अध्याय 4
श्लोक 1-2
श्री
भगवानुवाच
इमं
विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्
मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4.1।
श्रीभगवान्
ने कहा --- मैंने इस अविनाशी योग को
विवस्वान् (सूर्य देवता) से कहा (सिखाया); विवस्वान्
ने मनु से कहा; मनु ने इक्ष्वाकु से कहा।।
एवं
परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स
कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।4.2।
इस
प्रकार परम्परा से प्राप्त हुये इस योग को राजर्षियों ने जाना, (परन्तु) हे परन्तप ! वह योग बहुत काल (के अन्तराल) से
यहाँ (इस लोक में) नष्टप्राय हो गया।।
तात्विक व्याख्या- काल चक्र में ज्ञान – विज्ञान का उदय और लोप
होता रहता है । सांख्य योग अनुमान सिद्ध ज्ञान है । योग क्रिया द्वारा अनुभव में आने
वाला आत्मा का प्रकाश ही विवस्वान् है जिस से विश्व प्रकाशित है । उस सूर्य में चित्त
स्थिर रखने पर गोलोक नाथ-कूटस्थ चैतन्य श्री कृष्ण प्रत्यक्ष होते हैं । विवस्वान
से चिद्ज्योति प्रवाहित होकर अंत:करण में आती है । 4 अशों चित्त-अहंकार-मन-बुद्धि में विभक्त आत्म
ज्योति के प्रसार में सृष्टिमुखी मन ही मनु है । प्रज्ञाचक्षु या मानस नेत्र इक्ष्वाकु
हैं, अंत:करण में ज्ञान उदय होने
पर ज्ञानेन्द्रिय ज्ञान का बोध करती है । ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जानने वाला सभी
कुछ राजऋषिगण है क्योंकि इनकी क्रिया में रजोगुण है । ज्ञानयोग का विकास अनतं फलदायक
है अत: अव्यय है । संसार मुखी प्रवृत्ति मार्ग के लिए काल का महत्व है । संसार महत्
है । वासना ज्ञान को मैला करती है ।
श्लोक 3
स
एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि
मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4.3।।
वह
ही यह पुरातन योग आज मैंने तुम्हें कहा (सिखाया) क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र
हो। यह उत्तम रहस्य है।।
तात्विक व्याख्या -सविचार समाधि लाभ करने
पर, आत्मज्ञान प्रत्यक्ष होता
है ।
देश- धर्मक्षेत्र+कुरूक्षेत्र जिसमें सुषुम्ना
में यात्रा करनी है ।काल- युद्ध शुरू होने से पहले, कूटस्थ में धैर्य पूर्वक ध्यान केन्द्रित करना ।पात्र- ईश्वर के प्रति अनुरक्ति
का नाम भक्ति है । समप्राणत्व का नाम सखा है । क्रियायोग अभ्यास से प्राण में समता आती है । साधक उपरोक्त देश-काल-पात्र अवस्था का अनुभव
कर, कैवल्य स्थिति प्राप्त
करते हैं ।
श्लोक 4
अर्जुन
उवाच
अपरं
भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां
त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।4.4।।
अर्जुन
ने कहा -- आपका जन्म अपर अर्थात् पश्चात् का है और विवस्वान् का जन्म (आपके) पूर्व
का है, इसलिये यह मैं कैसे जानूँ कि (सृष्टि के) आदि में आपने
(इस योग को) कहा था?
