अध्याय
11
अर्जुन
उवाच
मदनुग्रहाय
परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं
वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।11.1।। अर्जुन ने कहा
-- मुझ पर अनुग्रह करने के लिए जो परम गोपनीय, अध्यात्मविषयक
वचन (उपदेश) आपके द्वारा कहा गया, उससे मेरा मोह दूर
हो गया है।।
भवाप्ययौ
हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्तः
कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।11.2।।
हे कमलनयन ! मैंने भूतों की उत्पत्ति और प्रलय आपसे विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा
आपका अव्यय माहात्म्य (प्रभाव) भी सुना है।।
एवमेतद्यथात्थ
त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते
रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।11.3।।
हे परमेश्वर ! आप अपने को जैसा कहते हो, यह
ठीक ऐसा ही है। (परन्तु) हे पुरुषोत्तम ! मैं आपके ईश्वरीय रूप को प्रत्यक्ष देखना
चाहता हूँ।।
मन्यसे यदि
तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे
त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्।।11.4।।
हे प्रभो ! यदि आप मानते हैं कि मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना संभव है, तो हे योगेश्वर ! आप अपने अव्यय रूप का दर्शन कराइये। तात्विकव्याख्या 1-4 अध्याय 11
जो अहं
त्वं किसी भी अवस्था में रह सके वह है योगेश्वर । साधक त्वं ज्ञान में रहकर अपने अहं भाव को साधना से सिद्ध
करना चाहता है|
श्री
भगवानुवाच
पश्य
मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि
दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।11.5।। श्रीभगवान् ने
कहा -- हे पार्थ ! मेरे सैकड़ों तथा सहस्रों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा
आकृति वाले दिव्य रूपों को देखो।।
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्िवनौ
मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि
पश्याऽश्चर्याणि भारत।।11.6।। हे भारत ! (मुझमें) आदित्यों, वसुओं, रुद्रों
तथा अश्विनीकुमारों और मरुद्गणों को देखो, तथा
और भी अनेक इसके पूर्व कभी न देखे हुए आश्चर्यों को देखो।।
इहैकस्थं
जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम
देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि।।11.7।।
हे गुडाकेश ! आज (अब) इस मेरे शरीर में एक स्थान पर स्थित हुए चराचर सहित सम्पूर्ण
जगत् को देखो तथा और भी जो कुछ तुम देखना चाहते हो, उसे
भी देखो।।
न
तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते
चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।। परन्तु तुम अपने इन्हीं (प्राकृत) नेत्रों के
द्वारा मुझे देखने में समर्थ नहीं हो; (इसलिए)
मैं तुम्हें दिव्यचक्षु देता हूँ, जिससे
तुम मेरे ईश्वरीय 'योग' को देखो।।
तात्विकव्याख्या 5-8
आकाश में
सब स्वतंत्र विचरण करते हैं |साधना में साधक अनंत प्रकाशमय दर्शन करते हैं| भूत, भविष्य, वर्तमान की तरह दिखते हैं| चर्म चक्षु द्वंद्वात्मक सृष्टि देखते
हैं किंतु दिव्य चक्षु से जो चाहे वह देखा जा सकता है।
सञ्जय
उवाच
एवमुक्त्वा
ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास
पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।11.9।। संजय ने कहा -- हे राजन् ! महायोगेश्वर हरि ने
इस प्रकार कहकर फिर अर्जुन के लिए परम ऐश्वर्ययुक्त रूप को दर्शाया।।
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं
दिव्यानेकोद्यतायुधम्।।11.10।। उस अनेक मुख और
नेत्रों से युक्त तथा अनेक अद्भुत दर्शनों वाले एवं बहुत से दिव्य भूषणों से युक्त
और बहुत से दिव्य शस्त्रों को हाथों में उठाये हुये।
दिव्यमाल्याम्बरधरं
दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं
देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।।11.11।। दिव्य माला और
वस्त्रों को धारण किये हुये और दिव्य गन्ध का लेपन किये हुये एवं समस्त प्रकार के
आश्चर्यों से युक्त अनन्त, विश्वतोमुख (विराट्
स्वरूप) परम देव (को अर्जुन ने देखा)।।
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि
भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।11.12।।
आकाश में सहस्र सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश होगा, वह उस (विश्वरूप) परमात्मा के प्रकाश के सदृश होगा।।
तत्रैकस्थं
जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य
शरीरे पाण्डवस्तदा।।11.13।। पाण्डुपुत्र
अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त हुए सम्पूर्ण जगत् को देवों के देव
श्रीकृष्ण के शरीर में एक स्थान पर स्थित देखा।।
तात्विकव्याख्या 9-13
सं+ जय = संजय भूत प्रपंच को कारण, कार्य, गुण अर्थ सहित परिज्ञात अवस्था वाला
साधक | आज्ञा चक्र से देखने पर साधक का भाव
अनासक्ति मय हो जाता है यही है संजय उवाच|दिव्य चक्षु से सर्व दिव्य है दिखता है | साधन सिद्ध साधक विश्वकोश को प्रत्यक्ष
करना चाहता है।
ततः
स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः।
प्रणम्य
शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।11.14।। उसके उपरान्त वह
आश्चर्यचकित हुआ हर्षित रोमों वाला (जिसे रोमांच का अनुभव हो रहा हो) धनंजय अर्जुन
विश्वरूप देव को (श्रद्धा भक्ति सहित) शिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोला।।
अर्जुन
उवाच
पश्यामि
देवांस्तव देव देहे
सर्वांस्तथा
भूतविशेषसङ्घान्।
ब्रह्माणमीशं
कमलासनस्थ
मृषींश्च
सर्वानुरगांश्च दिव्यान्।।11.15।। अर्जुन ने कहा -- हे देव! मैं आपके शरीर में
समस्त देवों को तथा अनेक भूतविशेषों के समुदायों को और कमलासन पर स्थित सृष्टि के
स्वामी ब्रह्माजी को, ऋषियों को और दिव्य
सर्पों को देख रहा हूँ।।
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां
सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं
न मध्यं न पुनस्तवादिं
पश्यामि
विश्वेश्वर विश्वरूप।।11.16।। हे विश्वेश्वर!
