श्री मद्भगवद्गीता
योगीराज श्री श्यामाचरण
लाहिड़ी महाशय के परम शिष्य स्वामी प्रणवानंद कृत भाष्य की
अवतरणिका / प्रस्तावना
गीता समस्त शास्त्रों का सार है । यह योग शास्त्र
भी है और विज्ञान शास्त्र भी । गीता का अनुसरण करके ही क्रियावान साधक परम गति प्राप्त करते हैं । ईश्वर सभी मनुष्यों के ह्रदय
में निवास करते हैं । उनका अनुभव योग साधना से किया जाता है । मनुष्य ह्रदय में चित्त
व अहंकार प्रकाश रूप में विद्यमान हैं । मानव चित्त की अधोलिखित पांच अवस्थाएं
योग शास्त्र में बतायी गई हैं:-
1.
क्षिप्त – अस्थिर और चंचल अवस्था जिसमें मन किसी विषय
के भोग और त्याग में लगा रहता है ।
2.
मूढ़
– काम, क्रोध,
निद्रा, तन्द्रा, आलस्य से
प्रभावित अवस्था जब यह स्पष्ट नहीं होता कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए
।
3.
विक्षिप्त – विषय सुख पाने से मन का उस में आकर्षण हो जाता
है और उस आनंद में कुछ समय के लिए चित्त अस्थिर, चंचल हो जाता
है ।
4.
एकाग्र – जब मन अंदर या बाहर के किसी एक लक्ष्य में
स्थिर हो जाता है और कुछ नहीं सोचता ।
5.
निरूद्ध – जब एकाग्र मन अपने को भी भूल जाता है । कोई वृत्ति या क्रिया नहीं होती ।
पहली तीन अवस्थाऐं स्वाभाविक हैं और अगली दो अवस्थाओं को पाने
के लिए अभ्यास करना पड़ता है । चित्तवृत्ति की निरोध अवस्था का नाम ही योग है । योग
अवस्था प्राप्त करने के लिए क्या करना पड़ता है, निरूद्ध अवस्था से पहले किस अवस्था का भोग करना पड़ता है,
वही सब जगद्गुरु भगवान श्री कृष्ण ने गीता में बताया है ।
साधना की तीन अवस्थायें हैं- क्रिया ,भक्ति , ज्ञान । पहले विश्वास करके क्रिया करनी
होती है, जिससे भक्ति का विकास होता है ।
भक्ति के प्रबल होने पर ज्ञान का उदय होता है । कर्म, उपासना
और ज्ञान यही गीता में क्रमश: छ: अध्याय
में बताये गये हैं ।
पहला अध्याय
– माया से मोहित साधक के मन में विषाद उत्पन्न होता है ।
दूसरा
अध्याय – गुरू की कृपा से
संख्या गणना द्वारा सत्-असत् का अंतर समझ में आता है ।
तीसरा अध्याय
– अंतर्बोध होने पर साधक कर्म में प्रवृत्त होता है ।
चौथा अध्याय
– कर्म से ही ज्ञान प्राप्त होता है ।
पाचंवा अध्याय
– प्राण-अपान की समता से चित्त शुद्ध होने लगता
है ।
छठा अध्याय
– धीर अवस्था प्राप्त होने पर ध्यान में मन लगने लगता है ।
सातवां अध्याय
– ध्यान के अभ्यास से साधक के अत:करण में ज्ञान-विज्ञान का उदय होता है ।
आठवां अध्याय
– फिर से इहलोक में वापस लौटने की वृत्ति समाप्त हो जाती है ।
नवां अध्याय
– आत्मा का वैभव अनुभव करने से राजविद्या प्राप्त हो जाती है ।
दसवां अध्याय
– ईश्वर की विभूतियों का अनुभव होने लगता है
ग्यारहवां अध्याय
- परमेश्वर की विभूतियों का अनुभव होने से चित्त उदार हो जाता है और
परमात्मा का विश्वरूप दर्शन होने लगता है ।
बारहवां अध्याय
– आत्मा का अनंतरूप दर्शन करके साधक को भक्ति का चरम अनुभव अर्थात् आत्मज्ञान
प्राप्त हो जाता है ।
तेरहवां अध्याय
– आत्मज्ञान पाकर प्रकृति और पुरूष का भेद स्पष्ट हो जाता है ।
चौदहवां अध्याय
– प्रकृति के तीन गुणों – सत-रज-तम का भेद स्पष्ट हो जाता है ।
पन्द्रहंवा अध्याय
– क्षर, अक्षर और पुरूषोत्तम का भेद स्पष्ट हो
जाता है ।
सोलहवां अध्याय
– दैवी और आसुरी स्वभाव के मनुष्यों का भेद स्पष्ट हो जाता है ।
सतरहवां अध्याय
– सात्विक, राजसिक और तामसिक श्रद्धा का अंतर स्पष्ट
हो जाता है ।
अठारहवां अध्याय – सन्यास तत्व समझ आ जाता है। साधक
सभी कर्म-त्याग कर मोक्ष लाभ करता है ।
सूक्ष्म एवं कारण शरीर का आभा मण्डल
गीता विज्ञान
– विषय के विशेष प्रकार के ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। प्रकृत्ति
के दो भेद हैं - जड़ व चेतन । पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु व आकाश पांच तत्वों का जड़ विज्ञान
है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार चार तत्वों का विशेष ज्ञान चैतन्य विज्ञान है । जड़ विज्ञान में स्थूल
तत्व पर सूक्ष्म तत्व की शक्ति काम करती है । जड़ विज्ञान से केवल विषयों की वृद्धि
