ना हो) ;अधर्म (जो
परिणामी है )। कार्य- अकार्य की सत्यता में जो भ्रम या संशय उत्पन्न करें वह राजसी
बुद्धि है। जो सब कुछ विपरीत समझाए, अज्ञान से ढकी बुद्धि
तामसी है। क्रिया योग के अभ्यास से मन,प्राण, इंद्रियों की क्रियाओं को रोककर जो निष्पंद (अव्यभिचारिणी )स्थिति है उसके
अधिक समय तक टिके रहने को सात्विकी धृति कहते हैं। भोग लालसा में मतवाला रखने वाली
राजसी धृति है ।भय, शोक, विषाद,
मद से भरी आत्मारा शक्ति तामसी धृति है।
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।18.36।
हे भरतश्रेष्ठ ! अब तुम त्रिविध सुख को मुझसे सुनो, जिसमें (साधक पुरुष) अभ्यास से रमता है और दु:खों के अन्त को प्राप्त होता
है (जहाँ उसके दु:खों का अन्त हो जाता है।)।।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।18.37।।
जो सुख प्रथम (प्रारम्भ में) विष के समान (भासता) है, परन्तु परिणाम में अमृत के समान है, वह आत्मबुद्धि
के प्रसाद से उत्पन्न सुख सात्त्विक कहा गया है।।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।18.38।।
जो सुख विषयों
और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है, वह प्रथम तो
अमृत के समान, परन्तु परिणाम में विष तुल्य होता है, वह सुख राजस कहा गया है।।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।18.39।।
जो सुख प्रारम्भ में और परिणाम (अनुबन्ध) में भी आत्मा (मनुष्य) को
मोहित करने वाला होता है, वह निद्रा, आलस्य
और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा जाता है।।
न
तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्ित्रभिर्गुणैः।।18.40।।
पृथ्वी पर अथवा स्वर्ग के देवताओं में ऐसा कोई प्राणी (सत्त्वं अर्थात्
विद्यमान वस्तु) नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीन गुणों से मुक्त (रहित) हो।।
तात्विक व्याख्या36-40 जिसके अभ्यास से परमानंद लाभ हो दुख का नाश हो
वही सुख है । चित्त को स्थिर करने के लिए किए जाने वाले यत्न को अभ्यास कहते हैं।
क्लेश दुख
है ।दुख के तीन प्रकार हैं आध्यात्मिक (मानसिक ) परमात्मा का संग ना मिलने के कारण
होता है , आधिदैविक (शारीरिक और मानसिक) संचित कर्मफल के
कारण कर्म में सिद्धि ना पाने से या विघ्न आने से जो क्लेष होता है। आधिभौतिक
(शारीरिक) वात- पित्त- कफ़ का प्रकोप । तीनों दुखों के अंत से परमानंद होता है।
सुख के तीन प्रकार हैं- जो पहले विष के समान है क्योंकि ज्ञान, वैराग्य, ध्यान, समाधि के लिए
कष्ट सहना पड़ता है परंतु परिणाम में अमृत की तरह आनंद देता है वह सात्विक सुख है।
इंद्रियों का विषयों से संयोग जो भोग काल में अमृत और परिणाम में बल, वीर्य, रूप, प्रज्ञा, मेधा, धन, स्वास्थ्य, उत्साह की हानि देने वाला है राजस सुख है ।जो निद्रा, आलस्य, हिंसा, नशे से मिले वह
तामस सुख है। सभी जीव प्रकृति के गुण विकार से उत्पन्न हैं। कोई भी तीन गुणों से
परे नहीं है। तीन गुणों में से एक का भी अंश रहने पर निवृत्ति नहीं प्राप्त होती।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां
शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।18.41।।
हे परन्तप! ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के कर्म, स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं।। तात्विक व्याख्या41 कर्म समूह के द्वारा परमेश्वर की आराधना करने से
ज्ञान प्राप्त होता है जिससे मोक्ष होता है ।यही गीता का सार है ।ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,