तात्विक व्याख्या- साधना में पहले विवस्वान, फिर ईष्ट मूर्ति दर्शन
होता है । शुद्ध चैतन्य ज्योति (सूर्य) पहले, कूटस्थ चैतन्य बाद में, प्रत्यक्ष होने पर जिज्ञासा उठती है
कि कूटस्थ से विवस्वान में आत्म ज्योति का संचार कैसे होता है ।
श्लोक 5
श्री
भगवानुवाच
बहूनि
मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं
वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।
श्रीभगवान्
ने कहा -- हे अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं, (परन्तु) हे परन्तप ! उन सबको मैं जानता हूँ और तुम
नहीं जानते।।
तात्विक व्याख्या -नाम रूप धारी आवरण के मध्य
चैतन्य का प्रवेश है; जन्म/प्रकृति चेतना का आवरण है । प्रकृति-पुरूष के अलग होने का स्थान है चिदाकाश
। अहं-शिवचैतन्य । त्वं-जीव चैतन्य । अर्जुन- अ+रज्जु+न अर्थात् जो बंधा हुआ है ।
तदर्थीय कर्म साधक का कुकर्म
है क्योंकि वह विषयों की ओर जाता है । आत्ममुखी होने पर भी कर्म न होने के कारण, साधक जीव भाव में बंध अल्पज्ञ
रहते हैं । सुकर्म रूप आवरण युक्त जीव है अर्जुन । परंतप- प्रकृति को तपाने वाला । त्याग इच्छा
संपन्न साधक है परतंप।
अजोऽपिसन्नव्ययात्माभूतानामीश्वरोऽपि
सन्।
प्रकृतिं
स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4.6।।
यद्यपि
मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ (तथापि) अपनी प्रकृति
को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ।।
तात्विक व्याख्या-समाधि
में सभी समय सारी सृष्टि अपनी आत्मा का विस्तार अनुभव होती है। आत्मा प्रकाश
स्वरूप,
जन्म रहित, अनश्वर है । यह 24 प्राकृतिक तत्वों के सहयोग से देह धारण कर जीव रूप में अभिव्यक्त होती है।
यदा
यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
हे
भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।।
तात्विक व्याख्या-जिसे
धारण कर अस्तित्व की रक्षा की जाती है, वही धर्म है । धर्म
अस्तित्व का आधार है। अंतःकरण की वृत्तियां ही जीव का धर्म है ।अंतः करण के एक-एक अंश- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ही एक-एक युग और
धर्म का एक एक चरण यानिपाद है। चित्त की क्रिया चिंतन है। चित्त में विकार अहंकार
को जन्म देता है। अहंकार की दोवृत्तियां है -चिंतन और
'मेरे करता होने का भाव' ।अहंकार के विकार से
एक वृत्ति और बढ़ती है जिसे बुद्धि कहते हैं। अतः बुद्धि के 3 धर्म यावृत्तियां हैं -चिंतन, अहम
भाव, निश्चय करना ।
बुद्धि के विकार से मन उत्पन्न होता है जिसका धर्म है संकल्प- विकल्प। मन के 4 धर्म या वृत्तियां हैं- चिंतन, अहम भाव, निश्चय करना , संकल्प विकल्प। यही धर्म के चार चरण या पाद हैं। निवृत्ति मार्ग में
योगाभ्यास करने पर इस धर्म में ग्लानि या हानि होती है। अधर्म यानिअवलंबन विहीनता
से अभ्युत्थान(अभि=निकट+उत=ऊर्द्ध + स्था= स्थिति) यानि ऊपर की स्थिति होती है। मनोमय कोष में
चार वृत्तियां होने से मन ही सत्ययुग है(सत्य=सत् +य= जो है+संपूर्ण अस्तित्व जिसमें)। ध्यान अभ्यास में मनोमय
कोष में प्रवेश करने पर साधक इष्ट देव को नरसिंह रूप में अपने हिरण्यकशिपु रूपी
वैरी भाव का नाश करते हैं ।हिरण्य अर्थात सुनहरा, हिरण्यकशिपु
अर्थात कशमल से सुनहरे प्रकाश का ढका रहना । मनोमय कोष के बाद विज्ञानमय कोष में
प्रवेश होता है जहां बुद्धि की 3 वृत्तियां या धर्म ही बचते हैं ।यही त्रेता युग है। इस क्षेत्र में साधक
अनुभव करते हैं कि इष्ट देव राम रूप से रावण रूपी चंचलता का वध करते हैं । इसके
बाद अहंकार क्षेत्र में आनंदमय कोषमें प्रवेश कर केवल 2 हीवृत्तियां