होती है । चैतन्य विज्ञान से विषय एवं परमार्थ दोनों की वृद्धि होती है । योगीगण जानते
हैं कि चित्त की
वृत्तियों को संयत करने से कैवल्य अवस्था की प्राप्ति होती है ।गीता में प्रवृत्ति
और निवृत्ति दोनों धर्म निहित हैं । प्रवृत्ति मार्ग में योग और सृष्टि है। निवृत्ति
मार्ग में त्याग और मुक्ति हैं । योग साधना निवृत्ति-धर्म है । गीता में इन दो भागों के संदर्भ में
शब्दों के अर्थ निहित हैं ।कर्म-कुछ करना कर्म है । यह बाहरी
क्रिया है । कर्म से चित्त में अंहकार होने के कारण संस्कार की उत्पति होती है। अहंकार शून्य कर्म, संस्कार उत्पन्न नहीं करते ।
विकर्म- संस्कार से ही कर्म में प्रवृत्ति होती है ।
अत: संस्कार ही विकर्म या कर्म का बीज है । जन्म-जन्मातरों के कर्मों के फल को दैव या भाग्य कहा जाता है।अकर्म-शास्त्र ने जिन कर्मों का निषेध किया है वही प्रवृत्ति मार्ग में अकर्म है
। कर्मक्षय होने के बाद जो कर्म विहीन अवस्था होती है निवृत्ति मार्ग में वही अकर्म
है जिसे निष्कर्म कहते हैं।ज्ञान- आत्मज्ञान ही
ज्ञान है ।विज्ञान- प्रत्येक तत्व के अलग-अलग ज्ञान का नाम विज्ञान है ।अज्ञान- माया के वश से
विषय वासना में लिपट कर मोहित होना, ‘मैं-मेरा’ के भ्रम में रहना ही प्रवृत्ति मार्ग का अज्ञान
है । ध्यान अभ्यास से वृत्तियों को भुला कर, अपने को भी भूल जाने
की अवस्था, निवृत्ति मार्ग का अज्ञान है । उसी अज्ञान को असम्प्रज्ञात
समाधि कहते हैं।
धर्म - जिस शक्ति से विश्व की सृष्टि-स्थिति-लय क्रिया संपन्न होती है उसी को धर्म कहते हैं।
वही सत्य स्वरूप है। इस सत्य में मिथ्या का आरोप होने से ही प्रवृत्तिमार्ग का अधर्म
होता है, इस अधर्म को पाप कहते हैं । जो शक्ति सृष्टि-स्थिति-लय की क्रिया नहीं है, नित्यधाम
है जो सदा वर्तमान है, वही निवृत्तिमार्ग का अधर्म है
। यह अधर्म केवल अवस्था है । धर्म, व्यक्तिगत, समाजगत या जातिगत नहीं है । धर्म विश्वव्याप्त है । इस धर्म के उद्देश्य से
जो अनेक पन्थों का आश्रय लेते हैं उसी को विधर्म कहा जाता है । विधर्म शब्द
सापेक्ष{relative} है ।विश्व आत्मा से अभिव्यक्त हुआ है । इसलिए
योगी आत्मा के सिवाय किसी ईश्वर की अराधना नहीं करते । आत्मसाधक के लिए ब्राम्ही स्थिति
ही परम पुरूषार्थ है ।मनुष्य सुख पाने के लिए कई तरह के प्रयास करते हैं । तत्वदर्शी
जानते हैं कि इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सुख क्षणभंगुर, अनित्य हैं, और परिणाम में दैहिक या मानसिक रोगों को जन्म देते हैं ।योगीगण मस्तिष्क के बीच
स्थित ब्रह्मरंध्र में प्रणव जाप से परमात्मा के साथ जुड़ जाते हैं । यही अतिमृत्यु
पद है । यहां से देह त्याग करने पर पुन: जन्म की संभावना समाप्त हो जाती है । मेरुदण्ड और मस्तिष्क
ही योगमार्ग के आधार हैं । मेरुदण्ड खोखला है । चित्र संख्या में जहॉ पर मूल लिखा हुआ है,
मुण्ड में वही स्थान ब्रह्मरंध्र है और वहीं दशम द्वार स्थित है तथा
उसी जगह पर ब्रह्मशक्ति मूलप्रकृति भी स्थित
है। मूला की प्रकृति स्वभावत: त्रिगुणमयी होते हुए भी, चेतनामयी, प्राणमयी और गुणमयी है ।
यह विश्व आत्मा से उत्पन्न
हुआ है । प्रकाश वा पदार्थ का एक दूसरे में बदलना ही सृष्टि एवं जीवन की प्रक्रिया
है । आत्मा का प्रकाश सर्वव्यापी है । देह स्थित आत्मा के दर्शन के लिए, इन्द्रियों को बाहरी जगत से हटाकर देह रूपी
क्षेत्र के अंदर चेतना को खोजना जरूरी है । आरम्भ में ईश्वरीय चेतना का बोध नाद के रूप में ब्रह्मरंध्र में होता
है । प्राण की गति पर ध्यान केंद्रित करने से देह के सभी च्रकों को प्रकाशमय देखा जा
सकता है । मेरुदण्ड और मस्तिष्क ही योगी के आश्रय हैं, मेरुदण्ड
खोखला है । इसके अंदर मूलाधार से सहस्त्रार तक सुषुम्ना नाड़ी है । चार दलयुक्त
कमल मूलाधार में, छ:
दलयुक्त विशुद्ध में, दो दलयुक्त मस्तक में
आज्ञा चक्र में एवं सहस्त्र दलयुक्त प्रकाशीय कमल, कपाल के शिखर
पर समाधि में दिखाई देते हैं ।
सुषुम्नों के अंदर वज्रा
नामक नाड़ी स्वाधिष्ठान से शुरु होती है । मणिपूर से चित्रा नामक नाड़ी आरंभ होती है