शूद्र का कर्म पृथक -पृथक रूप से विभाजित है। सत -रज -तम का समान
अंश रहने पर कोई क्रिया नहीं होती; विषम अंश से ही क्रिया
होती है ।प्रथम श्रेणी का जीव सत्व प्रधान, दूसरी श्रेणी का
सत्व में रज के मिश्रण की प्रधानता है, तीसरे में तम मिश्रित
रज की प्रधानता है, चौथे में रज मिश्रित तम प्रधान गुण है।
जीव कर्मफल के अनुसार विभिन्न जन्म लेता है । देह छोड़ते समय कर्म का संस्कार उसके
साथ जाता है जो अगला जन्म निर्धारित करता है। पूर्व जन्म के संस्कार को ही स्वभाव
कहते हैं।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।18.42।।
शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य - ये ब्राह्मण के
स्वाभाविक कर्म हैं।।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।18.43।।
शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न करना, दान और ईश्वर भाव (स्वामी भाव) - ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।18.44।।
कृषि, गौपालन तथा वाणिज्य - ये वैश्य के
स्वाभाविक कर्म हैं, और शूद्र का स्वाभाविक कर्म है परिचर्या
अर्थात् सेवा करना।।
स्वे
स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।18.45।।
अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में अभिरत मनुष्य संसिद्धि को प्राप्त कर लेता है। स्वकर्म में रत मनुष्य किस प्रकार सिद्धि प्राप्त करता है, उसे तुम सुनो।।
तात्विक व्याख्या42-45 पूर्व जन्मों के कर्म संस्कार की
निर्मलता से स्वभावत: शम, दम, तप,
शौच, क्षांति,आर्जव,
ज्ञान विज्ञान, वेद, ईश्वर
का अस्तित्व स्वत: जिसके अंत:करण में प्रकाश पाएगा, वही
ब्राह्मण है,जो इस आचरण से मुक्ति लाभ करेगा । आठ प्रहर जो
क्रिया अभ्यास करें वही शूरवीर है। तेज=शत्रु को तपाने की शक्ति। जिस शक्ति से
अवसाद नहीं आता वही धृति या धारणावती शक्ति है आज्ञा चक्र से ऊपर उठकर परम शिव में
लक्ष्य स्थिर करना । कारण के साथ कार्य का परिणाम हृदय में विद्यमान रहना ही दक्षता है। युद्ध में पलायन ना करना ही अपलायन
है।(आज्ञा चक्र से मूलाधार में उतरने के समय कूटस्थ में दृष्टि रखकर पुनः उठ
जाना)। दान =त्याग स्वीकार करना। वेद=ईश्वर में विकास यह क्षत्रिय का स्वभाव है।
जिस आचरण से ऊर्द्ध गति होती है क्षेत्र कर्षण करने का नाम कृषि है। शरीर नामक
क्षेत्र में प्रश्वास निश्वास रूप कर्षण(क्रिया अभ्यास) करने से सफलता मिलती है।
गो = पृथ्वी अर्थात शरीर; इसकी रक्षा करने का भ्रम मन में
रखना( शरीर क्षणभंगुर है)| सुपथ पर चलकर इंद्रियों को मन से वश में रखना ही
गौरक्ष्य है; अपना
लाभ रखकर लेन-देन करना वाणिज्य है; इस प्रकार फल की इच्छा से
क्रिया अभ्यास करने वाला साधक वैश्य है; तथापि वह द्विज है (एक जन्म में दो जन्म जिसने लिए) स्त्री, पुत्र आदि में गहरी आसक्ति रखना, कृषि करना नहीं
चाहते, भय के मारे, परंतु तीन प्रकार
के साधकों की सेवा करने में मन लगाने वाले शूद्र
है; ऐसे सुमतिवान भी क्रमशः कल्याण लाभ करते हैं ।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।18.46।।
जिस (परमात्मा) से भूतमात्र की प्रवृत्ति अर्थात् उत्पत्ति हुई है और
जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, उस (परमात्मा) की
स्वकर्म द्वारा पूजा करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त होता है।।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।18.47।।
