अध्याय
आठ
अर्जुन
उवाच
किं
तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं
च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।8.1।।
अर्जुन ने कहा -हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है अध्यात्म क्या है? तथा कर्म क्या है? और
अधिभूत नाम से क्या कहा गया है? तथा अधिदैव नाम से
क्या कहा जाता है,
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले
च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।।8.2।। और हे मधुसूदन !
यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में
कैसे है? और संयत चित्त वाले पुरुषों द्वारा अन्त समय में आप
किस प्रकार जाने जाते हैं,
श्री
भगवानुवाच
अक्षरं
ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो
विसर्गः कर्मसंज्ञितः।।8.3।। श्रीभगवान् ने
कहा -- परम अक्षर (अविनाशी) तत्त्व ब्रह्म है; स्वभाव
(अपना स्वरूप) अध्यात्म कहा जाता है; भूतों
के भावों को उत्पन्न करने वाला विसर्ग (यज्ञ, प्रेरक
बल) कर्म नाम से जाना जाता है।।
अधिभूतं
क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र
देहे देहभृतां वर।।8.4।। हे देहधारियों
में श्रेष्ठ अर्जुन ! नश्वर वस्तु (पंचमहाभूत) अधिभूत और पुरुष अधिदैव है; इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूँ।।
तात्विकव्याख्या 1-4साधक का प्रश्न है तद्ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत क्या है? अधिदैव
क्या है? मानव देह में अधियज्ञ कौन है?वे किस प्रकार से यहां रहते हैं ?योगी मृत्यु के समय आपको कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? भगवान को पुरुषोत्तम और मधुसूदन दो नामों से संबोधित
किया गया है। कूटस्थ में दिव्य प्रकाश का दर्शन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर पुरुषोत्तम
और संसार की मिठास का नाश करने वाले मधुसूदन हैं। वह भोग की इच्छा का नाश करते हैं।
मनुष्य का सबसे बड़ा भय मृत्यु है। भगवान 6 संपत्तियों के धाम है -वीरता, यश, लक्ष्मी, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य।वह स्वयं ही स्वयं को जानते हैं। उनके अंश उन्हें पूरी तरह नहीं जान
सकते ।साधक कूटस्थ में श्री बिंदु में चित्त संयम करके प्रश्न करते हैं और उत्तर भी
प्राप्त करते हैं। अक्षरं परम ब्रह्म अर्थात जिसका परिणाम नहीं, अदल बदल नहीं, जो चिर नित्य विद्यमान है, घटता
बढ़ता नहीं वही ब्रह्म परम अक्षर है । कूटस्थ में एक होने पर भी जो अनेक रूप धारण करता
है, जैसे सोना कूटने के बाद नए आभूषण निर्मित
करता है वैसे ही कूटस्थ प्रकाश अनेक जीव रूप धारण करता है । कूटस्थ प्रकाश ही तत्
है इसको
देखने के लिए आंखें बंद करनी होती हैं । साधक को मस्तक में दोनों भौहों के बीच सफेद
गोलक के बीच काला बिंदु जो भौतिक आंख में दिखता है वैसा ही सुनहरे प्रकाश के मध्य गाढ़ा
बैंगनी गोलक कूटस्थ में दिखता है यही विष्णु का परम पद है । इसके बीच में कदम के फूल
जैसा एक गोलक है जो इसे देख लेते हैं वह ब्रह्मलोक में गमन करते हैं। यह गोलक सीमा
रहित है इसलिए इसे तद्ब्रह्म कहते हैं। स्त्री का स्त्री में, पुरुष का पुरुष में भाव इस जगत में नहीं होता ।
क्योंकि जब तक आकांक्षा रहेगी तब तक शांतिमय अवस्था प्रकाशित नहीं होती। जब स्त्री
पुरुष एक दूसरे को प्राप्त कर आकांक्षा निवृत्ति कर लेते हैं तब दोनों मिलकर एक हो
जाते हैं ।तब जो उद्वेग शून्य विश्राम अवस्था आती है उसे भाव कहते हैं। कोई वृत्ति
इस समय घटती बढ़ती नहीं है ।इस अकंपन अवस्था को भाव अवस्था कहते हैं । योग साधना का