मैं आपकी अनेक बाहु, उदर, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों
वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ और न मध्य को और न आदि
को।। तात्विकव्याख्या 14-16
साधक के
रोए कांटे की तरह खड़े हो जाते हैं; दिव्य चक्षु से सृष्टि देखकर साधक विस्मय से भर जाता है; जन्म मृत्यु सुख-दुख भूख प्यास सब सपने
जैसे दिखने की अवस्था में साधक धनंजय कहलाताहै |सहस्त्रार के मूल त्रिकोण में उठकर चिदाकाश
में समाहित हो जाता है; प्राण -
अपान क्रिया को प्रणाम कहते हैं| एक बार नीचे झुककर, ऊपर उठना प्रणाम कह लाता है; साधना में बायां मार्ग विपथ दाहिना
मार्ग सपथ कहलाता है दोनों के संयोग को संधि कहते हैं| इसी संधि को कृतांजलि कहते हैं| आत्मसमर्पणकर के साधक, स्तुति किए बिना रह नहीं सकता; स्तुति ही प्रभाषण है ब्रह्म मुखी साधक चित्तपट में विश्व दर्शन
करता है; तीन गुणों
से यह अद्भुत व्यापार प्रकाशित होता है|
किरीटिनं
गदिनं चक्रिणं च
तेजोराशिं
सर्वतोदीप्तिमन्तम्।
पश्यामि
त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता
द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।।11.17।। मैं आपका मुकुटयुक्त, गदायुक्त
और चक्रधारण किये हुये तथा सब ओर से प्रकाशमान् तेज का पुंज, दीप्त अग्नि और सूर्य के समान ज्योतिर्मय, देखने में अति कठिन और अप्रमेयस्वरूप सब ओर से देखता
हूँ।।
त्वमक्षरं
परमं वेदितव्यं
त्वमस्य
विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः
शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं
पुरुषो मतो मे।।11.18।। आप ही जानने
योग्य (वेदितव्यम्) परम अक्षर हैं; आप
ही इस विश्व के परम आश्रय (निधान) हैं ! आप ही शाश्वत धर्म के रक्षक हैं और आप ही
सनातन पुरुष हैं,ऐसा मेरा मत है।।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं
शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि
त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा
विश्वमिदं तपन्तम्।।11.19।। मैं आपको आदि, अन्त और मध्य से रहित तथा अनंत सार्मथ्य से युक्त और
अनंत बाहुओं वाला तथा चन्द्रसूर्यरूपी नेत्रों वाला और दीप्त अग्निरूपी मुख वाला
तथा अपने तेज से इस विश्व को तपाते हुए देखता हूँ।।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं
त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाऽद्भुतं
रूपमुग्रं तवेदं
लोकत्रयं
प्रव्यथितं महात्मन्।।11.20।। हे महात्मन् !
