Sunday, 9 August 2020

stuti

 

 शुकदेव कृत स्तोत्र


नमो भगवते वासुदेवाय

   ॐ इति   ज्ञानमात्रेण  रागाजीर्णेन जीर्यत:

            कालनिद्रां प्रपन्नोस्मि त्राहि माम् मधुसूदन  ! 

गतिर्विद्यतेनाथ  त्वमेवशरणं प्रभो

           पापपंके निमग्नोस्मि त्राहि माम् मधुसूदन !

                                                                मोहितो  मोहजालेन  पुत्रदारधनादिषु

              तृष्णया पीड्यमानोस्मि त्राहि माम् मधुसूदन !

   क्तिहीनश्च  दीनं दुःखशोकातुरं प्रभो

               अनाश्रयं अनाथं त्राहि माम् मधुसूदन  !

   गतागतेन  श्रांतोस्मि दीर्घ संसारवर्त्मसु

                    येन भूयो गच्छामि त्राहि माम् मधुसूदन !

          वो हि मया दृष्टा योनिद्वाराः पृथक पृथक

                  गर्भ वासे महद दुःखं त्राहि माम् मधुसूदन !

         ते देव प्रपन्नोस्मि त्राणार्थे त्वत परायणः

                 देहि संसार मोक्षं त्वं त्राहि माम् मधुसूदन !

         वाचा यच्च प्रतिज्ञातं कर्मणां कृतं मया ,

                   सोअहं कर्म दुराचार त्राहि माम् मधुसूदन !

              सुकृतं कृतं किंचिद दुष्कृतं कृतं मया

                   घोरसंसारमग्नोस्मि त्राहि माम् मधुसूदन !

           देहांतरसहस्त्रेषु चान्योन्यं भ्रामितं मया

                       तिर्य्यगयोनिमनुष्येशु त्राहि माम् मधुसूदन !

            वाचयामि यथोन्मत्तः प्रलपामि तवाग्रताः

                         जरामरण भीतोस्मि त्राहि माम् मधुसूदन !

                 त्र  यत्र, यास्यामि स्त्रीषु वा पुरुषेषु

                        तत्र तत्राचला भाक्तिस्त्राहि माम् मधुसूदन !

                 शुकदेव कृतं स्तोत्रं सभक्त्या पठितं मया

                  पुनरावृत्ति दोषं मे हरि त्वं हरतां प्रभो !

 

 

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः

क्षीणे वित्ते कः परिवारः ?     ज्ञाते तत्वे कः संसारः ?


युवा अवस्था व्यतीत हो जाने पर काम विकार कहाँ रहता है? जल सूखने पर झील का अस्तित्व क्या रह जाता है? 

वित्त न होने पर परिवार में सुख कहाँ रहता है ? तत्व ज्ञान प्राप्त होने पर संसार क्या रह जाता है ?  आदि शंकराचार्य के ये वचन स्वतः सिद्ध हैं|


सत्संगत्वे निःसंगत्वं निःसंगत्वे निर्मोहत्वं

निर्मोहत्वे निश्चल तत्त्वं निश्चल तत्वे जीवन्मुक्तिः


सत्संग से मनुष्य निसंग रहना सीखता है ;निसंग रह कर मोह से मुक्त होता है ; मोह मुक्त हो कर निश्चल तत्व में स्थित होना सीखता है और निश्चल तत्व में रह कर जीवन्मुक्त हो जाता है | 