अभ्यास करने पर बुद्धि बाहरी विषयों से हटकर अपने अंदर के जगत की खोज शुरू कर देती
है । अब यह अपने प्राण के प्राण अहम् का आश्रय लेती है, इसीलिए स्वभाव को ही अध्यात्म कहा है। अधि अर्थात
प्रधान, जिसकी प्रधानता है वही प्रधान है । जो जगत
व्यापार का भला बुरा निश्चित करें वही प्रधान है। जगत अनित्य और आत्मा नित्य है। बुद्धि
की आत्ममुखी दृष्टि का नाम अध्यात्म है। काल की तीन अवस्थाएं हैं -भूत अति स्थूल, वर्तमान अति सूक्ष्म और भविष्य अपरिज्ञात है। जो जन्म लेता है कुछ समय
तक रहता है और फिर अज्ञात में चला जाता है, वही
भूत है ।भूत सत, रज, तम का
विकार लेकर 5 आकार धारण करता है- आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी। पांचों का एक एक विशिष्ट
गुण है आकाश में शब्द, वायु में शब्द वह स्पर्श, तेज में शब्द, स्पर्श, रूप,जल में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, पृथ्वी
में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध गुण हैं। जगत इन्हीं की रचना
है । जब जगत नहीं उत्पन्न हुआ था तब केवल ब्रह्म का प्रकाश था। समष्टि में जब व्यक्ति
भाव का आरंभ होता है तब ही
2 बिंदु होते हैं पहला
अपरिणामी दूसरा परिणामी एक ही ब्रह्म का सत्-असत् रूप से दो बिंदुओं में परिणत होना विसर्ग है
। वि अर्थात् विशेष, सर्ग अर्थात सृष्टि ।विसर्ग
द्वारा
अपरिणामी से परिणामी का विस्तार होता है। यह प्रारंभ ही भूत भाव है; इस प्रारंभ की बुद्धि का नाम उद्भव है । यह उद्भव
संसार
में सृष्टि विस्तार करता है और ब्रह्म मुख में सृष्टि का लय करता है। संसार में बहुतायत की
सृष्टि होती है ब्रह्म मुख में दो बिंदु मिलकर एक हो जाते हैं । सृष्टि और विस्तार करने वाला
विसर्ग ही कर्म है ।अधिकृत अर्थात वह जो तीनों काल से खंड खंड 6 विकारों से युक्त मरण शील या क्षरभाव है। बुद्धि
जब आत्मा को त्याग कर इन सब से खेलती रहती है तब अधिभूत अवस्था कही जाती है। पुरुष
अर्थात पुर में जो शयन कर रहा है वही पुरुष है। पुर कहते हैं घर को । चारों दिशाओं
में दीवार देकर आकाश को गिरने से अंदर जो जगह बनती है उसे घर या पुर कहते हैं। देह
नामक पुर के अंदर जो चैतन्य रूप से सो रहा है वही पुरुष
है। बुद्धि जब इस पुरुष के साथ खेलती है, उसे
खोजती है, तब आधिदैव अवस्था
होती है। अधि का अर्थ बुद्धि भी है। द + ऐव अर्थात
दैव। द से स्थिति अर्थात योनि और ऐव अर्थात् 'यह है'। बुद्धि जब 'हमारी स्थिति का स्थान यह है' कहकर ईश्वर में मिल जाने की चेष्टा करें या मिल
जाए इस अवस्था को अधिदैव कहते हैं ।अधियज्ञ= अधिक अर्थात बुद्धि+ यज्ञ अर्थात ग्रहण और त्याग । बाहरी आकाश में जो
अमृतमयी वायु है वह जब शरीर के अंदर प्रवेश करती है तब शरीर की गर्मी से जलकर विष हो जाती
है। विष बनते ही उसकी बहिर्मुखी गति शुरू हो जाती है ।अमृतमय वायु का आकर्षण और विष
का विकर्षण अपने आप होता रहता है। प्राणायाम से वायु सुषुम्ना के अंदर पहुंचकर मूलाधार
चक्र भेद कर वज्रा के अंदर पहुंचती है वहां स्वाधिष्ठान को भेदकर सहस्त्रार के मूल
त्रिकोण में पहुंचती है। फिर उसी पथ से होकर बाहर आकाश में विश्राम लेती है । क्रिया अभ्यास से जब बुद्धि वायु को ग्रहण व त्याग करती है उसी अवस्था को अधियज्ञ कहते हैं ।शरीर में अहम् ही अधियज्ञ है।अहम्
आत्मा को इंगित करता है। अ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का धातु रूप है।स्थूल शरीर में जागृत
अवस्था में रजोगुण के कारण संकल्प विकल्प चलते रहने के कारण ब्राह्मी स्थिति में आना
संभव नहीं है ।अतः हे देहभृतांवर अर्थात् देही श्रेष्ठ ! तुम्हारे सभी प्रश्नों