स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का यह आकाश तथा समस्त दिशाएं अकेले आप से ही व्याप्त हैं; आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक
अतिव्यथा (भय) को प्राप्त हो रहे हैं।। तात्विकव्याख्या 17-20
दिव्य
प्रकाशमय रूपों से साधक विचलित होकर दृष्टि स्थिर नहीं रख पाता| अक्षर अर्थात जो कभी नष्ट ना हो: परमं अर्थात ब्रह्म : वेदितव्यं अर्थात जानने की वस्तु तुम
हो: निधानं
अर्थात तुम इस विश्व के शेष आश्रय हो; तुम अव्यय अर्थात अपरिणामी हो ;शाश्वत अर्थात चिर स्थायी तुम हो ; धर्मगोप्ता अर्थात विश्व ही तुम हो; विश्व तुम्हारा आवरण है, तुमने आत्मगोपन किया है
| सनातन अर्थात अनादि सिद्ध, चिरंतन पुरुष; पुरुष= सर्व की अंतरात्मा | देवगण का निवास तथा साधक के छाया विहीन
तेजस मूर्ति के दर्शन को स्वर्ग कहते हैं; प्राणवायु चालन करने पर जिस स्थान से सात स्वर उत्थान होता है
वही स्वर्ग है| स्वृ अर्थात
शब्द उत्पन्न करना;गै अर्थात
गाना ;स्थूल शरीर
का आवास पृथ्वी कहलाता है; स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का अवकाश अंतरिक्ष कहलाता है| अंतर अर्थात भीतर; ईश अर्थात दर्शन करना; तीन स्थानों की 10 दिशा में तुम ही व्याप्त हो, ऐसा कोई स्थान नहीं जहां तुम ना हो।
अमी
हि त्वां सुरसङ्घाः विशन्ति
केचिद्भीताः
प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा
महर्षिसिद्धसङ्घाः
स्तुवन्ति
त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः।।11.21।। ये समस्त
देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए
आप की स्तुति करते हैं; महर्षि और सिद्धों
के समुदाय 'कल्याण होवे' (स्वस्तिवाचन करते हुए) ऐसा कहकर, उत्तम (या सम्पूर्ण) स्रोतों द्वारा आपकी स्तुति करते
हैं।।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या
विश्वेऽश्िवनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां
विस्मिताश्चैव सर्वे।।11.22।। रुद्रगण, आदित्य, वसु
और साध्यगण, विश्वेदेव तथा दो अश्विनीकुमार, मरुद्गण और उष्मपा, गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धगणों
के समुदाय- ये सब ही विस्मित होते हुए आपको देखते हैं।।
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं
महाबाहो
बहुबाहूरुपादम्।
बहूदरं
बहुदंष्ट्राकरालं
दृष्ट्वा
लोकाः प्रव्यथितास्तथाऽहम्।।11.23।। हे महाबाहो!
आपके बहुत मुख तथा नेत्र वाले, बहुत बाहु, उरु (जंघा) तथा पैरों वाले, बहुत-ंंसी उदरों वाले तथा बहुतसी विकराल दाढ़ों वाले
महान् रूप को देखकर सब लोग व्यथित हो रहे हैं और उसी प्रकार मैं भी (व्याकुल हो
रहा हूँ)।।
नभःस्पृशं
दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं
दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा
हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं
न विन्दामि शमं च विष्णो।।11.24।। हे विष्णो! आकाश के साथ स्पर्श किये हुए
देदीप्यमान अनेक रूपों से युक्त तथा विस्तरित मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से
युक्त आपको देखकर भयभीत हुआ मैं धैर्य और शान्ति को नहीं प्राप्त हो रहा हूँ।।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव
कालानलसन्निभानि।
दिशो
न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद
देवेश जगन्निवास।।11.25।। आपके विकराल
दाढ़ों वाले और प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर, मैं न दिशाओं को जान पा रहा हूँ और न शान्ति को
प्राप्त हो रहा हूँ; इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हो जाइए।।
तात्विकव्याख्या 21-25
अम = रोग ग्रस्त; इन = रहना; रोगी रहने को अमी कहते हैं| हि = निश्चय; सुरसंघा = देवता समूह : त्वां = तुम में: विशन्ति= प्रवेश करते हैं| देवता भीरोगी और तेज हीनों की तरह तुम
में प्रवेश करते हैं|11 रुद्र, आठ वसु, साध्यगण हैं (मनः , मन्ता , प्राण , सर , पान , वीर्य्यवान ,
विनिर्भय ,
लय ,
दंश ,
नारायण ,
वृष ,
और प्रभु ये 12 प्रकार के देवता हैं)| विश्वदेवगण --(वसु, सत्य, क्रतु, वक्ष, काल, काम, धृति, कुरु, पुरूरवा, मद्रव
यह 10 प्रकार के गणदेवता हैं)|
अश्विनी कुमार, मरुदगण (मृ = मरण; उत = मिला देना;अर्थात जिसके क्रुद्ध होने से मृत्यु
होती है वह मरुत ;49 प्रकार के
वायुगण, उष्मपा= पितृगण जिनके सात संप्रदाय हैं –
अग्निष्वात्त्वा , सौम्या,
हविष्मन्तः, उष्मपः , सुकालिनः ,
बर्हिषदः ,
आज्यपा:) हाहा-हुहु आदि गंधर्वगण, कुबेर आदि यक्षगण आदि,सब
आदि , मध्य ,
अंत सहित जिसके हाथ में दिखे उसे
महाबाहु कहते हैं|रूपं
महत्ते = महत को भी
अतिक्रमण करकेअप्रमेय रूप , असंख्य मुख,चक्षु , हाथ, उरु, पाद, उदर आदि देख साधक व्याकुल हो उठता है| दूध में घी की तरह विश्व में व्याप्त =
विष्णु; जगत विध्वंसक विद्युत अग्निशिखा देखकर
साधक स्तुति करता है-- हे परमेश्वर प्रसन्न होइये ।
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः
सर्वे
सहैवावनिपालसङ्घैः।
भीष्मो
द्रोणः सूतपुत्रस्तथाऽसौ
सहास्मदीयैरपि
योधमुख्यैः।।11.26।। और ये समस्त धृतराष्ट्र के
पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश करते हैं। भीष्म, द्रोण तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं
के सहित.।।
वक्त्राणि
ते त्वरमाणा विशन्ति
दंष्ट्राकरालानि
भयानकानि।
केचिद्विलग्ना
दशनान्तरेषु
संदृश्यन्ते
चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः।।11.27।। तीव्र वेग से
आपके विकराल दाढ़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्णित शिरों
सहित आपके दांतों के बीच में फँसे हुए दिख रहे हैं।।
यथा
नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः
समुद्रमेवाभिमुखाः
द्रवन्ति।
तथा
तवामी नरलोकवीरा
विशन्ति
वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।।11.28।। जैसे नदियों के बहुत से जलप्रवाह समुद्र की ओर
वेग से बहते हैं, वैसे ही मनुष्यलोक
के ये वीर योद्धागण आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश करते हैं।।
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा
विशन्ति
नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव
नाशाय विशन्ति लोका
स्तवापि
वक्त्राणि समृद्धवेगाः।।11.29।। जैसे पतंगे अपने
नाश के लिए प्रज्वलित अग्नि में अतिवेग से प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में
अतिवेग से प्रवेश करते हैं।।
लेलिह्यसे
ग्रसमानः समन्ता
ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः।तेजोभिरापूर्य
जगत्समग्रं
भासस्तवोग्राः
प्रतपन्ति विष्णो।।11.30।। हे विष्णो! आप
प्रज्वलित मुखों के द्वारा इन समस्त लोकों का ग्रसन करते हुए आस्वाद ले रहे हैं, आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत् को तेज के द्वारा
परिपूर्ण करके तपा रहा है।।
तात्विकव्याख्या 26-30
विषय भोग के शूल ही मुक्ति की कामना जगाते हैं |साधक विवेक, वैराग्य सहित सेवा करता है; साधना में ऊपर उठने पर उसके समूह छटते
जाते हैं अंतः करण से प्रसूत जो कुछ भी है विकार है;भोग = मोक्ष दोनों कामना के ही रूप है, ब्रह्म अग्नि में दोनों भस्म हो जाते
हैं| चिदाभास, संस्कार, कर्तव्य, कामना, विवेक, वैराग्य सब छूट जाते हैं; नर = ज्योति विहीन; लोक = दर्शनीय;वीर = जिसमें बंधन करने वाली व्यवस्था है| मायिक बंधन =
नर लोक वीर
| जैसे नदी सागर में समा जाती है
नर लोकवीर ब्रह्म ज्योति में, अस्तित्व हीन हो जाते हैं; अज्ञान का आश्रय समूह ब्रह्म में भस्म
हो जाता है; ब्रह्म
विश्व भोक्ता मुख से विश्व को चबाकर उदरस्थ करता है।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो
नमोऽस्तु
ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि
भवन्तमाद्यं
न
हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।11.31।। (कृपया) मेरे
प्रति कहिये, कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार है, आप प्रसन्न होइये। आदि स्वरूप आपको मैं (तत्त्व से)
जानना चाहता हूँ, क्योंकि आपकी
प्रवृत्ति (अर्थात् प्रयोजन को) को मैं नहीं समझ पा रहा हूँ।।
श्री
भगवानुवाच
कालोऽस्मि
लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह
प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि
त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिताः
प्रत्यनीकेषु योधाः।।11.32।। श्रीभगवान् ने
कहा -- मैं लोकों का नाश करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ। इस समय, मैं इन लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हूँ। जो
प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा हैं, वे
सब तुम्हारे बिना भी नहीं रहेंगे।।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ
यशो लभस्व
जित्वा
शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते
निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं
भव सव्यसाचिन्।।11.33।। इसलिए तुम उठ
खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं
को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं।
हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो।।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं
तथाऽन्यानपि योधवीरान्।
मया
हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व
जेतासि रणे सपत्नान्।।11.34।। द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा और भी बहुत से मेरे द्वारा मारे गये वीर
योद्धाओं को तुम मारो; भय मत करो; युद्ध करो; तुम
युद्ध में शत्रुओं को जीतोगे।।
सञ्जय
उवाच
एतच्छ्रुत्वा
वचनं केशवस्य
कृताञ्जलिर्वेपमानः
किरीटी।
नमस्कृत्वा
भूय एवाह कृष्णं
सगद्गदं
भीतभीतः प्रणम्य।।11.35।। संजय ने कहा --
केशव भगवान् के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, कांपता हुआ नमस्कार करके पुन: भयभीत हुआ श्रीकृष्ण के
प्रति गद्गद् वाणी से बोला।।
तात्विकव्याख्या 31-35
साधक की
जिज्ञासा बढ़ती जाती है; आख्याहि मे!= मुझे बताओ, को भवानुग्ररूपः = इतनी प्रखर मूर्ति वाले तुम कौन हो? देवों के देव प्रसन्न हो जाओ मैं
तुम्हारा आदि-मध्य-अंत नहीं समझता| साधक बंद आंखों से सृष्टि-स्थिति-लय का अनुभव करते हुएसोचता है-- मैं कौन हूं ?