यही आत्मा के विकास का क्रम है.. मनुष्य जीवन, बिना विचार और कर्म के संभव ही नहीं है। विचार, विश्लेषण, प्रयास, प्रार्थना, इन सबके सहारे जब हम चेष्टा करते हैं तो किसी ने किसी उद्देश्य को सामने रखकर आगे बढ़ते हैं । जब तक उद्देश्य सफल ना हो जाए, मनुष्य को चैन नहीं मिलता । आध्यात्मिक साधना में भी सिद्धि प्राप्त किए बिना, विश्रांति की अनुभूति नहीं होती । भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से हम सभी मनुष्यों को अद्भुत आध्यात्मिक विज्ञान प्रदान किया। परमहंस योगानंद जी ने हिमालय के अमर सिद्ध महावतार बाबा जी की इच्छा अनुसार अध्यात्म विज्ञान को अमेरिका में निवास कर विश्व भर में प्रसारित किया। ज्ञान शाश्वत है।  पात्रता के अनुसार परमात्मा हर जीव को सब कुछ देते रहते हैं। जैसा कि उन्होंने गीता में कहा है -'योग क्षेमम् वहाम्यहम्'!

 

 सम्पूर्ण मानवता को आध्यात्मिक परिवार में रूपांतरित करने वाली पुस्तक 'योगी कथामृत' में परमहंस योगानंद जी ने अपने पिताजी के वाराणसी में निवास करने वाले मित्र स्वामी प्रणवानंद जी का वर्णन किया है,जो सरकारी सेवा में रहते हुए क्रियायोग की सिद्धावस्था को पाने में सफल हुए। वह एक साथ दो शरीर धारण कर काम करते थे। यह अपने आप में बहुत आनंदमय अवस्था है मनुष्य जीवन की।उनके साथ अपनी भेंट का वृत्तांत देते हुए परमहंस योगानंद जी ने टिप्पणि में लिखा है

Physical science is affirming the validity of laws discovered by yogis through mental science. For example, a demonstration that man has  televisional powers was given on Nov,26,1934 at The Royal University of Rome. Dr.Giuseppe Calligaris, Professor of neuro-psychology, pressed certain points of a subject’s body and the subject responded with minute descriptions of other persons and objects on the opposite side of a wall. Dr Calligarirs told the other professors that if, certain areas on the skin are agitated, the subject is given super-sensorial impressions enabling him to see objects that he could not otherwise, perceive. To enable his subject to discern things on the other side of a wall, Professor Calligaris pressed on a spot to the right of the thorax for fifteen minutes. Dr. Calligaris said that if other spots of the body were agitated, the subjects could see objects at any distance, regardless of whether they had ever before seen those objects.”


 

 

उन्ही स्वामी प्रणवानंद जी द्वारा भगवद्गीता की जो टिप्पणी और व्याख्या की गई है उसका प्रकाशन रांची से श्री वशिष्ठ नारायण सिंह जी ने बहुत पहले करवाया था । उस टिप्पणी की एक प्रति मुझे मेरी आध्यात्मिक मित्र डॉक्टर राका शंकर के माध्यम से वर्ष 1999 में प्राप्त हुई । इस टिप्पणी का अध्ययन और अनुसरण करते हुए मुझे भगवान श्री कृष्ण की महान कृपा वर्षा का अनुभव हुआ । वर्ष 2009 में भारत सरकार के एक अधिकारी श्री रणवीर सिंह जी ने इस भगवद्गीता की 1000 प्रतियां प्रकाशित कर साधकों में वितरित कीं । समय के साथ मुझे अनुभूति  होने लगी कि स्वामी प्रणवानंद जी की इस टिप्पणी को बिल्कुल सहज और सरल शब्दों में आधुनिक युग में साधना कर रहे मित्रों तक पहुंचाना मेरा दायित्व है। इसी प्रेरणा से युक्त होकर मैंने यह विनम्र प्रयास योगेश्वर श्रीकृष्ण के शुद्ध भक्तों के मार्गदर्शन हेतु, भगवान श्री कृष्ण की सेवा के रूप में किया है।

1 comment:

  1. यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे जैसी जीव के शरीर की अवस्था होती है उसके बाहर वैसा ही संसार रच जाता है क्योंकि परमात्मा ही हर रूप में सृष्टि में विद्यमान रहकर द्वंदात्मक क्रीड़ा सर्वत्र कर रहा है।सद्चिदानंदोहं

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