। ब्रम्ह नाड़ी को बाल के छोर के हज़ारवें अंश
जितना सूक्ष्म बताया गया है । इड़ा व पिङ्गला मूलाधार से आज्ञा चक्र तक सुषुम्ना के
इर्द-गिर्द लिपटी रहती हैं । मस्तक को
पीठ की तरफ झुकाने से जिस जगह गड्ढ़ा सा होता
है उसे मस्तक ग्रंथि कहते हैं । मस्तक ग्रंथि
से सुषुम्ना मस्तक के अंदर प्रवेश करती है । इड़ा व पिङ्गला दाहिनी व बाईं तरफ़
से होते हुए मस्तक के बीच में फिर से सुषुम्ना से मिलती हैं - इड़ा बाएं नासापुट में और पिङ्गला दाऐं नासापुट
में जाती है ।
मस्तक ग्रंथि से सुषुम्ना
दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है - एक शाखा मस्तक के अंदर मस्तिष्क के नीचे से थोड़ा टेड़ी होकर, भ्रू के पास थोड़ा ऊपर उठ
कर आज्ञा च्रक की कर्णिका को भेद कर इड़ा पिड्गला
से मिलती है । फिर बाहर जाकर सीधा उठकर,
कपाल के बीच में प्रवेश कर, थोड़ा सा झुककर सहस्त्रार
को भेद कर ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करती है । सुषुम्ना की इस शाखा का मुख बंद है । पहली
शाखा का मुख खुला है । अत: एक शाखा दूसरी शाखा से नहीं जुड़ती
है । योग साधना द्वारा प्राण त्याग करने पर, ब्रह्मरंध्र में
स्थित शाखा का छिद्र खुल जाता है। दोनों शाखा मिल जाती हैं । इसे ही ब्रह्मरंध्र
का फटना कहते हैं ।
मस्तक ग्रंथि में सुषुम्ना के दो शाखाओं में विभक्त
होने से इस चार मुख युक्त स्थान में मन को स्थापित करके, भ्रूमध्य में मानस दृष्टि को एकाग्र करना होता
है और प्राण को सुषुम्ना की निचली शाखा से भ्रूमध्य में प्रवाहित करना होता है । मानवदेह
क्षेत्र है । गुण के विभाग अनुसार यह शरीर तीन अंशों में विभक्त है । दस इंद्रयों से
युक्त शरीर रज-तम प्रधान धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र
है । आज्ञाचक्र के ऊपर
सहस्त्रार तक सत-तम प्रधान
धर्मक्षेत्र है । प्राणायाम द्वारा प्राण प्रवाह को सूक्ष्म व स्थिर करने से,
मन आज्ञा च्रक में पहुचं कर शांत भाव को प्राप्त होता है । इससे मन-बुद्धि-चित्त-अंहकार के आवरण धीरे-धीरे लय प्राप्त करते हैं । प्रत्येक आवरण में सर्वव्यापी शक्ति से क्रियाशक्ति
का विकास होता है ।
मस्तक ग्रन्थि से भ्रूमध्य
में मन के द्वारा स्थिरभाव से दृष्टि केंद्रित करने पर वहां अखण्डमण्डलाकार पद मध्यगत
बिन्दु दीखता है, वही
कूट है । कूट को भेद करने से प्राकृतिक आवरण भेद हो जाता है । कूट के बाहरी भाग में
चिज्ज्योति का विकास होता है । वहीं विवस्वान् सवितृमंडल है; अंदर की तरफ़ अखंडमंडलाकार चन्द्र मंडल दिखता है । महत् तत्व या चित्तावरण के
बाद जो आकाश दिखता है उसे चिदाकाश कहते हैं । उसी को अव्यक्त भी कहते हैं । इसी से सृष्टिविकार शुरू होता है । यही मूला प्रकृति
है । गीता के 15 वें अध्याय का उत्तम पुरूष यही है । यह क्षर-अक्षर अतीत है । मायायुक्त चैतन्य को अक्षर कहते हैं । परा व अपरा प्रकृति
को क्षर कहते हैं ।
लय योग से जब सत् और असत् मिलकर एक हो जाते हैं, तब ही ‘सद्सत् तत्पर यत्’ अर्थात् एक मेवाद्वितीय
ब्रम्ह हो जाता है । चित्रों को समझकर नये साधक अभ्यास कर सकते हैं । योग अनुष्ठान (Applied Science) है यह अनुभव से समझ आता
है । साधक जितना अभ्यास करते हैं, वैसे-वैसे वह स्वयं इस गूढ़ ज्ञान को अनुभव से समझते जाते हैं
। तीनों उर्जा के प्रवाहों से, प्रवृत्ति मार्ग में चंचलता से भरी सृष्टि और लय की अविरल
अशांति प्रवाहित होती रहती है । निवृत्ति मार्ग में चंचलता-स्थिरता में बदल जाती है
। शांति व आनंद की धारा प्रवाहित होने लगती है ।
मानव देह निर्माण - - -
प्रकृति में इस ग्रह पर जितने भी अस्तित्व रचे
जाते हैं सभी के भ्रूण आरम्भ में आकाशगंगा की आकृति के ही होते हैं क्योंकि हम
बृहद सृष्टि के सूक्ष्म प्रतिरूप हैं| जीसस ने कहा था - ईश्वर ने मनुष्य को अपनी ही छवि
प्रदान की है| ये नितांत विरोधाभास हैकि जिस परमात्मा का साक्षात्कार सिद्ध महात्माओं ने
मानव ह्रदय में किया उसी योगविज्ञान से मानव समाज भ्रमवश भटक गया|देह प्राप्ति का संघर्ष हर जीवात्मा का सबसे बड़ा संघर्ष है इस देह में दिव्य