असीम लोक क्षय करने वाला काल ही मैं हूं| साधक स्वयं को अपरिणामी अनुभव करता है| जीव असल मैं को भुलाकर नकली मैं का आश्रय लेने से मरणधर्मी होता है| उत्तिष्ठ = युद्ध के लिए रथी को रथ में ऊंचे स्थान पर बैठना होता है| अर्जुन रथ से उतर कर नीचे बैठ गया था, अतः भगवान ने उत्थिष्ठ कहा
| साधक को अवसाद के बाद, पैरों को आसन बद्ध करके मेरुदंड सीधा
कर, छाती फुला
कर शरीर को संयत करना होता है| मन को पंच तत्वों के ऊपर पं मस्तक ग्रंथि के ऊपर स्थापित करना
होता है;|यशो लभस्व = यश लाभ करो!=सत्कर्मों द्वारा सर्व पर आत्मप्रभाव विस्तार= यश; साधना में सिद्ध अवस्था से पहले आत्मा
दबा रहता है, सिद्धि
लाभ के बाद प्रकृति, प्रभाव निस्तेज हो जाता है और आत्म प्रभाव सतेज हो जाता है, यही साधना का यश है, कैवल्य की सूचना है| संकोच नाश कर आत्म विस्तार;शरीर में साधना से आकाश की तरह
निर्लिप्त रहकर माया और मायावियों का भोग
करते चलो, मनुष्य
कर्म का निमित्त मात्र है जो विधाता के विधान के अधीन कर्म करने के लिए स्वतंत्र
है प्राणायाम रूपी शर चलाने से ही
विजय प्राप्त होती है| साधक को ब्रह्म मुखी होना ही पड़ता है
जीवन मुक्त अवस्था पाकर वासना का बीज नष्ट हो जाने से पुनः संसार में नहीं आना
पड़ता | स्थिर आसन
में बैठकर क्रिया करने से सहज कर्म होता रहता है; क्रिया करते रहने से ‘प्रबोधसमय’ का उदय होता है;स्थिर आसन में क्रिया करना ही निमित्त
होना है; जिसके
दोनों हाथों में संधान रहता है उसे सब्यसाची कहते हैं; साधक जब सुषुम्ना में प्राण चालन करता
है वायु की गति समान हो जाने पर, दशांगुल प्रवेश व द्वादश अंगुली बाहर आना भी मिट जाता है; कोई विषमता नहीं रहती; साधक की यह अवस्था सब्यसाची है |साधक निर्लिप्त रहता है किंतु संसारी जन
उस पर दोष लगाते रहते हैं |असिद्ध साधक ब्राह्मी स्थिति में अधिक समय तक टिक नहीं पाते, नीचे उतर जाते हैं; नीचे आकर भी आज्ञा चक्र से उन्हें
अनुभव होता है | जो साधक
आज्ञा चक्र में रहते हैं वही पंचजयी हैं, उन्हीं को संजय कहते हैं| केशव = के =अर्थात जल में + शव=मृत देह ;प्रलय के बाद प्रलय रस में जो शव की तरह
हर्ष, विमर्श से परे अवस्था में रहते हैं वही
साधक केशव है| साधक केशव
अवस्था से नीचे उतर कर वर्तमान में उस अवस्था को याद करते हैं; वही केशव का वचन सुनना है| कृतांजलि = साधक जब ऊपर उठने का लक्ष्य रखता है पर शक्ति के अभाव
में उठ नहीं पाता; नीचे की गति का रोध करता है| दोनों गतियां की स्तंभन अवस्था कृतांजलि अवस्था है |
वेपमान += भोग सामने आने पर
दुर्बलता वश आत्म कंपन को वेपमान अवस्था
कहते हैं; किरीट =शिर का आभूषण;असिद्ध किन्तु प्रबल उत्साह युक्त साधक
किरीटी हैं वह कार्य एवं गुण से साधकों का शीर्षस्थ है . अति हर्ष, अति दुःख, अति भय, अति विस्मय, अति स्नेह, अति उत्साह की वृत्तियां चित्त से बाहर आने पर आंसू बहना, कंठ अवरुद्ध होना गदगद अवस्था है।
भीतभीत:
प्रणम्य--विषय वृत्ति का पूर्णतया निरोध हो; ब्रह्म नाड़ी के ठीक मध्य में सांस चलने फिरने से ऊंची नीची-गति हो, इसे प्रणाम कहते हैं | मुक्तिदाता के प्रति प्रेम उमड़ता है जिन्हे कृष्ण कहते हैं| किसी वृत्ति का उदय नहीं होता; वासना का क्षय और साधना की जय होने पर
मुक्ति या चिर शांति प्राप्त होती है इसी दृढ़ बोध को संजय उवाच कहा गया है।
अर्जुन
उवाच
स्थाने
हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत्
प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि
भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे
नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।11.36।।अर्जुन ने कहा --
यह योग्य ही है कि आपके कीर्तन से जगत् अति हर्षित होता है और अनुराग को भी
प्राप्त होता है। भयभीत राक्षस लोग समस्त दिशाओं में भागते हैं और समस्त सिद्धगणों
के समुदाय आपको नमस्कार करते हैं।।
कस्माच्च
ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे
ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त
देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं
सदसत्तत्परं यत्।।11.37।।हे महात्मन् !