सम्यक् अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है।
(क्योंकि) स्वभाव से नियत किये गये कर्म को करते हुए मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त
करता।।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।
हे कौन्तेय ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए;
क्योंकि सभी कर्म दोष से आवृत होते है, जैसे
धुयें से अग्नि।।
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।18.49।। सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धि वाला वह पुरुष जो स्पृहारहित तथा जितात्मा
है, संन्यास के द्वारा परम नैर्ष्कम्य सिद्धि को प्राप्त
होता है।।
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।18.50।।
सिद्धि को प्राप्त पुरुष किस प्रकार ब्रह्म को प्राप्त होता है, तथा ज्ञान की परा निष्ठा को भी तुम मुझसे संक्षेप में जानो।।
तात्विक व्याख्या46-50भगवान अंतर्यामी है; जगत के कारण हैं; कर्म फल विधाता हैं| अपने वर्ण के अनुसार हर साधक
को क्रिया अभ्यास करना है; अपने वर्ण के कर्म से घृणा नहीं
करनी चाहिए क्योंकि सब कर्म के फल के अनुसार जन्म ग्रहण करते हैं; मानव को अपने कल्याण के लिए, मान-अपमान का बोध त्याग कर स्वकर्म करना है; भगवान की
अर्चना करनी है; योग अनुष्ठान करना ही अर्चना है; उसी से सिद्धि लाभ होता है।
स्वभाव से उत्पन्न कर्म ही स्वधर्म है ।स्वभाव से
उत्पन्न ब्रह्मकर्म ब्राह्मण का धर्म है; स्वभाव से उत्पन्न क्षात्रकर्म ही क्षत्रिय का
स्वधर्म है; स्वभाव से उत्पन्न वैश्यकर्म वैश्य का स्वधर्म
है; स्वभाव से उत्पन्न शुद्रकर्म शुद्र का स्वधर्म है| प्रत्येक वर्ण के लिए अन्य तीन धर्म, परधर्म है| किसी में गुण- दोष ना देखना ही गुण है| अर्जुन इसे धारण नहीं कर सके, उन्होंने युद्ध में
शत्रु वध करने के स्वधर्म में दोष देखा और
भिक्षा मांगने के परधर्म में गुण देखा; इसलिए भगवान ने
उन्हें स्वधर्म पालन करने के लिए कहा} ।स्वभावज (स्वभाव से उत्पन्न) कर्म करने से पाप स्पर्श नहीं
होता; कर्म फल अवश्य सामने आकर खड़ा होता है; अतः अनासक्त भोग के बिना कर्म काक्षय नहीं होता;
इसलिए परधर्म से स्वधर्म बेहतर है |
विगुण= विगत गुण या तीनों गुणों से अतीत |तीन गुणों के लय के पश्चात् की
ब्राह्मी स्थिति ही स्वधर्म है; समाधि भंग होने के बाद, पुनः समाधि प्रवेश की क्रिया भी श्रेय है परंतु,
प्राकृतिक रूप से विषयाकार वृत्ति लेकर रहना श्रेय नहीं है|
ब्राह्मी स्थिति पाने के लिए जो स्वभाव से उत्पन्न क्रिया करना है वही स्वभाव नियत
कर्म है; प्रवृत्ति के वश में जाना ही पाप है। क्रिया अभ्यास
करते रहना प्रकृति के वश में नहीं जाना है।
सहज= जन्म के साथ उत्पन्न;
प्राणक्रिया या ही सहज कर्म है; माता के गर्भ में जीव की
प्राण क्रिया अति सूक्ष्म रहकर ब्रह्म
नाड़ी में बहती रहती है जिससे सप्तधातु का पुष्टिकरण होता है|
जन्म के साथ प्राणक्रिया नासा में प्रश्वास-निश्वास के रूप में
शुरू हो जाती है| प्राण प्रवाह को अंतर्मुखी किए बिना मोह का
विनाश नहीं होता; मोह का विनाश होने पर, आत्मा की स्मृति जागरूक होती है; आत्मज्ञान उदय
होने से जगत और सम्पूर्ण सृष्टि आनंदमय हो जाते हैं; प्राण
का अन्तर्मुखी प्रवाह ही सहज कर्म है।
योग दीक्षा देकर श्री गुरुदेव प्राण प्रवाह को
अंतर्मुखी कराकर अखंड मंडल आकार ततपद का दर्शन कराते हैं; यह प्राण-प्रवाह
परिवर्तन स्थाई नहीं होता; विकर्म की ताड़ना से पुनः घूम
जाता है; स्वयं साधन