संभावनाएं निहित हैं जिनका अन्वेषण प्रत्येक मनुष्य को स्वयं ही करना है चाहे उसे
कितने ही जन्म लेने पड़ें| स्वकृपा किये बिना कोई भी देवी देवता या गुरु हमारा
उद्धार नहीं कर सकता| भाग्यवाद ने मानव समाज को पंगु बना दिया है जबकि हमारे शास्त्र पुरुषार्थ
से भाग्य निर्माण के सिद्धांत पर प्रकाश डालते हैं| सावित्री द्वारा सत्यवान की आयु
बढ़ा कर अपने माता-पिता और ससुर का भाग्य बदलने का उदाहरण, ऋषि मार्कण्डेय द्वारा भृगु ऋषि की
भविष्यवाणी को मिथ्या सिद्ध करने के उदाहरण हमारी प्रेरणा हैं|
| हमारा जीवात्मा के देह
प्राप्त करने के रहस्य को जानना जरूरी है । पिता के बीज के माता के गर्भ में पहुचनें
पर शुक्राणु-अण्डाणु के मिलन से आत्मा रक्त का आवरण प्राप्त करती है। माता की रक्त स्त्रावी नाभि-नाड़ी से जुड़कर रक्त बीज अण्डे में
बदल जाता है । रक्त का आवरण फिर त्वचा के थैले में बदल जाता है। माता से प्राप्त प्राण
शक्ति, चेतना शक्ति तथा गुण शक्ति से युक्त अष्ट धातु के संयोग से जल का संचार होता
है । इस जल को कारणवारि या गर्भोदक कहते हैं। गर्भोदकशायी वह बीज, जल के संयोग से, सतेज व सजग होकर विसर्ग
वर्ण की तरह, दो बिंदु भागों में बंट जाता है । ऊपरी बिंदु ब्रम्ह बिंदु सत-चित आनंदमय है । इसमें
ऋत, सत्य, परम, पुरूष, ब्रम्ह के चार पुं
भावों के संस्कार निहित रहते हैं । निचला बिंदु प्रकृति बिंदु, सत्, रज, तम, ज्ञान, क्रिया, कर्ममयी शक्ति है । उसकी
ज्ञान शक्ति ही चेतना है, क्रियाशक्ति ही
प्राण है और कर्म या द्रव्य शक्ति ही
गुण है । सुप्तावस्था में प्रकृति ब्रह्म में लीन रहती है ; ज्ञान, क्रिया व कर्म शक्ति इसमें
लीन रहते हैं । कर्म क्रिया में, क्रिया, ज्ञान में लीन रहते हैं । प्रकृति के जागने पर वह ज्ञान को
प्रसव करती है; ज्ञान क्रिया को, क्रिया, कर्म को विसर्गित करते हैं । सृष्टि के प्रवृत्ति-निवृत्ति मार्ग की यही
धारा है । इसमें ब्रम्ह के चार स्त्रीभाव- कृष्ण पिङ्गल, ऊर्ध्व लिङ्ग, विरुपाक्ष, विश्वरूप, संस्कार रूप में निहित रहते हैं ।
ब्रम्ह बिन्दु, ब्रम्ह तेज के रूप में, प्रकृति बिंदु के अंदर-बाहर व्याप्त रहता है ।
प्रकृति के छिद्र को ब्रह्मरंध्र कहते हैं । ब्रह्मरंध्र का उपरी मुख सुमेरु प्रातं
और निचला मुख कुमेरु प्रातं है । परा शक्ति प्राण, प्रकृति बिन्दु के छिद्र के बीच से
प्रवाहित होकर उसे सुषुम्ना नाड़ी में बदल देता है । इसके मध्य में जो अव्यक्त ब्रम्हसूत्र
था वही ब्रम्हनाड़ी बन जाता है ।
भ्रूण : जीवात्मा भ्रूण के रूप में सात सूक्ष्म व्याहृति-शक्तियों के संस्कार और 24 तत्व शक्तियों के साथ प्रकृति
के वश में, अवश हुआ, सुप्त अवस्था में, अति सूक्ष्मतम प्रकृति बिंदु के मध्य
में रहता है । भू, भुव: स्व:, मह:, जन:, तप:, सत्यम ये 7 व्याहृतियाँ या सूक्ष्म शक्तियां है । मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार 4 अंतःकरण की शक्तियां हैं । 5 ज्ञानेन्द्रियां-आंख, नाक, कान, जीभ, त्वचा तथा 5 कमेंन्द्रियां-हाथ, पैर, जनन इन्दियां, उत्सर्जन इंद्रिया-मल-मूत्र विसर्जन द्वार
ये 10, बहिकरण शक्तियां हैं जिनमें
बाहरी संसार का बोध होता है । प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, ये पांच प्राण की शक्तियां हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पाचं सूक्ष्म भूतशक्तियां
हैं । इन कुल 24 शक्तियों को तत्वशक्ति कहते हैं ।
प्रकृति बिंदु के मध्य स्थित जीवात्मा के शरीर के गठन के लिए अन्नरस से उत्पन्न 8 धातु-रस, माता के शरीर से चेतनाशक्ति, प्राणशक्ति, गुणशक्ति की क्रिया से, नाभि-नाड़ी योग से प्रवाहित
होता है । 8 धातु-रस हैं - रक्त, चर्म, मासं, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र और सुधा । इन से गठित शरीर तीन प्रकार का होता है- कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर।
कारण शरीर- प्रकृति बिंदु ही जीवात्मा का कारण
शरीर है । पितृशक्ति, आत्मशक्ति से निर्मित यह शरीर, बीज स्वरुपी है । इसमें जीवात्मा सुप्त अवस्था में, प्रज्ञा के सहारे रहता