ब्रह्मा के भी आदि कर्ता और सबसे श्रेष्ठ आपके लिए वे कैसे नमस्कार नहीं करें? (क्योंकि) हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! जो सत्
असत् और इन दोनों से परे अक्षरतत्त्व है, वह
आप ही हैं।।
त्वमादिदेवः
पुरुषः पुराण
स्त्वमस्य
विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि
वेद्यं च परं च धाम
त्वया
ततं विश्वमनन्तरूप।।11.38।। आप आदिदेव और
पुराण (सनातन) पुरुष हैं। आप इस जगत् के परम आश्रय, ज्ञाता, ज्ञेय, (जानने
योग्य) और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप आपसे ही यह विश्व व्याप्त है।।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः
शशाङ्कः
प्रजापतिस्त्वं
प्रपितामहश्च।
नमो
नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः
पुनश्च
भूयोऽपि नमो नमस्ते।।11.39।। आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजापति (ब्रह्मा) और प्रपितामह (ब्रह्मा के भी कारण)
हैं; आपके लिए सहस्र बार नमस्कार, नमस्कार है, पुन:
आपको बारम्बार नमस्कार, नमस्कार है।।
नमः
पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत
एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं
समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।।11.40।।हे
अनन्तसार्मथ्य वाले भगवन्! आपके लिए अग्रत: और पृष्ठत: नमस्कार है, हे सर्वात्मन्! आपको सब ओर से नमस्कार है। आप अमित
विक्रमशाली हैं और आप सबको व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप सर्वरूप हैं।।
तात्विकव्याख्या 36-40
साधक मन
में सोचता है --हे ऋषिकेश
! तुम्हारी अलौकिक विभूति का अनुभव
होने से तुम पर जगत का जो अनुराग है इसमें संदेह क्या है? अत्याचारी राक्षस गण—काम, क्रोध, ईर्ष्या, भयभीत होकर दसों दिशाओं में भाग रहे
हैं |संसार
खिलता सा दिखाई देता है आनंद विभोर साधक को।जीभ
उलट कर क्रिया अभ्यास करने पर प्राण का आनंदमय परिचालन ही कीर्तन है| सृष्टि से पहले व संहार के बाद की
ब्रह्म की विश्राम अवस्था को हिरण्यगर्भ कहते हैं| वही साधक का त्वम् है| त्वं ही वासुदेव हैं मायापुर में शयन
करने वाला पुरुष ब्रह्म है; सर्व के निवास ‘धाम’ तुम ही हो |ब्रह्म भी तुम ही हो, वायु = वाहक! हे नाथ तुम सब कुछ वहन करते हो अतः
वायु हो,यम हो, तुम ही अग्नि हो, वरुण हो, नित्य प्रकाश हो; शश अर्थात कलंक: अंक अर्थात गोदी| जो प्रकाश, अनित्य,अप्रकाश प्रकाश को गोदी में बिठाकर मायिकों
का भ्रम दर्शन कराता है वही शशांक अवस्था
है |वह भी तुम
ही हो क्योंकि सभी अवस्थाएं तुम में ही है| ब्रह्म तुम्हारे नाभि कमल से उत्पन्न हुए हैं अतः तुम पितामह
हो, तुम्हें
बारंबार नमस्कार है तुम स्वरूप अनंत हो तुम्हें नमस्कार है।
सखेति
मत्वा प्रसभं यदुक्तं
हे
कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता
महिमानं तवेदं
मया
प्रमादात्प्रणयेन वापि।।11.41।।हे भगवन्! आपको
सखा मानकर आपकी इस महिमा को न जानते हुए मेरे द्वारा प्रमाद से अथवा प्रेम से भी
"हे कृष्ण हे! यादव हे सखे!" इस प्रकार जो कुछ बलात् कहा गया है।।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत
तत्समक्षं
तत्क्षामये
त्वामहमप्रमेयम्।।11.42।। और, हे अच्युत! जो आप मेरे द्वारा हँसी के लिये बिहार, शय्या, आसन
और भोजन के समय अकेले में अथवा अन्यों के समक्ष भी अपमानित किये गये हैं, उन सब के लिए अप्रमेय स्वरूप आप से मैं क्षमायाचना करता
हूँ।।
पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य
पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न
त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।।11.43।।आप इस चराचर जगत् के पिता, पूजनीय और सर्वश्रेष्ठ गुरु हैं। हे अप्रितम प्रभाव
वाले भगवन्! तीनों लोकों में आपके समान भी कोई नहीं हैं, तो फिर आपसे अधिक श्रेष्ठ कैसे होगा?।।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं
प्रसादये
त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव
पुत्रस्य सखेव सख्युः
प्रियः
प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।11.44।। इसलिये हे
भगवन्! मैं शरीर के द्वारा साष्टांग प्रणिपात करके स्तुति के योग्य आप ईश्वर को
प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ। हे देव! जैसे पिता पुत्र के, मित्र अपने मित्र के और प्रिय अपनी प्रिया के(अपराध को