के उत्तर देह के अंदर क्रिया अभ्यास से मिल जाएंगे प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता
नहीं है।
अन्तकाले
च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः
प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।8.5।।
और जो कोई पुरुष अन्तकाल में मुझे ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं।।
तात्विकव्याख्या 5 क्रिया के अभ्यास से जब चित्त अनंत गामी हो जाता
है तब ही परम पुरुष की प्राप्ति होती है। अक्षर ब्रह्म से लेकर अधियज्ञ तक सब कुछ मेरे
आश्रय से विद्यमान है अतः मैं वासुदेव हूं । जिसके शरीर में सब वास करें वही वासुदेव
हैं। सृष्टि के सभी जीव उनके अंग हैं जो इस 'मैं 'को जानकर मृत्यु के समय शरीर का त्याग करेगा वही 'मैं' हो जाता
है अर्थात आत्मस्वरूप को लाभ करता है।
यं
यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं
तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।8.6।।
हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को
त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के
फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।।त्विकव्याख्या6आयु समाप्त होने पर मृत्यु आती है ।इस संधि
समय में जिस मनोवृत्ति से शरीर त्याग करेंगे अंतिम निश्वास
छोड़ेंगे
उसी वृत्ति के अनुरूप अवस्था प्राप्त करेंगे। अतः प्रत्येक निश्वास को अंतिम अवस्था
में उस विष्णु का परम पद मन ही मन में देखते-देखते
निश्वास त्याग करना उचित है ।नहीं जानते कि शेष निश्वास यही है या नहीं। साधक को 21600 बार की श्वसन क्रिया में प्रत्येक बार सावधान रहकर
यह अभ्यास करना चाहिए।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।8.7।। इसलिए, तुम
सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और
युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त
हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।।
तात्विकव्याख्या सर्वदा अर्थात रात 9:30 बजे
से सुबह 4:30 बजे तक प्रणव अर्थात ओंमकार का स्मरण करते
करते युद्ध अर्थात प्राणायाम करो ।मारपीट को युद्ध कहते हैं ।मारपीट में एक बार उठाना
और फिर फेंकना होता है ।प्राणायाम में भी वायु को सभी चक्रों से उठाना और फिर बाहर
फेंकना है ।क्रिया द्वारा पृथ्वी जल में, जल तेज
में, तेज वायु में, वायु आकाश में, आकाश पांच इंद्रियों में, पांचों
इंद्रियों 5 तन्मात्राओं में, तन्मात्राएं अहंकार में, अहंकार महत् तत्व में और महत् तत्व को जीव में योजना
करो। इस योजना का नाम ही भूत शुद्धि है ।भूत शुद्धि द्वारा स्वरूप में स्थित होकर जीव
उपाधि को त्याग दो। ऐसा होने पर तुम संशय शून्य मैं हो जाओगे । मन बुद्धि के ऊपर मैं
है। मन, बुद्धि को ईश्वर में लय करने पर मैं तदाकार
ब्रह्म हो जाता है।
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा
नान्यगामिना।
परमं
पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।8.8।।
हे पार्थ ! अभ्यासयोग से युक्त अन्यत्र न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता
हुआ (साधक) परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।।
तात्विकव्याख्या 8- भूत शुद्धि और प्रकृति लय केवल विचार करने से नहीं
होते , बहुत दिनों तक अभ्यास करने से अनुभव होता
है । कूटस्थ में प्राण स्थिर करके जब अहं-ममत्व,
मैं-मेरा का भाव मिट जाएगा,तब केवल अस्तित्व बोध निराकार प्रकाशमय
रह जाएगा।
फिर वह भी समाप्त हो जाएगा। चीनी का पानी में घुलने की तरह मधुर आनंद रह जाएगा। तब
साधक योग युक्त हो जाएंगे। अनन्यगामी चेतन रह जाएंगे। तभी 16 कलाओं से युक्त छाया विहीन अंगूठे मात्र परिमाण