है ।
सूक्ष्म शरीर- चेतनामय, प्राणमय, गुणमय, अणु के परिमाण का यह शरीर
सुप्त रहते हुए भी, माता से प्राप्त चेतना, प्राण, गुण युक्त 8 धातु रस की वर्षा से बढ़ता रहता है । इसका तेज भी बढ़ता रहता
है । तेज के बढ़ने से ज्ञान, क्रिया, कर्म शक्ति विकसित होती है । सत्य व्याहृति सुमेरु प्रातं
में, तप कुमेरु प्रातं में, जन, मह, स्व: भुव:, भू: ये 5 कर्म शक्तियां तप व्याहृति के स्थान
में लीन रहती हैं । क्रिया शक्ति बढ़ने पर सुमेरु प्रातं में सत्य व्याहृति के स्थान
पर 4 अंत:करण की शक्तियों से संस्कार
और 5 ज्ञानेन्द्रियों के संस्कार
जागने लगते हैं ।कुमेरु प्रातं में तप व्याहृति के स्थान पर 5 कर्म शक्तियों- जन,मह, स्व, भुव, भू के संस्कार जागकर अत्यंत
सूक्ष्म अंकुर का गठन होता है जिसमें (1) भूत शक्तियां पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश के संस्कार (2) 5 प्राण वायुओं – उदान, प्राण, समान, व्यान, अपान के संस्कार (3) वाक, पाणि, पाद, उपस्थ, उपायु 5 कर्मेन्द्रियों के संस्कार फूटने लगते हैं।
अब यह अंकुर रूप प्रकृतिबिन्दु
सूक्ष्म शरीर में बदल जाता है । प्रकृतिबिंदु सूक्ष्म शरीर का मुण्ड बन जाता है, अंकुर, सूक्ष्म शरीर का मेरुदण्ड
बन जाता है, मुण्ड से मेरुदण्ड तक फैला अंदर का खोखला छिद्र, सुषुम्ना नाड़ी बन जाता है । सुषुम्ना
नाड़ी के मध्य स्थित ब्रम्ह सूत्र बन जाता है - ब्रम्ह नाड़ी । ज्ञान शक्ति मुण्ड में, कर्म शक्ति मेरुदण्ड
में रहती है । क्रिया शक्ति सुषुम्ना में रहकर, ज्ञान शक्ति और कर्म शक्ति को प्राण वन्त बना कर परिचालित करती है । सूक्ष्म शरीर में सप्त् व्याहृतियों
के संस्कार और चौबीस तत्व
शक्तियों के संस्कार सक्रिय हो कर फूट निकलते
हैं।
व्याहृति शक्ति- सूक्ष्म शरीर की शक्ति व तत्व हैं- तप: और सत्य
व्याह्रितियों के संस्कार मुण्ड में सुमेरु प्रातं में प्रस्फुटित होते हैं
। जन:, मह:, स्व:, भुव:, भू: नामक 5 व्याहृतियों के संस्कार मेरुदण्ड में
कंठ मूल, वक्ष मूल, नाभि मूल, लिंग मूल व गुह्य मूल के रूप में प्रस्फुटित होते हैं ।
तत्व शक्ति- मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार नामक 4 अंत:करण की शक्तियां आंख, कान, नाक, जीभ व त्वचा नामक 5 ज्ञानेन्द्रिय शक्तियां-कुल 9 शक्तियों के संस्कार मुण्ड
में, ज्ञान शक्ति में फूटते
हैं । 5 भूत शक्तियों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और 5 प्राण शक्तियां- उदान, प्राण, व्यान, समान, अपान 5 कर्मेन्दियां - कुल 15 शक्तियों के संस्कार मेरुदंड में जन:, मह:, स्व:, भुव:, भू, नामक 5 कर्मशक्तियों में फूटते
हैं । सूक्ष्म शरीर तेजोमय होता है ; संस्कार मय होता है । अव्यक्त व अतीन्द्रिय होता है । कर्म
से बंधी जीवात्मा इसी शरीर को लेकर जन्म-मरण के चक्रों में घूमती
रहती है ।
सूक्ष्म शरीर में, प्रकृति क्रियाशील होने पर, उसकी प्राणशक्ति और गुणशक्ति को सक्रिय
बनाकर, और इन दोनों के साथ प्रवाहित होकर मुण्ड- मेरूयुक्त सूक्ष्म शरीर को, त्वक आवरण में आवृत कर
लेती है । उस आवरण में इन तीनों शक्तियों के युक्त भाव से क्रिया करने पर् भी अपने
अपने प्रवाहों की क्रियाओं द्वारा, स्थूल शरीर में मांस आदि के द्वारा चक्र,पद्म यन्त्र क्षेत्र
कैसे गठित होते हैं इसका आभास योग साधना से होता है।
प्राण प्रवाह की क्रिया- सत्य व्याहृति का चक्र, ज्ञानचक्र के नाम से अभिहित
किया गया है। और उसके मध्य में स्थित बिन्दु को ‘मूला’ कहा गया है । यह चक्रयुक्त मूला ही
स्थूल शरीर के माथे का शिखर-स्थान है । यही चक्र भगवान का ‘गोलोकधाम’ है और वह बिन्दु-रूपिणी मूला ही ‘आद्या शक्ति’, ‘मूल प्रकृति’ या ‘ज्ञानमयी परमा प्रकृति’ है और वही ‘देवी शिखरवाहिनी’ है । इसी चक्र में भगवान, आदिदेव के रूप में आत्मविकास
करते हैं और परम पुरुष, परमात्मा तथा उत्तमपुरुष के नाम से अभिहित होते हैं । ज्ञानचक्र
ही, भगवान का सुदर्शन चक्र
है और वही इस जगत का कारण भी है ।
“मूला” ही चेतनाशक्ति, प्राणशक्ति और गुणमय ओंकार