क्षमा करता है), वैसे ही आप भी मेरे अपराधों को
क्षमा कीजिये।।
अदृष्टपूर्वं
हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन
च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव
मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद
देवेश जगन्निवास।।11.45।। मैं आपके इस
अदृष्टपूर्व रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अतिव्याकुल भी हो
रहा हैं। इसलिए हे देव! आप उस पूर्वकाल को ही मुझे दिखाइये। हे देवेश! हे
जगन्निवास! आप प्रसन्न होइये।। तात्विकव्याख्या 41-45
साधक
परमात्मा से क्षमा याचना करता है --हे कृष्ण!गुरुओं के परम गुरु!24 तत्वों से
परे, अद्वितीय हैं। मेरुदंड को
आश्रय करके जो अंश वर्तमान है उसे प्रणिधाय
कहते हैं; ईश्वर का प्रसाद पाने के लिए साधना को
उच्चतर करना है; दंडवत
मेरु में, मन को देह
से पृथक कर, चित्त का
अवलंबन कर, प्रणिधाय
काय होना है; नाद, ज्योति के सहारे मन को विष्णुपद में
लीन करने से ‘प्रणम्य प्रणिधाय
काय’ होते हैं; यह आज्ञा चक्र के ऊपर की क्रिया है- जिसे शरीर अभिमान वर्जित मानस क्रिया
कहते हैं, जिस
से ईश्वर प्रसन्न होते हैं |साधक परमात्मा के विश्वरूप दर्शन से
उल्लसित होता है परंतु अपरंपार रूप तरंग
मेंपड़कर, मन भयभीत
होता है; हे जगन्निवास ! आप मेरे पर प्रसन्न होकर वही तेजस
देवेश रूप दिखाइए, साधक
प्रार्थना करता है।
किरीटिनं
गदिनं चक्रहस्त
मिच्छामि
त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव
रूपेण चतुर्भुजेन
सहस्रबाहो
भव विश्वमूर्ते।।11.46।।मैं आपको उसी
प्रकार मुकुटधारी, गदा और चक्र हाथ
में लिए हुए देखना चाहता हूँ। हे विश्वमूर्ते! हे सहस्रबाहो! आप उस चतुर्भुजरूप के
ही बन जाइए।।
श्री
भगवानुवाच
मया
प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं
परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं
विश्वमनन्तमाद्यं
यन्मे
त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।11.47।। हे अर्जुन! तुम
पर प्रसन्न होकर मैंने अपनी योगशक्ति (आत्मयोगात्) के प्रभाव से यह अपना परम
तेजोमय, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दर्शाया है, जिसे तुम्हारे पूर्व किसी ने नहीं देखा है।।
न
वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै
र्न
च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः
शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं
त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।11.48।। हे कुरुप्रवीर!
तुम्हारे अतिरिक्त इस मनुष्य लोक में किसी अन्य के द्वारा मैं इस रूप में, न वेदाध्ययन और न यज्ञ, न
दान और न (धार्मिक) क्रियायों के द्वारा और न उग्र तपों के द्वारा ही देखा जा सकता
हूँ।।
मा
ते व्यथा मा च विमूढभावो
दृष्ट्वा
रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यपेतभीः
प्रीतमनाः पुनस्त्वं
तदेव
मे रूपमिदं प्रपश्य।।11.49।। इस प्रकार मेरे
इस घोर रूप को देखकर तुम व्यथा और मूढ़भाव को मत प्राप्त हो। निर्भय और
प्रसन्नचित्त होकर तुम पुन: मेरे उसी (पूर्व के) रूप को देखो।।
सञ्जय
उवाच
इत्यर्जुनं
वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं
रूपं दर्शयामास भूयः।
आश्वासयामास
च भीतमेनं
भूत्वा
पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।।11.50।।संजय ने कहा --
भगवान् वासुदेव ने अर्जुन से इस प्रकार कहकर, पुन:
अपने (पूर्व) रूप को दर्शाया, और फिर, सौम्यरूप महात्मा श्रीकृष्ण ने इस भयभीत अर्जुन को
आश्वस्त किया।। तात्विकव्याख्या 46-50
साधक
परमात्मा के शांत सौम्य दर्शन की आकांक्षा करता है| अहंता-ममता त्याग कर साधक को विश्वरूप दर्शन
प्राप्त हुआ| आत्मयोग
से अरूप के रूप का दर्शन होता है; पृथ्वी के अणु उसमें
नहीं थे केवल ज्योतिर्मय तेज से निर्मित चर जगत का खेल था |ब्रह्म नाड़ी के मध्य से उठकर सहस्त्रार चक्र में ज्योति भेद
करके मनोलय के बाद, इस अवस्था का अनुभव होता है; दूसरा उसे नहीं देख सकता| यज्ञ = लेनदेन की वृत्ति से यह अनुभव नहीं
होता; नादानै : त्याग करते रहने से भी यह अनुभव नहीं
होता, अध्ययन = पांच इंद्रियों को समेटकरस्वस्थान में
रखने पर भी यह अनुभव नहीं होता,क्रियाभि : =क्रिया से प्राण संचालन करने पर भी यह दृश्य दिखाई नहीं देता,
न
तपोभिरुग्रैः=क्रिया काल