शेष रहने पर द्वापर युग में आ जाते हैं । द्वापर में श्रीकृष्ण साधक के दंत वक्र-
शिशुपाल रूपी अहंकार का नाश करते हैं । आनंदमय कोष में अहंकार निचले
स्तर पर तथा चित्त ऊपर स्तर पर है। चित्त में एक वृत्ति शेष रहने से 1पाद या चरण धर्म और तीन चरण युक्त अधर्म बचता है जो कलियुग है । कालगणना
इसी वृत्ति से शुरू होने के कारण इसे कलि युग कहते हैं। इस अवस्था में इष्टदेव
कल्कि रूप मेंम्लेच्छभाव को नष्ट करते हैं ।यही चित्तवृत्ति निरोध है । अबवृत्ति
विहीन अवस्था या विशुद्ध अधर्म या निरालंब अवस्था आ जाती है। प्रकृति साम्य अवस्था को प्राप्त कर के द्वैत भाव से रहित,
मन- वाणी से परे, विभु
मात्र हो जाती है।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।
साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश, तथा धर्म
संस्थापना के लिये, मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता
हूँ।
तात्विक व्याख्या-साधु
अर्थात सा यानी सूक्ष्म श्वास, आ अर्थात आसक्ति ध अर्थात धृति + उ अर्थात स्थिति। जिसकी आसक्ति सूक्ष्म श्वास में है वही साधु है।
सद्वृत्ति के परित्राण और असद वृत्ति के नाश से धर्म संस्थापना होती है अर्थात
साम्यअवस्था आती है । 24 तत्व लययोग से सिमटकर चैतन्य में
समाहित होने से धर्म की स्थापना होती है ।संसार से मुक्त होकर साधक परित्राण पाते
हैं।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।4.9।।
हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है,
इस प्रकार जो पुरुष तत्त्वत: जानता है,
वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता; वह मुझे ही प्राप्त होता है।।
तात्विक व्याख्या-आत्मा
की मोक्ष प्राप्ति एक दिव्य घटना है।दिव् अर्थात अंतर आकाश, या अर्थात स्थिति। आत्मा के इस दिव्य जन्म कर्म को तत्व से जानना ही जन्म
मरण चक्र से मोक्ष प्राप्त करना है, परम गति पाना है।
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।4.10।।
राग, भय और क्रोध से रहित,‘मैं’मय अर्थात एकमात्र कूटस्थ चैतन्य की शरण हुए
बहुत से पुरुष ज्ञान रुप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरुप को प्राप्त हुए हैं।।
तात्विक व्याख्या-मैं
ही ब्रह्म हूं। सब कुछ ब्रह्म है यही ज्ञान है ।मेरु, सिर, गर्दन को सम रखकर, जीभ
उलट कर भूमध्य में प्राण चालन करना ही तप है। ज्ञान एवं तप से चित्त शुद्धि होती
है। ऐसे साधक अपने अनेक जन्मों को जानकर अनुराग विहीन,भय
विहीन, क्रोध रहित होकर स्थिर भाव पाते हैं । साधक जानते हैं
कि उनसे पहले अनेक साधक इस यात्रा से गुजर चुके हैं तो फिर भय कैसा?
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4.11
जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं।।
तात्विक व्याख्या- साधक अपने विश्वास के अनुरूप फल पाते हैं। जैसे
जल का मंथन, तरंग, बुलबुले, झाग आदि उत्पन्न करता है वैसे ही परमात्मा
विश्व में अनंत रूपों में अभिव्यक्त होते हुए सब जगह व्याप्त हैं। आत्मा ही अपनी इच्छाशक्ति
से 24 प्राकृतिक तत्वों का सहयोग करती है ।24 प्राकृतिक तत्व ही आत्मा के पथ हैं । लय योग से 24 तत्वों के आवरण क्षय
को प्राप्त
होते हैं यही मद्भावमागत: का तात्पर्य है।
काङ्क्षन्तः
कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं
हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।4.12।।
सामान्य
मनुष्य यहाँ इस लोक में कर्मों के फल को चाहते हुये देवताओं को पूजते हैं; क्योंकि मनुष्य लोक में कर्मों के फल शीघ्र ही प्राप्त
होते हैं।।
तात्विक व्याख्या-आकांक्षा पुरी करने के लिए इहलोक में