या प्रणव है और अ, आ, क, ख, आदि पचास मातृका या वर्ण है । ‘तत्’ रूपी वेदमाता गायत्री भी वही है और वही परमपुरुष रूपी भगवान
की विसर्ग शक्ति है; वही परमपुरुष की अध्यक्षता में जगत को प्रसव करती है (दश चक्रमय विश्व की सृष्टि
करती है), उसी को गीता में इस प्रकार से कहा गया है --- “मयाध्यक्षेण जगद्विपरिवर्त्तते ” ।
ज्ञानचक्र के विकास के
बाद, प्राण-प्रवाह की क्रिया से, उस अंकुर-रूपी सुषुम्ना नाड़ी के
कुछ और बढ़ जाने पर, वह अपने मुख को केन्द्र बनाकर एक बृहद् चक्र का गठन करती है । इस चक्र को ‘विज्ञान-चक्र’ कहते हैं । ‘विज्ञान-चक्र’ ही स्थूल शरीर के माथे
का शिर: स्थान या मगज है; वही ‘सत्य’ व्याहृति शक्ति की क्रिया का मंत्र-क्षेत्र है । विज्ञान चक्र
के मध्य में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष नामक चतुर्वर्ग फल उत्पादन के चार चक्र-युक्त बिन्दु बनते हैं । उसके केन्द्र-स्थल में जो चक्र बनता
है उसका नाम “विद्या चक्र” है; उसके केन्द्र् में स्थित् बिन्दु का नाम् श्री है ; जो विज्ञानमय़ी विद्या
मोक्षदायिनी शक्ति है । विद्या चक्र के तीन
तरफ़ तीन चक्रयुक्त बिन्दु हैं । उसके दक्षिण ओर जो चक्र
बनता है उसका नाम ‘ब्रह्मचक्र’ है, ब्रह्मचक्र के मध्य के बिन्दु का नाम ‘वामा’ है । वामाचक्र ही ब्रहमशक्ति
ब्रह्माणी ही ‘धर्म-दायिनी’ शक्ति है। विद्याचक्र के उपर की ओर जो चक्र बनता है, उसका नाम ‘विष्णुचक्र’ है और विष्णुचक्र के मध्य
में जो बिन्दु है उसका नाम ‘जेष्ठा’ है । जेष्ठा ही ‘विष्णुशक्ति वैष्णवी’ है और वैष्णवी अर्थदायिनी
शक्ति है। विद्याचक्र के बाईं ओर जो चक्र बनता है उसका नाम ‘रूद्रचक्र’ है, इसलिए मध्य में जो बिन्दु
है उसका नाम ‘रौद्री’ है । रौद्री ही रूद्रशक्ति रूद्राणी है। रूद्राणी ‘काम सिद्धी-दायिनी’ शक्ति है । ‘श्री’ बिन्दु को अपना केन्द्र
बनाकर ‘वामा’, ‘ज्येष्ठा’, ‘रौद्री’ तीनों बिन्दु एक त्रिकोणक्षेत्र का गठन करते हैं और इस त्रिकोण क्षेत्र का नाम
है –‘मूल त्रिकोण’ ।
‘विज्ञान-चक्र’ के प्रस्फुटित हो जाने के बाद, अंकुर रूपी सुषुम्ना नाड़ी के कुछ और आगे बढ़ने पर, वह फिर पेट की ओर (पीछे की ओर) टेढ़ी हो जाती है । इस
झुकाव को सुषुम्ना नाड़ी का, द्वितीय झुकाव कहते हैं । इस झुकाव की जगह पर और एक चक्रयुक्त
बिन्दु बनता है । इस चक्र को ‘अज्ञानचक्र’ कहते हैं और इस चक्र के मध्य में जो बिन्दु है उसे “कूट” या “कूटस्थ” कहते हैं । कूट ही माया या
अज्ञानमयी अविद्या है जो स्थूल शरीर के मस्तक में दोनों भौहों के मध्य है । अंकुर रूपी
सुषुम्ना नाड़ी आगे बढ़ कर तपः नामक
व्याहृति के स्थान पर मस्तक ग्रन्थि में मूल सुषुम्ना के साथ मिल जाते हैं । तब प्राण प्रवाह मूला से कूटस्थ होते हुए तप: व्याहृति के स्थान में आकर मूल सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित
होता है जिससे नीचे के जन:
आदि 5 चक्रों का गठन होता है। अज्ञान चक्र से
सुषुम्ना
नाड़ी दो सहगामी नाडियों-
इड़ा और पिंगला को
गठित
करके आगे बढ़ती है। मेरुदंड में जन:,मह:,स्व:,भु:
नामक 5 व्याहृतियों को परस्पर
लपेटते हुए सुषुम्ना के साथ युक्त होते हुए भू: स्थान
में जाकर मिल जाती है । तब प्राण प्रवाह, इडा पिंगला और सुषुम्ना इन तीनों नाड़ियों में
प्रवाहित होने लगता है।
सुषुम्ना की द्वितीय शाखा “मूला” से “कूटस्थ” तक परिणत लम्बाई में दश
अंगुल लम्बी हो जाती है तब उसका पारिभाषिक नाम दशांगुल हो जाता है । इस दशांगुल के
ऊर्ध्व में मूला के बाद (परे) सर्वव्यापी भगवान सहस्त्रशीर्षपुरुष के रूप में दृष्टिगोचर
होते हैं ।
चेतना प्रवाह की क्रिया- चेतना शक्ति मुण्ड और मेरू
में सर्वत्र व्याप्त रहती है, फिर भी वह तीन जगहों पर, तीन क्षेत्रों की रचना
करके वहां पर परमा, विद्या और अविद्या नामक तीन रूप धारण करके प्रवाहित होती है और क्रिया करती
है । वह “ज्ञानरूपातिलालसा” है अर्थात् वह ज्ञानमयी और अत्यन्त लालसामयी है, किन्तु उसके प्रवाह की गति प्रवृत्तिमुखी
और निवृत्तिमुखी होती है । दोनों प्रकार की गतियों में, प्राण और गुण उसके सहचर रहते हैं ।