के तेजस पुरुष का दर्शन होता है।
कविंपुराणमनुशासितार
मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।सर्वस्य
धातारमचिन्त्यरूप
मादित्यवर्णं
तमसः परस्तात्।।8.9।। जो पुरुष
सर्वज्ञ, प्राचीन (पुराण), सबके
नियन्ता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सब के धाता, अचिन्त्यरूप, सूर्य के समान प्रकाश रूप और (अविद्या) अन्धकार से परे
तत्त्व का अनुस्मरण करता है।। प्रयाणकाले मनसाऽचलेन
भक्त्या
युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये
प्राणमावेश्य सम्यक्
स
तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।8.10।। वह (साधक)
अन्तकाल में योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल
मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।।तात्विकव्याख्या 9-10अंत काल में भक्ति युक्त होकर स्थिर मन
से योग बल के साथ प्राण को दोनों भवों के मध्य केंद्र में प्रवेश कराकर कविं पुराणं
आदि रूप स्मरण करने से परमं पुरुषं दिव्यं को पाया जाता है। कवि अर्थात हर बात में कुछ नया कहने वाला ।परम पुरुष
दिखने पर उससे इतना तेज निकलता है कि पलक विहीन देखते रहने पर भी कितना क्या निकल रहा
है, कहां से निकल रहा है, समझ नहीं आता । एक पदार्थ दोबारा नहीं दिखता नए-नए दृश्य का आविर्भाव होता रहता है, इसलिए इसे कवि कहा है। पुराणं- अनादि
सिद्ध, चिरंतन। परम पुरुष में भूत, भविष्य नहीं है । केवल वर्तमान है। परिश्रम से ही
विश्वेश्वर हरि के दर्शन होते हैं। इसलिए वह पुराणं है। अनुशासितारं अर्थात परम पुरुष ही विश्व के नियंता
हैं। बिना पलक झपके ताकते रहने से उनका दर्शन होता है । पलक झपकते ही पुरुष को आवरण
शक्ति ढक लेती है । वह पुरुष साक्षी रहकर सब देखता रहता है। देखने की शक्ति को प्रकृति
ढक देती है पर उस परम पुरुष के तेज के सामने प्रकृति का आवरण काम नहीं करता। अतः वह
पुरुष ही सबका नियंता है। अणोरणीयासं- अणु
से भी बहुत सूक्ष्म। पृथ्वी के एक अणु के अंदर जल के 10 अणु हैं, जल के
एक अणु के अंदर तेज के 10
अणु, तेज के एक अणु के अंदर वायु के 10 अणु, वायु के एक अणु के अंदर आकाश के 10 अणु हैं। आकाश से सूक्ष्म कुछ भी नहीं है। आकाश
के एक अणु के अंदर 10 ब्रह्माणु रहते हैं। इसलिए परम पुरुष इंद्रियों
के ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। मन इंद्रियों का राजा है। जब तक मन रहता है तब तक इस
दिव्य पुरुष का दर्शन नहीं होता।साधक जब पृथ्वी के अणु से लेकर आकाश से भी सूक्ष्म
ब्रह्माणु पर आक्रमण करते हैं, तब ही
उनका अनुंतिन होता है ।सर्वस्वधातारं-- सब को धारण करने वाला जब साधक आकाश के अणु का परित्याग
कर ब्रह्माणु पर आक्रमण करता है तब वह निर्विकार साक्षी स्वरूप रहकर परम पुरुष को सबका
धाता कहकर आत्मा का अनुभव करता है। इसलिए इस पुरुष को सर्वस्य धातारं कहा गया है। जो
कुछ विस्तार है उस सब का धारक कहकर आत्मा को प्रत्यक्ष करता है आत्मा ही सर्वस्य धाता है।अचिंत्य रूपं--यह रूप
चिंतन से अनुभव नहीं किया जा सकता किए गए कर्म पर विचार करना चिंतन कहलाता है यह पुरस्कृत
कर्म में नहीं है कर्म के ऊपर यह पुरुष है इसलिए अचिंत्य रूपम है।आदित्य वर्णं--जब साधक आकाश का अणु परित्याग कर ब्रह्मांणु पर आक्रमण करेंगे, तभी प्रकाशमय आदित्य रूप सूर्य के समान दीप्तशाली
पुरुष का दर्शन होता है। यहां से वापस पार्थिव अणु में ना आना
युक्त
अवस्था है।साधक को होशियार होना उचित है तभी पुनरावृत्ति नहीं होती। आकाश अणु परित्याग
करते ही ब्रह्मांणु में प्रवेश करना है। आज्ञा चक्र में मन अंचल, अटल, स्थिर