देवताओं के यज्ञ किए जाते हैं ।समभाव पाना ही सबसे ऊंची सिद्धि है । साधना की अलग-अलग अवस्था के फल हैं विभूतियां । निष्काम
साधना ही विधि है। विधि से सिद्धि होती है । हृदय की दुर्बलता के कारण साधना के फल
में आसक्ति रहने पर धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में अनेक देव देवी प्रकट होकर कामना पूरी करते हैं । कामना
रहने पर,कर्म
फल भोग करने पर भी आसक्ति के कारण,कर्मक्षय नहीं होता, शांति नहीं मिलती । निष्काम साधना से कैवल्य
शांति मिलती है। ज्ञान में जो स्थित है वही है मनुष्य। मन यानी वेद या ज्ञान;उ यानी स्थिति;मन की सभी वृत्तियांहैं मानुष ।मनोवृति की उत्पत्ति अर्थात मनुष्य
लोक अर्थात विशुद्ध मन सत्वमय है । सुषुम्ना में ब्रह्म नाड़ी में शुद्ध ब्रह्म
आकाश है,
इसमें मूलाधार चक्र से सहस्रार तक प्रकाश उत्पन्न होता है । प्रकाशित
मानुषलोक में जल्दी ही सिद्धि मिलती है । कैवल्य अवस्था प्राप्त होती है।
चातुर्वर्ण्यं
मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य
कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
गुण
और कर्मों के विभाग से चातुर्वण्य मेरे द्वारा रचा गया है। यद्यपि मैं उसका कर्ता
हूँ, तथापि तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी जानो।।
तात्विक व्याख्या- सतो प्रधान अवस्था में अंतः करण शुभ्र ज्योति से भरा रहने पर साधक ब्राह्मण
वर्ण होता है। रजोगुण बढ़ने पर अंतर आकाश हल्का गुलाबी होने पर
साधक क्षत्रिय वर्ण होता है।रज- तम बढ़ने पर अंतर आकाश लाल काला रहने से कुछ दिखाई नहीं देता, यही वैश्य वर्ण है। तम प्रधान होने पर अंतर आकाश अंधकार मय
रहता है यही शुद्र वर्ण है । शूद्र अवस्था में साधक शरीर की सेवा करता हुआ बाहरी विषयों में उलझा
रहता है ।साधना करने पर जड़ता धीरे-धीरे नष्ट होती है अंधेरा टूटने, दूर होने लगता है। अंदर क्या है यह जिज्ञासा जागने पर साधक वैश्य वर्ण प्राप्त करता है; प्राण चालन करने पर चक्र दिखते हैं ।अनेक दृश्य देखते हैं यही साधक की
क्षत्रिय अवस्था है। श्वेत ज्योति दिखने पर देह एवं मन खिल जाते हैं और साधक की ब्राह्मण
अवस्था आती है। ब्रह्मबल श्रेष्ठतम शक्ति है बिना ब्राह्मण हुए शक्ति नहीं आती, मुक्ति शक्ति नहीं
है, अवस्था है। जो साधना करेगा वह ब्राह्मण, क्षत्रिय तो क्या, स्त्री,और शूद्र हो तो भी
कैवल्य लाभ करेगा।साधन मार्ग में गुरुपदिष्ट विधान - एकमात्र मनुष्य लोक ही सबका आश्रय
स्थल है।
न
मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति
मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।4.14।।
कर्म
मुझे लिप्त नहीं करते; न मुझे कर्मफल में
स्पृहा है। इस प्रकार मुझे जो जानता है, वह
भी कर्मों से नहीं बन्धता है।।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु
कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।।4.15।।
पूर्व
के मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किया गया है; इसलिये तुम भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये हुए कर्मों
को ही करो।।
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते
कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।4.16।।
कर्म
क्या है और अकर्म क्या है? इस विषय में
बुद्धिमान पुरुष भी भ्रमित हो जाते हैं। इसलिये मैं तुम्हें कर्म कहूँगा, (अर्थात् कर्म और अकर्म का
स्वरूप समझाऊँगा) जिसको जानकर तुम अशुभ (संसार बन्धन) से मुक्त हो जाओगे।।
तात्विक व्याख्या 14-15-16- साधना से साधक आत्म भाव अनुभव करते हैं; देह त्याग के समय