में स्वेद, कंपन, गति तीनों अवस्था में इसका दर्शन नहीं
होता |
आत्मरूप का
अनुभव ‘मैं’ में ‘मैं’ मिलाने से ही होता है, कोई दूसरा मार्ग नहीं है| तुम भय न करो ;काम क्रोध के वशीभूत मत हो| तुमने मेरा घोर (सर्व संहारक) रूप देखा; अब निर्भय होकर शांत रूप देखो| वसु = रत्न, हीरा, पन्ना; माणिक= स्थावर या अस्थावर वस्तु जिसमें ज्योति
हो पर आवरण से ढकी हो| देव शब्द में दीप्ति है जो दीप्तिमान है वही वसुदेव है| जिसमें सब निवास करें वह है वासुदेव| साधक को आज्ञा चक्र से ऊपर उठने पर
वसुदेव, फिर उसके
बाद वासुदेव के दर्शन होते हैं
जो सर्वोत्तम हैं
जिन्हें किरीटधारी कहा है| व्यक्त जगत अव्यक्त में से निकल कर उसी
में लय होने से सुदर्शन चक्र है; यह रूप बहुत चमकदार, आत्महारा, आघात शक्ति युक्त होने से ‘गदा’ कहलाताहै; पदम् =
पद अर्थात स्थान;+ म अर्थात ब्रह्मा, विष्णु, शिव, यम, काल, चंद्र | इन सभी का समावेश जिसमें है; वह है पदम| जगत ने सबको मोहित कर रखा है अतः
तत्वदर्शी इसे पदम् या पंकज कहते हैं| साधक पहले उन्नति करते हुए निर्भय रहता है परंतु विश्वव्यापी
अवस्था अनुभव कर भयभीत हो जाता है| फिर वासुदेव अवस्था के परिज्ञान से भय दूर होने पर आश्वस्त
होता है मानुषी अंतः करण में प्रकृतिस्थ होकर सौम्य भाव धारण करता है।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं
मानुषं रूपं तवसौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि
संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः।।11.51।। अर्जुन ने कहा
-- हे जनार्दन! आपके इस सौम्य मनुष्य रूप को देखकर अब मैं शांतचित्त हुआ अपने
स्वभाव को प्राप्त हो गया हूँ।।
श्री भगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं
रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा
अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।11.52।।
श्रीभगवान् ने कहा -- मेरा यह रूप देखने को मिलना अति दुर्लभ है, जिसको कि तुमने देखा है। देवतागण भी सदा इस रूप के
दर्शन के इच्छुक रहते हैं।।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य
एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।11.53।।
न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही मैं इस प्रकार देखा जा सकता
हूँ, जैसा कि तुमने मुझे देखा है।।
भक्त्या
त्वनन्यया शक्यमहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं
दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।11.54।।
परन्तु हे परन्तप अर्जुन! अनन्य भक्ति के द्वारा मैं तत्त्वत: 'जानने', 'देखने' और 'प्रवेश' करने के लिए (एकी भाव से प्राप्त होने के लिए) भी, शक्य हूँ!।।
मत्कर्मकृन्मत्परमो
मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः
सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।11.55।। हे पाण्डव! जो
पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और
मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है
तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर
है, वह मुझे प्राप्त होता है।। तात्विकव्याख्या 51-55
चिदाकाश अवस्था का वर्णन असंभव है; वह अव्यक्त है| ईश्वर को शांत भाव में अनुभव कर
चित्त निर्भय होता है; साधक आत्मज्ञान में पूर्व अनुभूति की
मीमांसा करते हैं| यह जो
अद्भुत रूप है जो अति कठोर साधना से दर्शन में आता है देवगण भी उसका अनुभव नहीं कर
सकते| बिना
साधना के इसका अनुभव नहीं होता; चारों वेद कंठस्थ करने पर भी इस
‘मैं’ का अनुभव नहीं होता
| शरीर को सुखाकर तपस्या करने पर
भी इसका अनुभव नहीं होता; दान से भी नहीं होता; अग्निहोत्र यज्ञ से भी नहीं होता’ मैं का मैं में एकात्म होने से ही यह अनुभव होता है, दूसरा कोई साधन नहीं है| जो साधक साधना से पराशक्ति को भी तपाते
हैं वे परन्तप कहलाते हैं |गुरु वाक्य में
अटल विश्वास रखकर क्रिया करते रहना अनन्य भक्ति है| इसी से विश्वरूप दर्शन होता है| विश्वरूप में प्रवेश करने पर मोक्ष लाभ होता है; भक्ति बिना मुक्ति नहीं होती| साधना की पहली अवस्था भक्ति, मध्य अवस्था ज्ञान, अंतिम अवस्था मुक्ति है| भक्ति ही मुक्ति है प्राण चालन कर साधक
सभी अन्य कामनाओं को त्याग कर, अपने को आत्मा में लीन कर सब से बैर भाव त्यागकर अनंत मैं का
अनुभव करते हैं।
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