हो जाता है। इस समय प्रकृति निष्क्रिय ब्रह्म मिलन के लिए सचेष्ट होती है । माया ब्रह्म
का संयोग प्रारंभ होता है। जैसे गंगा का वेग सागर संगम में पड़कर प्रशांत होकर सागर
हो जाता है, वैसे ही जब जीव भाव प्राकृतिक लीलामय पीठ
से खेल समेटकर शिवभाव की पीठ में घूम कर बैठता है तब उसी क्षण यह पुरुष हो जाता है
। जब तक प्राण वायु आज्ञा चक्र भेद ना करें तब तक ही चंचलता है जब आज्ञा चक्र भेद
कर ऊपर
उठ जाता है तब उसी क्षण निष्कामता का आरंभ होता है और इस अवस्था की प्राप्ति होती है।
यदक्षरं
वेदविदो वदन्ति
विशन्ति
यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो
ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते
पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।8.11।। वेद के जानने
वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित
यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी
इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें
संक्षेप में कहूँगा।।
तात्विकव्याख्या 11.वेद पढ़ा पर वेद का अर्थ नहीं समझने वाला
भद्र कहा जाता है । जिसने वेद पाठ किया है और श्री गुरुदेव की कृपा से वेदार्थ लाभ
कर चुका है उसी को वेदविद कहते हैं। वेद अर्थात ज्ञान, जो ज्ञान को पा चुके उन्हीं को बुद्ध कहते हैं
। बुद्ध लोग जिन्हें अक्षर ब्रह्म कहते हैं,यत्न
करके यती लोग वीतरागी ( अनुराग विहीन ) होकर द्वंद विमुक्त होकर, जिस अक्षर में प्रवेश करते हैं, इच्छा का अंत कर के जिस ब्रह्म में चरण करके योगी
जन ब्रह्मचारी होते हैं, वह पद ही तद पद या विष्णु का परम पद है।
सर्वद्वाराणि
संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः
प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।8.12।। सब (इन्द्रियों
के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में
स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ।।
ओमित्येकाक्षरं
ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः
प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।8.13।।
जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ
शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को
प्राप्त होता है।।
तात्विकव्याख्या 12-13मोक्ष की इच्छा रखने वाले साधक को मुमुक्षु
कहते हैं । जब साधक आत्मा में आत्म योग करने जाए तब उनको शरीर के नौ द्वारों को संयत
करना पड़ता है । आसन लगाकर बैठने पर दोनों एड़ियों से गुदा और लिंग को दबाकर, ,दोनों हाथ के अंगूठे से दोनों कान बंद करके, दोनों तर्जनियों से दोनों चक्षुओं को, अनामिका से दोनों ओठों को, मध्यमा से नासारंध्रों को दृढ़ आक्रमण करना पड़ता
है। यही नौ द्वारों का संयम है इस अवस्था
में मन, प्राण के साथ हृदय में अटक जाता है। फिर
अपने उत्पत्ति स्थान बुद्धि को लक्ष्य करके भ्रूमध्य में उठता है। प्राण भी नियमित
हो जाता है। चंचलता रहित हो जाता है। सर्व द्वार संयम करके ओम् ( प्रणव) का मानसिक
जप करना होता है.। प्र+ण +व =
प्र
अर्थात प्रकृष्ट;ण अर्थात आत्मा, व अर्थात
शून्य। देह अभिमान जिससे शून्य हो जाए वही प्रणव है।
व्यावहरण- विशेष रूप से आहरण अर्थात उच्चारयन।उत्= ऊर्द्ध में, चार = चरण करना, अयन =गति । ऊर्द्ध गति में चलाना है उच्चारयन। यही कुंडलिनी
देवी को जागृत करता है। कैसे उठाएंगे इस देवी को? मामनुस्मरन्= मेरे अणु को स्मरण करते करते ।कामपुर से वासना, स्वाधिष्ठान से क्रोध, मणिपुर से लोभ, अनाहत चक्र से मोह, विशुद्ध
चक्र से मद को समेटकर, आज्ञा चक्र से मत्सरता को भेदकर सहस्त्रार
में परम शिव को आहुति देनी होगी।अ+उ+म के उच्चारण से(एक अविच्छिन्न तैलधारा के सदृश्य ) ध्वनि