भोग-लालसा का नाम “आसक्ति” है और योग-लालसा का नाम “भक्ति” है ।
तब वह प्राण और गुणों के
साथ युक्त होकर मूला से श्री पर्यन्त परमा-क्षेत्र, श्री से कूटस्थ से नीचे भू: पर्यन्त अविद्या क्षेत्र
की रचना करती है और मान, मोह आसक्ति और घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति नामक आठ पाशों (बंधनों) की सृष्टि करके, देही को (जीवात्मा को) देह और भोग लालसा में दग्ध
करके और वासनाओं के बन्धन में जकड़ कर (आबद्ध करके) स्वयं नीचे भू: के स्थान में जाकर निद्रित अवस्था में रहने लगती है । इस
अवस्था में उसका नाम हो जाता है “कुलकुण्डलिनी” । क्योंकि वह देही को कुल में (देह में) कुण्डल के द्वारा (भोग वासना के रूप में, कर्मों के पाश के द्वारा) कुण्डलित कर देती है (जकड़ डालती है) या (फांस में बांध देती है) । इस अवस्था में वह अविद्या
के रूप में अज्ञानमयी, मोहिनी और बंधन-कारिणी शक्ति हो जाती है । वह बंधन-मोचन-कारिणी, मुक्तिदायिनी शक्ति होती
है । इसलिए चंडी में कहा गया है कि “सैषा प्रसन्ना परमा नृणां भवति मुक्तये” ।
गुण-प्रवाह
की क्रिया- गुण-प्रवाह की क्रिया से (क) निस्त्रैगुण्य और त्रैगुण्य अवस्थाओं की सृष्टि होती है, (ख) तत्व शक्तियों के यंत्रों
की सृष्टि होती है, (ग) सप्त पद्मों और पचास मातृकाओं की सृष्टि होती है और (घ) तत्व समूहों के अधिष्ठातृ
देवताओं की सृष्टि होती है जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है-
(क) निस्त्रैगुण्ये और त्रिगुण
अवस्थाओं की सृष्टि- ज्ञानमय सत्व नामक व्याहृति शक्ति का क्रिया-साधक यंत्र “श्री” बिन्दुयुक्त विज्ञानचक्र
है । विज्ञान-चक्र का मूल, मूला चक्र है । यह मूला चक्र है साम्य-अवस्था- संपन्न-समष्टि-त्रिगुण-क्षेत्र और वह “श्री” बिन्दुयुक्त विज्ञानचक्र है क्रियामय व्यष्टि त्रिगुण क्षेत्र ।
क्रियामय तप: नामक व्याहृति शक्ति का
क्रिया-साधक यंत्र है कूटस्थ बिन्दुयुक्त अज्ञानचक्र । चेतना शक्ति की क्रिया से स्फुटित
प्राणमय तप: शक्ति के प्रभाव से, वह कूटस्थ बिन्दुयुक्त अज्ञानचक्र उज्ज्वल हो जाता है और
मूला चक्र में त्रिगुण के साम्यभाव से क्षोभ उत्पन्न होता है । उस समय त्रिगुण, व्यष्टिभाव धारण करके क्रियाशील
होकर वहां पर “गोलक” की सृष्टि करता है और उसके बाद, वहां से निकलकर विशुद्ध अवस्था में परस्पर छूटा-छूटी के भाव से पृथक् धारा
में प्रवाहित होकर, परमाक्षेत्र को पार करके, विज्ञान चक्र में, मूल त्रिकोण क्षेत्र में आ जाता है
। वहां पहुंच कर सत्व धारा जेष्ठा में, रजो धारा वामा में, और तमो धारा रौद्री में यथाक्रम से
शुद्ध सत्वमय विष्णुलोक, शुद्ध रजोमय ब्रह्रालोक और शुद्ध तमोमय रूद्रलोक की सृष्टि
करती है । बाद में पृथक् धारा में प्रवाहित होते हुए कूटस्थ बिन्दु में आकर मिल जाती
है और वहां पर तपोलोक की सृष्टि करती है । इस प्रकार से तीनों गुणों की तीन विशुद्ध
धाराएं मूल त्रिकोण के ऊपर और नीचे तीन-तीन करके कुल छ: त्रिकोण क्षेत्रों की रचना करती हैं
।
वे छ: त्रिकोण क्षेत्र इस प्रकार से है – ऊपर में- मूला-जेष्ठा वामा, मूला-जेष्ठा-रौद्री- मूला-वामा रौद्री, नीचे की ओर कूटस्थ-जेष्ठा-वामा, कूटस्थ-जेष्ठा-रौद्री, कूटस्थ-वामा रौद्री; विशुद्ध गुणों की तीनों
धाराएं कूटस्थ बिन्दु पर मिलकर मिश्रित हो जाती हैं ।
उस समय में मिश्रित तीनों गुण मलिन
या अविशुद्ध हो जाते हैं और वे “त्रैगुण्य” तीन रूप धारण करके अविद्या क्षेत्र में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना इन
तीनों नाड़ियों में प्रवाहित होकर अपना कर्म करते हैं । उनके कर्म से जन:, मह:, स्व:, भुव:, भू:, नामक व्याहृति वाचक के
स्थान में यथा-क्रम से जनलोक, महर्लोक,भुवर्लोक ,स्वर्गलोक और भूलोक बनते हैं । उनके तीनों रूप इस प्रकार के हैं - सत्वप्रधान त्रिगुण यही
मलिन सत्व है, यह सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित होता है और सत्व के नाम से अभिहित होता है ।
रज: प्रधान त्रिगुण यही मिलन
रज: है, यह इड़ा नाड़ी में प्रवाहित