करना पड़ता है; विषयों के आकर्षण से टकराकर विधि रहित चेष्टा
करना ही ‘दोष’ है ;सदोष होने से भी सहज कर्म (अंतर्मुखी प्राण चालन) नहीं त्यागना चाहिए
| मनुष्य के स्वभाव (शरीर-मन की अवस्था) के
परिवर्तन के साथ प्राण क्रिया में भी
परिवर्तन आता है; प्राण की तात्कालिक क्रिया का अनुवर्तन
करते हुए (हर्ष में प्राण हंसाता है शोक में प्राण रुलाता है
आदि) उसी क्रिया को बदलकर उसे त्यागना युक्तियुक्त है |साधक के जीवन में सहज कर्म से भाव परिवर्तन होते हैं; उपनयन संस्कार से पहले शूद्र अवस्था होती है; उपनयन
को अंतर्दृष्टि भी कहते हैं; गुरुदेव दीक्षा काल में भूमध्य
में दिव्य चक्षु खोलते हैं, उसे उपनयन कहते हैं | दीक्षा के बाद अभ्यास से अंतःकरण के आवरण हटाने होते हैं; आवरण हटने पर दिव्य चक्षु से भूत-भविष्य-वर्तमान सब दिखने लगता है; शूद्रत्व जाकर साधक में द्विजत्व आता है; मातृ गर्भ
से जन्म लेने पर प्राण क्रिया अंतर्मुखी
गति छोड़कर, बहिर्मुखी होती है उपनयन से प्राण क्रिया
बहिर्मुखी गति छोड़कर अंतर्मुखी होती है; प्राण क्रिया के
बहिर्मुखी होने पर विषय वृत्ति जागती है और अंतर्मुखी होने पर भिन्न
वृत्तियाँ उदय होती हैं जिन के अनुरूप
कर्मों का अनुष्ठान करना साधक का कर्तव्य है, सहज कर्म है| स्वभावज कर्म है; क्रिया वर्जित अवस्था ही शूद्र
अवस्था है| शरीर को शम, दम, आसन, प्राणायाम द्वारा साधना के अनुकूल बनाना होता
है; क्रिया ही साधक की द्विज अवस्था है| क्रिया की प्रथम अवस्था वैश्य भाव, द्वितीय
क्षत्रिय भाव और शेष अवस्था ब्राह्मण भाव है| प्रथम अवस्था
का स्वभावज कर्म, कृषि,गौरक्ष्य, वाणिज्य है| सिर, गर्दन, पीठ को सीधा रखकर, बैठ कर शरीर के अधोगामी वेग को
सीधा ऊपर खींच कर, हृदय में अनाहत चक्र पर, निर्भर करना होता है| आसन सुचारू रूप से ना लगने तक, वायु के सहयोग से शरीर को कसकर 6 चक्रों में मंत्र
बीज को अर्पण करना ही कृषि क्रिया है|11 इंद्रियों को संयत
कर, गुदा , लिंग,
पाँव को आसन द्वारा संयत कर, हाथ से ज्ञान मुद्रा लगाकर, जीभ को पलटकर दाहिने
तालू में लगाकर कूटस्थ में ध्यान लगाना होता है |इस अवस्था
में किसी इंद्रिय में कष्ट न हो, आसन स्थिर व सुखासन हो, किसी भी अंग में कष्ट होने पर क्रिया में विघ्न पड़ता है, साधना में आसन ही मातृ रूप है; यही गौरक्ष्य है; वाणिज्य प्राण का व्यवसाय है; आत्म मंत्र से मिले
हुए प्राण को देवगण बहुत प्यार करते हैं|
साधक को भवसागर पार करना है परंतु अपरिचित देश, अज्ञान अंधकार से ढका हुआ रास्ता
है; गुरु की कृपा से प्राण में मंत्र मिलाना सीखना है| ब्रह्मलोक का रास्ता जानकर, मंत्रयुक्त प्राण को
लेकर ब्रह्ममार्ग के छह स्थानों में देवताओं के साथ प्राण का व्यवसाय होता है; प्राण के बदले देवगण ज्ञान देते हैं; आलोक देते हैं; सहायक होते हैं| इस परस्पर भावना से परम श्रेय लाभ
होता है यही वाणिज्य है; श्वास पर वेग प्रयोग करने से, तेज
प्रकाश देखने की चेष्टा से, नाड़ी पथ सरल न होने से, वायु का वेग बाधा पाकर विकृति करके, रोग उत्पन्न
करता है|‘सहज कर्म कौंतेय’ अर्थात वेग
प्रयोग नहीं करना है; श्वास सूक्ष्म होने पर क्रिया की दूसरी
अवस्था आ जाती है; मध्यम अवस्था क्षत्रिय भाव है, यह साधक की कठोर अवस्था है; गुरु के उपदेश से नाड़ी
पथ परिष्कृत हो जाने के बाद, श्वास पर वेग प्रयोग करना होता है,
वायु को विविध नाड़ी पथों में चलाना होता है | साधन क्लेश
सहना पड़ता है; काम-क्रोध पर विजय पानी