उत्पन्न होगी। ध्वनि की उत्पत्ति के साथ ही गंध ज्ञान, रस ज्ञान, रूप
ज्ञान, स्पर्श ज्ञान, शब्द ज्ञान, मिट
कर एक अभूतपूर्व पहले ना सुनी गई श्रुति उत्पन्न होगी।उस
श्रुति
के ठीक मध्य में एक कभी ना देखी गई ज्योति दिखाई देगी और ज्योति के मध्य में भवसागर
में भटकने वाला मन, संकोच त्याग कर, शून्य होकर, विलय
प्राप्त करेगा। इस अवस्था में देह त्याग करने पर परम गति की प्राप्ति होती है।
अनन्यचेताः
सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं
सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।8.14।।
हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज
ही प्राप्त हो जाता हूँ।।
मामुपेत्य
पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति
महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।8.15।।
परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलयरूप
(गृहरूप) पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं।।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः
पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य
तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।8.16।।
हे अर्जुन ! ब्रह्म लोक तक के सब लोग पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं। परन्तु, हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं
होता।।तात्विकव्याख्या 14-16क्रिया अभ्यास से पहले की अवस्था, क्रिया
अभ्यास की अवस्था, क्रिया की परावस्था, साधक अनुभव से समझ पाते हैं क्योंकि वासुदेव श्री
कृष्ण साधक के अंतः करण में प्रकट होकर उसे प्रश्नों के उत्तर देते हैं, शंका का समाधान करते हैं। अंतः करण में परमात्मा
का मार्ग दर्शन पाने में समर्थ साधक 'परमा
सिद्धि' प्राप्त हैं । उन्हें पुनः दुख का घर नामक
पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता। वह नीचे नहीं गिरते। ब्रह्म में प्रवेश कर ब्रह्ममय हो
जाते हैं ।सूर्य कोष के भीतर जो कुछ भी है उसी को भुवन कहते हैं। स्थूल शरीर का अभिमान
रखने वाले को ब्रह्म कहते हैं । ब्रह्म से लेकर स्वेदज अर्थात पसीने से जन्म लेने वाले, अंडज अर्थात अंडे में जन्म लेने वाले, और उद्भिज अर्थात भूमि से जन्म लेने वाले, जरायुज अर्थात गर्भ से जन्म लेने वाले, सभी भुवन वासी हैं। यह सभी बार-बार जन्म मृत्यु के अधीन होकर घूमते रहते हैं। भुवन 14 हैं। सबसे ऊपर ब्रह्म भुवन या ब्रह्मा का सत्यलोक
सहस्त्रार में स्थित है। यह प्राकृतिक अधिकार भुक्त है। साधक मृत्यु काल में यदि साधना
के बल से सत्यलोक में चला जाए किंतु चैतन्य में चित्तलय
ना कर
सकने पर उसे फिर देह धारण करना होता है । जब तक चित्त प्रकृति को छोड़कर पुरुष में
ना मिल जाए तब तक प्रकृति अधीन जन्म मृत्यु चक्र जारी रहता है। ब्रह्म भुवन में जाने
से भी मोक्ष असंभव है।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो
विदुः।
रात्रिं
युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।8.17।।
जो लोग ब्रह्मा जी के एक दिन की अवधि जानते हैं जो कि सहस्र वर्ष की है तथा एक
सहस्र वर्ष की अवधि की एक रात्रि को जानते हैं वे दिन और रात्रि को जानने वाले पुरुष
हैं।।
तात्विकव्याख्या17युग कहते हैं 2 को।एक खींचना और एक फेंकना ।शरीर में निश्वास प्रश्वास
का खेल आठ प्रहर में
21600 बार होता है। क्रिया
अभ्यास से साधक की श्वास दिन के चार पहर में 1000 , रात्रि के चार प्रहर में 1000 बार नियमित हो जाने से साधक
ब्राह्मण हो जाते हैं । इसलिए
कह: अर्थात प्रकाश और रात्रि अर्थात अप्रकाश