होता है और रज: नाम से अभिहित है । और तम: प्रधान त्रिगुण यह मलिन तम: है, यह पिङ्गला नाड़ी में प्रवाहित होता
है और तम: नाम से अभिहित है ।
अविद्या क्षेत्र में, तीनों गुण कर्म-शक्ति के परिचालक हैं, इस प्रकार से कर्म और कर्त्ता
दोनों ही जीवों के संसार-बंधन के कारण हैं । विद्या क्षेत्र में और परमा-क्षेत्र में, वे कर्म के लगाव से रहित
होकर शुद्ध अवस्था में रहते हैं। इसलिए भगवान ने अर्जुन से कहा है कि “निस्त्रैगुण्यों भवार्जुन” ।
(ख) तत्व- शक्ति के यंत्रों की सृष्टि-विशुद्ध त्रिगुणों के प्रवाह
से परमाक्षेत्र और विद्या-क्षेत्र में नौ यंत्र और विशुद्ध त्रिगुणों के प्रवाह से
अविद्याक्षेत्र में पंद्रह यंत्र (कुल तत्व-शक्तियों के) कुल 24 यन्त्रों का गठन होता है
।
जन: नामक व्याहृति में व्योम नामक भूत के
या तत्व के उपादान के द्वारा कण्ठ प्रदेश गठित होता है । इस कण्ठ में ही वाक् नामक
कर्मेन्द्रिय-शक्ति का यंत्र वाग् यंत्र उत्पन्न होता है और क्रियाशील उदान वायु के रूप में
विकसित होती है ।
मह: नामक व्याहृति में, महत् नामक भूतशक्ति की
द्रव्यशक्ति के उपादान के द्वारा वक्षप्रदेश-ये नौ यन्त्र बनते है । चिन्तन, वेदन, करण यंत्र, अहंकार है जो कि रूद्र
चक्र में “रौद्री” में प्रस्फुटित होता है । मम-अभिमान का कारण या यंत्र बोधन-क्रिया का कारण या यंत्र, बुद्धि है, जो कि ब्रह्मचक्र में “वामा” में प्रस्फुटित होता है
। संकल्प या मनन-क्रिया का कारण या यंत्र मन है जो कि अज्ञान चक्र में “कूटस्थ” में स्फुटित होता है ।
दोनों चक्षु, दोनों कर्ण, दोनों नासारन्ध्र और मुख (जिव्या) ये सातों करण या यंत्र विद्या-क्षेत्र की क्रिया से प्रस्फुटित होने
पर, उसकी बहिर्मुखी वृत्तियों
के सात छिद्र उत्पन्न होते हैं। उनमें वायु
की क्रिया करने के लिए फुसफुस, ह्रत्पिण्ड, यकृत्, प्लीहा आदि यंत्र गठित होते हैं। कर्मेन्द्रियों की ग्रहणशक्ति
और स्पर्शशक्ति के यंत्र, दो हाथ गठित होते हैं और क्रियाशक्ति प्राणवायु के रूप में
विकसित होती है ।
स्व: नामक व्याहति में तेज: नामक भूतशक्ति के या द्रव्याक्ति
के उपादन द्वारा उदर प्रदेश या उपरी पेट बनता है और वहां पर तेज: वैश्वानर (जठराग्नि) के रूप में पाक यंत्र की
सृष्टि होती है और कर्मेन्द्रिय की गमन शक्ति के यंत्र दो पांवों कर गठन होता है और
क्रियाशील समान वायु के रूप में विकसित होती है ।
भुव: नामक व्याहृति में, अप नामक भूत शक्ति या द्रव्यशक्ति
के उत्पादन द्वारा पेढ़ू प्रदेश या तल-पेट का गठन होता है और क्रियाशक्ति व्यान वायु के रूप में
विकसित होती है ।
भू: नामक व्याहृति में, क्षिति नामक भूत शक्ति
या द्रव्यशक्ति के उत्पादन से नितम्ब देश या चूतड़ का गठन होता है और वहां पर कर्मेन्द्रिय
की रोचक शक्ति या यंत्र वायु या गुदा द्वार का गठन होता है और क्रियाशक्ति अपान वायु
के रूप में विकसित होती है । स्थूल शरीर में लिंगद्वार और गुह्यद्वार मल-मूत्र त्यागने के लिए दो
प्रसिद्ध अधोद्वार है।
(ग) सप्त पद्म और पचास मातृकाओं
की सृष्टि - त्रैगुण्य मूला ओंकार स्वरूपिणी है । अ,उ,म क्रमश: सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं । अ,उ,म से ही पचास मातृकाएं
या वर्ण और सोलह कलाएं उत्पन्न होती हैं । अ,आ आदि सोलह स्वर वर्णों को और क,ख आदि चौतीस व्यंजन वर्णों
को मातृकाएं कहते हैं और ग्यारह इन्द्रियों
और पंच महाभूतों-इन सोलहों को कलाएं कहते हैं ।
करने योग्य क्रियाऐं-
1.
संसार हर समय बदलता है । अधिकतर क्रियाऐं दु:ख देती हैं यह सभी अनुभव
से समझते हैं ।
2.
अभिमान को नाश करने का उपदेश भगवान ने भगवद्गीता में दिया
है । ज्ञान, भक्ति व कर्म के आधार पर 18 तरह के अभिमान मनुष्य को कर्मबंधन से बांधते हैं ।
3.
जीवात्मा शुद्ध चेतना है । चित्त में निहित संस्कार अंहकार
के बंधन से देह धारण का कारण बनते हैं । योग साधना से ही सूक्ष्म व कारण शरीर का दर्शन
संभव हैं ।
4.
साधना करने के लिए सदगुरू की जरूरत होती है । गुरू के
निर्देशानुसार नित्य क्रिया अभ्यास करना ही करणीय है ।
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