होती है; शरीर राज्य के अनेक स्थान साधक के अधीन हो जाते हैं, विभूतियां लाभ होती हैं; विभूति को भोगना नहीं है, अनासक्त रहकर भगवान को समर्पण करते चलना है, यही
दान है| प्राकृतिक शक्ति पर सर्वत्र आत्मभाव का विस्तार होना
ही ईश्वर भाव है;6 चक्रों में कोई चेष्टा नहीं रहती, सहस्त्रार में ब्रह्मानंद में, मन मतवाला रहता है| घोर कर्म के अनुष्ठान के बिना ज्ञान अवस्था में रह नहीं सकते; क्रिया अभ्यास से जिसने मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को अपने अधीन कर लिया वही सन्यास (सर्वनाश) से उत्कृष्ट नैष्कर्म्य सिद्धि-- ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करते हैं| अति कठोर संयम
से ब्रह्म संस्पर्श सुख का अभ्यास करते-करते असीम उदारता आ
जाती है जिससे नव द्वार युक्त शरीर में क्रिया शून्यअंतः करण में साधक की स्थिति
नैष्कर्म्य सिद्धि है।
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।18.51।
विशुद्ध बुद्धि से युक्त, धृति से आत्मसंयम कर,
शब्दादि विषयों को त्याग कर और राग-द्वेष का परित्याग कर....৷৷৷৷।।
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।18.52।।
विविक्त सेवी, लघ्वाशी (मिताहारी) जिसने अपने
शरीर, वाणी और मन को संयत किया है, ध्यानयोग
के अभ्यास में सदैव तत्पर तथा वैराग्य पर समाश्रित।।
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।18.53।।
अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित
और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है।।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।18.54।।
ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न
मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के
प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है।।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।18.55।।
(उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना
(व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही
वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता
है।। तात्विक व्याख्या51-55जिसकी बुद्धि आत्म स्वरूप के सिवाय सब की उपेक्षा करती है, धृति स्वरूप के सिवाय कहीं नहीं
रहती, देहअभिमान संयत हो चुका, राग-द्वेष अंतःकरण से चले गए, मूलाधार से आज्ञाचक्र को
भेद कर ब्रह्म नाड़ी में आवागमन करता है, चित्रा, वज्रा, सुषुम्ना किसी के स्पर्श से लिप्त नहीं होता, लघु आहार करता है, लघु आशा करता है, ब्रह्म के सिवाय कुछ नहीं चाहता, ममता रहित, ऐसा धीर साधक ब्रह्म लाभ के योग्य होता है| ब्रह्म
स्पर्श अनुभव करने के बाद, साधक ब्रह्मविद या ब्रह्मभूत कहलाता है;प्रसन्नात्मा
=प्र (=सर्वतोभाव से)+ सन्न (गमन ); सर्वतो भाव से संपन्न गमन; जो सर्व भाव से आत्मा में गमन कर चुका है जिसमें मायिक संस्कार नहीं है
वहीं निस्तरंग साधक ज्ञान पाता है; तत्व, प्रकृति, माया का भ्रमउड़ जाता है;तत्वतो ज्ञात्वा अवस्था यही है।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।18.56।।
जो पुरुष मदाश्रित होकर सदैव समस्त कर्मों को करता है, वह
मेरे प्रसाद (अनुग्रह) से शाश्वत, अव्यय पद को प्राप्त कर
लेता है।।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।।18.57।।
मन से समस्त कर्मों का संन्यास मुझमें करके मत्परायण होकर बुद्धियोग का
आश्रय लेकर तुम सतत मच्चित्त बनो।।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।18.58।।
मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार
कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे,
तो तुम नष्ट हो जाओगे।।
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।18.59।।
और अहंकारवश तुम जो यह सोच रहे हो, "मैं
युद्ध नहीं करूंगा", यह तुम्हारा निश्चय मिथ्या है,
(क्योंकि) प्रकृति (तुम्हारा स्वभाव) ही तुम्हें (बलात् कर्म में)
प्रवृत्त करेगी।।
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।18.60।।
हे कौन्तेय ! तुम अपने स्वाभाविक कर्मों से बंधे हो, (अत:) मोहवशात् जिस कर्म को तुम करना नहीं चाहते हो, वही तुम विवश होकर करोगे।।
तात्विक व्याख्या
56-60ब्रह्म सब
का आश्रय है पर स्वयं निराश्रय है; ब्रह्म का कार्य कर्म - भी निराश्रय है; अभ्यास से अव्यय पद आता है, इस श्लोक 14 में वर्णित 12 करण से जो किया जाए वही सर्व कर्म है; करण और कर्मों के अभाव को बुद्धि योग कहते हैं|
बुद्धि योग के बाद, चित्त में केवल कर्म समष्टि का संस्कार
रहता है; सर्व कर्मों को परमात्मा में अर्पित कर मदचित्त
होना है; जिन परमात्मा में लय होकर प्रसाद को पाता है;प्रसाद
भुक्त चित्त ही मच्चित है; संसार बीज मिट जाता है; अहंकार का आश्रय लोगे तो बार-बार भटकते रहोगे अहंकार के कारण प्रकृति
तुमसे बार-बार युद्ध कराती रहेगी|
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।
हे अर्जुन (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी
माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है।।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।।
हे भारत ! तुम सम्पूर्ण भाव से उसी (ईश्वर) की शरण में जाओ। उसके
प्रसाद से तुम परम शान्ति और शाश्वत स्थान को प्राप्त करोगे।।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।18.63।।
इस प्रकार समस्त गोपनीयों से अधिक गुह्य ज्ञान मैंने तुमसे कहा; इस पर पूर्ण विचार (विमृश्य) करने के पश्चात् तुम्हारी जैसी इच्छा हो,
वैसा तुम करो।।
सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।18.64।।
पुन: एक बार तुम मुझसे समस्त गुह्यों में गुह्यतम परम वचन (उपदेश) को
सुनो। तुम मुझे अतिशय प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारे
हित की बात कहूंगा।।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।18.65।।
तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो।।
तात्विक व्याख्या61-65ईश्वर सबके हृदय में आरूढ़ हैं; सभी भूत ईश्वर परतंत्र है, ब्रह्म नाड़ी ही ईश्वर का स्वरूप
विकास है ;ईश्वर वह है जिसे 5 क्लेश, धर्म - अधर्म
रूप कर्म, कर्मफलरूप विपाक चित्तस्थित संस्कार, स्पर्श नहीं कर सकते; पांच क्लेश है--अविद्या ( मिथ्या ज्ञान,
भ्रान्ति), अस्मिता( दो भिन्न तत्वों
को जो अभिन्न समझाता है), राग (विषय
भोग से लगाव), द्वेष ( कष्ट भोग से
उत्पन्न विरक्ति), अभिनिवेश (पूर्वजन्म
के स्मरण से व्याप्त भय )|
धर्म-अधर्म नामक क्रिया को कर्म कहते हैं ;कर्म फल को विपाक कहते हैं; चित्त
में कर्मफल अंकित रहने को संस्कार कहते हैं; जिसमें यह नहीं, वही सच्चिदानंद है; ईश्वर की इच्छा शक्ति ही माया
है; माया जब ब्रह्म मैं मिलकर निष्क्रिय रहती है तब
ब्राह्मीशक्ति कहलाती है; ईश्वर निर्लिप्त रहकर गुणमयी माया के साथ मिल कर सब को जन्म मृत्यु रूप
कालचक्र में भ्रमण करवाते हैं| जीव प्रकृति के अधीन होने पर
भी, इच्छा के विषय में स्वतंत्र हैं;