।इसका ज्ञान लाभ कर अहोरात्रविद होते हैं ।ब्राह्मी स्थिति क्या है वह जान लेते हैं।
जगत व्यापार क्या है उसे भी साधक जान लेते हैं।
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः
प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे
प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।8.18।।
(ब्रह्माजी के) दिन का उदय होने पर अव्यक्त से (यह) व्यक्त (चराचर जगत्) उत्पन्न
होता है; और (ब्रह्माजी की) रात्रि के आगमन पर उसी अव्यक्त में
लीन हो जाता है।।
तात्विकव्याख्या18 जब साधक प्रिया अभ्यास नहीं करते थे तब इंद्रियों
के विषय ही उनको फील करते रहते हैं गुरु की कृपा से जब साधक आज्ञा चक्र भेद लेते हैं
तभी उनका शुरू होता है रात्रि समाप्त होने के बाद सूर्य के आने की बेला को कहते हैं
आज्ञा चक्र भेद करने के बाद विवस्वान के अति निकट प्रकृति के रूप यौवन को देखते हैं
अनुभव करते हैं कि अव्यक्त प्रकृति से ही सब कुछ बाहर निकल रहा है यही है मुक्ति का
रास्ता स्वयं प्रकाश होकर भी अभिव्यक्त प्रकृति के गर्भ में विलीन होकर साधक ने जो
जीव भाव धारण कर दुख होगा था वही आत्मा की रात्रि थी आत्मा रूप में तुम सर्वज्ञ को
आत्मा ही होने पर अव्यक्त प्रकृति में डूब जाते हो।
- भूतग्रामः
स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः
पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।8.19।। हे पार्थ ! वही
यह भूतसमुदाय, है जो पुनः पुनः उत्पन्न होकर
लीन होता है। अवश हुआ (यह भूतग्राम) रात्रि के आगमन पर लीन तथा दिन के उदय होने पर
व्यक्त होता है।।
परस्तस्मात्तु
भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः
स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।8.20।।
परन्तु उस अव्यक्त से परे अन्य जो सनातन अव्यक्त भाव है, वह समस्त भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है।
अव्यक्तोऽक्षर
इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं
प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।8.21।।
जो अव्यक्त अक्षर कहा गया है, वही परम गति
(लक्ष्य) है। जिसे प्राप्त होकर (साधकगण) पुनः (संसार को) नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है।।
पुरुषः
स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि
भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।8.22।।हे पार्थ ! जिस
(परमात्मा) के अन्तर्गत समस्त भूत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण (जगत्) व्याप्त है, वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य
है।।
यत्र
काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता
यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।8.23।।
हे भरतश्रेष्ठ ! जिस काल में (मार्ग में) शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन
अपुनरावृत्ति को, और (या)
पुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं, वह काल (मार्ग) मैं
तुम्हें बताऊँगा।।
अग्निर्ज्योतिरहः
शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र
प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।8.24।।
जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और
उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं, वे
ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।
धूमो
रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र
चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।8.25।।
धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष
और दक्षिणायन के छः मास वाले मार्ग से चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त कर, योगी (संसार को) लौटता है।।
तात्विकव्याख्या 19-25- जहां पांच एक साथ निवास करें उसी
स्थान को ग्राम कहते हैं अर्थात
यह शरीर
भी मैं हूं शरीर बार-बार जन्मता मरता है प्रकृति के अधीन में
विवश रहता है व्यक्त अव्यक्त दोनों मिलकर सनातन होते हैं तुम भूतों के अंदर हो अतींद्रिय
हो भूतों के परिवर्तन से तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता ना कोई तुम्हारा विनाश कर सकता
है ना तुम किसी का विनाश कर सकते हो चित्र के ऊपर का भाव जो प्रकृति को वर्ष कर सकता
है उसे अक्षर अवस्था कहते हैं ब्रह्म ज्ञानी प्रकृति के सारे विज्ञान को समझता है प्रकृति
उसे नहीं चल सकती मैं तुम का भेद श्वास चलने तक है मूल में मैं तुम सब एक तत्व भूत
और तक एक हो जाते हैं जब अटल भक्ति के साथ साधक साधना कर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर
लेते हैं निश्वास त्यागना ही मृत्यु पर योगी जन संकल्प से प्राण वायु पर विजय पाकर
जैसे चाहे कर सकते हैं 7 जीव वाली अग्नि के सात रंग के राख के नीचे
कोयला आग से जलकर दो खंडों में टूट गया दोनों खंडों के अंदर से घोर काला रंग निकला
अग्नि तेज होने पर काला लाल हो जाता है आग काले को खा जाती है आग का तेज बढ़कर अलसी
के फूल जैसा हो जाता है उसके अंदर एक श्वेत ज्योति दिखती है इसे अग्नि ज्योति कहते
हैं अग्निहोत्र यज्ञ में इस ज्योति की उत्पत्ति से कार्य सिद्धि होती है ज्योति और
शुक्र इन तीनों के मिश्रण से एक ज्योति प्रकाशित होती है मरण काल में प्राणायाम नहीं
करना होता अपने आप होता है जब यह तीन मिश्रित ज्योतियां प्रकट होती होंगी तब साधक प्राण
त्याग करेंगे यह है ब्रह्मलीन गति जिससे साधक पुनः वापस नहीं आता उत्तरायण गति सुमेरू
गति दुआ रात और काले रंग के मिश्रण से जो रंग होता है यदि योगी उस रंग को देखकर शरीर
त्याग करता है तो वह चंद्रलोक तक भोग करके पुनः वापस आता है इसे दक्षिणायन या कुमेरू
गति कहते हैं साधक का भविष्य उसके अपने हाथ में है|
शुक्लकृष्णे
गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया
यात्यनावृत्तिमन्ययाऽऽवर्तते पुनः।।8.26।।
जगत् के ये दो प्रकार के शुक्ल और कृष्ण मार्ग सनातन माने गये हैं । इनमें एक
(शुक्ल) के द्वारा (साधक) अपुनरावृत्ति को तथा अन्य (कृष्ण) के द्वारा पुनरावृत्ति
को प्राप्त होता है।।
नैते
सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु
कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।8.27।। हे पार्थ इन दो
मार्गों को (तत्त्व से) जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। इसलिए, हे अर्जुन ! तुम सब काल में योगयुक्त बनो।।
वेदेषु
यज्ञेषु तपःसु चैवदानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वायोगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।8.28।। योगी पुरुष यह सब (दोनों मार्गों के तत्त्व को) जानकर वेदाध्ययन, यज्ञ, तप और दान करने में जो पुण्य फल कहा गया है, उस सबका उल्लंघन कर जाता है और आद्य (सनातन), परम स्थान को प्राप्त होता है।। तात्विकव्याख्या 26-28 दृढ़ अभ्यास कर हाथ में कमल की तरह अपनी गति प्राप्त करो शुक्ल गति ना मिले कृष्ण गति मिल जाए तो भी अच्छे कुल में जन्म पाकर पिछले अभ्यास को साधक आगे बढ़ाते हैं माया से मोहित नहीं होते वेद यज्ञ तप दान के फलों से ऊपर योग साधना का फल है स्वर्ग के लोग देते हैं योगी गण जहां से आए थे उसी परमधाम में आधे स्थान विष्णुपद में उपनीत होते हैं।
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