इसलिए अर्जुन से कहते हैं –‘यथेच्छसि तथा कुरु’ यही गोपनीय ज्ञान है| भगवान को कोई प्रिय-अप्रिय नहीं है; सभी जीव कर्मफल विधान के अधीन हैं: साधना से ही जीव परमात्मा के निकट पहुंचता है;
ज्ञान समझाया नहीं जा सकता, बोध से समझ आता है, साधक के अंतः करण में ब्रह्म स्वयं मार्गदर्शन करता है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
तात्विक व्याख्या
धर्म के अनेक अर्थ हैं -धृ + मन= धर्म; जिसे धारण करके रहा जाए वही धर्म है; विधाता ही धर्म है क्योंकि उसी को धारण कर विश्व
स्थित है| जिस विधान का आश्रय लेकर विश्व की क्रिया चल रही
है वह भी धर्म है; जीव का कर्म फल विधान भी धर्म है; पुण्य के फल से जीव स्वयं धर्म (विश्व विधाता) का स्वरूप प्राप्त करता है इसलिए पुण्य भी धर्म है;
विशेष विधान को भी धर्म कहते हैं—वीरधर्म, राजधर्म, गृहस्थ धर्म, आदि; प्रत्येक द्रव्य के गुण का नाम भी धर्म है; जल का
धर्म, वायु का धर्म|‘सर्व धर्मान
परित्यज्य’ अर्थात पाप-पुण्य सिद्धांत करने वाले सभी विधान, कुलरक्षा का विधान, जाति रक्षा का विधान (जाति
धर्म), सब त्याग कर ‘मांमेकम शरणम्व्रज’; केवल मेरी शरण लो |
जो कर्म नरक-स्वर्ग का भोग कराते हैं वह सभी सर्वपाप हैं| पाप मन की चंचलता को कहते हैं जो चित्त को ढके रखते
हैं| ब्रह्मसूत्र का सहारा लेकर, शौर्य
तेज का अनुष्ठान कर, अविद्या अस्मिता आदि का नाश कर, दान, ईश्वर भाव द्वारा शांभवी का प्रयोग कर उनकी
शरण लो, शोक मत करो।
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।18.67।।
यह ज्ञान ऐसे पुरुष से नहीं कहना चाहिए, जो
अतपस्क (तपरहित) है, और न उसे जो अभक्त है; उसे भी नहीं जो अशुश्रुषु (सेवा में अतत्पर) है और उस पुरुष से भी नहीं
कहना चाहिए, जो मुझ (ईश्वर) से असूया करता है, अर्थात् मुझ में दोष देखता है।।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्ितं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।18.68।।
जो पुरुष मुझसे परम प्रेम (परा भक्ति) करके इस परम गुह्य ज्ञान का
उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त
होता है।।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्िचन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।18.69।।
न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई है और न उससे
बढ़कर मेरा प्रिय इस पृथ्वी पर दूसरा कोई होगा।।
अध्येष्यते
च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।18.70।
जो पुरुष, हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का पठन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा - ऐसा मेरा मत है।।
तात्विक व्याख्या67-70
जिसमें मानस तप नहीं है
वहीं अतपस्क है; गुरु व ईश्वर में जिसको विश्वास
नहीं है वहीं अभक्त है; उपासना, सेवा, श्रवण के लिए अनिच्छुक को अशुश्रणु कहते हैं; वह
अभ्य सूयाकारी है; उसे यह ज्ञान नहीं कहना चाहिए| जीव साधन बल से मैं में लीन होता है ।ज्ञान
यज्ञ द्वारा अज्ञान की अग्नि भस्म होने पर मैं पूजित होकर मुक्ति देता हूं
|
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।18.71।
तथा जो श्रद्धावान् और अनसुयु (दोषदृष्टि रहित) पुरुष इसका श्रवणमात्र
भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ
(श्रेष्ठ) लोकों को प्राप्त कर लेगा।।
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।18.72।।
हे पार्थ ! क्या इसे (मेरे उपदेश को) तुमने एकाग्रचित्त होकर श्रवण किया ? और हे धनञ्जय ! क्या तुम्हारा अज्ञान जनित संमोह पूर्णतया नष्ट हुआ ?
अर्जुन aउवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।
अर्जुन ने कहा -- हे अच्युत ! आपके कृपाप्रसाद से मेरा मोह नष्ट
हो गया है, और मुझे स्मृति (ज्ञान) प्राप्त हो
गयी है? अब मैं संशयरहित हो गया हूँ और मैं आपके वचन (आज्ञा)
का पालन करूँगा।।
सञ्जय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।18.74।।
संजय ने कहा -- इस प्रकार मैंने भगवान् वासुदेव और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत और
रोमान्चक संवाद का वर्णन किया।।
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।18.75।।
व्यास जी की कृपा से मैंने इस परम् गुह्य योग को साक्षात् कहते हुए
स्वयं योगोश्वर श्रीकृष्ण भगवान् से सुना।।
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।18.76।।
हे राजन् ! भगवान् केशव और अर्जुन के इस अद्भुत और पुण्य (पवित्र)
संवाद को स्मरण करके मैं बारम्बार हर्षित होता हूँ।।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।18.77।।
हे राजन ! श्री हरि के अति अद्भुत रूप को भी पुन: पुन: स्मरण करके मुझे महान् विस्मय होता है और मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ।।
तात्विक व्याख्या 71-77श्रवण के अधिकारी इस संवाद को सुन कर पुण्यवान होंगे, शुभलोक प्राप्त करेंगे| साधक मन में विचार करता है- क्या इस उपदेश से तुम्हारा मोह विकार नष्ट हो गया ? साधक का संशय नष्ट हो जाता है| वह साधन समर में
युद्ध के लिए तत्पर हो जाता है; ज्ञान चक्षु ब्रह्मभाव व
जीवभाव का अद्भुत संवाद सुनकर मन का सम्बोधन करता है| व्यास
के प्रसाद से (भेदज्ञान के सहारे)
अतिशय गोपनीय संवाद (चित्त से ऊपर की कथा) यह आत्मा में आत्मा मिलाने का व्यापार योगेश्वर कृष्ण के (जो कर्षण कर मुक्ति देते हैं ) उनका कूटस्थ पुरुष का
प्रत्यक्ष उपदेश सुना|हे राजन ! बार बार केशव अर्जुन का
पुण्यमय (मुक्ति देने वाला) अद्भुत
संवाद स्मरण कर मैं प्रतिक्षण आनंद अनुभव करता हूँ | इस आनंद
कि सीमा नहीं है |हे राजन ! हरि के उस अति अद्भुत रूप (विश्वरूप )का स्मरण करके मुझे महान विस्मय होता है
और पुनः पुनः मैं हर्षित होता हूँ |
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो
धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।
जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री,
विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है।।
तात्विक व्याख्या--जहाँ सर्व योग का नियंता ब्रह्मज्ञान भास्कर स्वरूप मुक्तिदाता कृष्ण मीमांसक है , जहाँ प्रकृति जाल उत्तीर्ण साधक गांडीव धारी अर्जुन है (जिस साधक का मेरुदंड ढीला नहीं होता) प्रश्नकर्त्ता है, वहीं श्री (शारदा), विजय (सर्वशक्ति दमन अधिकारी), भूति (ऐश्वर्य), नीति (ब्रह्मत्व) है यही हमारी ध्रुव सत्य संकल्प मति है |साधक धनुर्धर बन कर कृष्ण को सारथी बना लो.... योग का ईश्वर तुमको ठीक रास्ते पर चला कर मुक्त कर देगा ...कृष्ण मूर्तिमान सतोगुण हैं |सतोगुण को अपना परिचालक बना लो आहार, व्यवहार , सात्विक कर लो तो कृष्ण सारथी रहेंगे इनको छोड़ कर दूसरा मुक्ति का उपाय नहीं है | इसमें संदेह नहीं है|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाये ॐ नमो भगवते वासुदेवाये ॐ नमो भगवते वासुदेवाये
श्री कृष्ण शरणम वयं
ॐ सहनाववतु सहनौ भुनक्तु सह वीर्यं करवाव है
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषाव है
ॐ शांतिः शांतिः शान्तिं
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