यदि वे अग्नि के समान प्रकाश दर्शन करें, तो उत्तरायण होता है जिससे पुनः जन्म नहीं होता। प्राणायाम रूपी कर्म करते रहना चाहिए। जो नए-नए भाव प्रकाशित करे, वही कवि है। भाव अतीत साधक अलौकिक प्रकाश एवं ज्ञान अनुभव करते
रहने से कवि हो जाते हैं ।समाधि के निकट पहुंचने पर कर्म-अकर्म का बोध नहीं रहता । समाधि टूटने पर मन जाग जाता है तब योग निद्रा या विषय निद्रा समझ
में आतीहै। क्रिया करते हुए भी जो विषय निद्रा में लगाव है वही अशुभ है, क्योंकि यही संसार
बंधन है।
कर्मणो
ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च
बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।।
कर्म
का (स्वरूप) जानना चाहिये और विकर्म का (स्वरूप) भी जानना चाहिये ; (बोद्धव्यम्) तथा अकर्म का भी (स्वरूप) जानना चाहिये
(क्योंकि) कर्म की गति गहन है।।
कर्मण्यकर्म
यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स
बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।।
जो
पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह
मनुष्यों में बुद्धिमान है, वह योगी सम्पूर्ण
कर्मों को करने वाला है।।
तात्विक व्याख्या17-18 माया ही कर्म रूपिणी जगत धात्री है। माया जीव को नए नए विषयों से मोहित करती है। परमात्मा ने गति भेद से कर्म को तीन अंश में विभाजित किया है--- कर्म, विकर्म, अकर्म।
कर्म--- भूतभावोद्भवकरः = भूतभाव अर्थात जीवअवस्थाउत अर्थात
पांच तत्वों के ऊपर आज्ञाचक्र में; पंच तत्वों के ऊपर आज्ञा चक्र में भव यानी स्थिति। जीव को शिव भाव में स्थापित करने वाली क्रिया है कर्म। प्राणायाम ही कर्म है।विकर्म---वि+कर्म अर्थात विपरीत कर्म। यानी वे सभी कर्म जो जीव को बार-बार जन्म मरण में उलझाए। विकर्म पुराने कर्म के संस्कार से संचित व प्रारब्ध रूप में कर्म फल
का भोग करवाते हैं।अकर्म—प्राण-अपान मिलकर स्थिर
हो जाने पर वृत्ति समाप्त हो जाती है। अंतःकरण में परम संतोष आ जाता है, यही है अकर्म।जिस क्रिया से विषय
का विकास हो वह है विकर्म,आत्ममुखी वृत्ति है कर्म।‘मैं-मेरे’ के समाप्त होने के बाद का स्थिर भाव, योग शास्त्र का अकर्म है।
कर्म साधक को मायातीत करता है। विकर्म भटकाता है।
क्रिया योग के अभ्यास से विकर्म कमजोर और कर्म प्रबल
होता है। धीरे-धीरे अकर्म की स्थिति लंबी होती जाती है। सभी कुछ आत्मामय लगने लगता है। तब विकर्म में उतरने पर भी विकर्म का भोग नहीं करना पड़ता ।आत्मानंद में रत रहने के कारण विषय आकर्षित नहीं करते। कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म का दर्शन होने लगता है। ऐसा साधक ही बुद्धिमान है; उसी की बुद्धि
स्थिर होती है।विक्षिप्त नहीं होती। प्रवृत्ति-निवृत्ति
का तत्व जानकर वह सर्वज्ञ जीवनमुक्त कृतकृत्य हो जाते हैं।
यस्य
सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं
तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।। जिसके समस्त
कार्य, कामना और संकल्प
से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के
द्वारा भस्म हुये कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं।।
त्यक्त्वा
कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि
नैव किञ्चित्करोति सः।।4.20।। जो पुरुष, कर्मफलासक्ति को त्यागकर, नित्यतृप्त और सब आश्रयों से रहित है वह कर्म में
प्रवृत्त होते हुए भी (वास्तव में) कुछ भी नहीं करता है।।
निराशीर्यतचित्तात्मा
त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं
केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।4.21।।
जो आशा रहित है तथा जिसने चित्त और आत्मा (शरीर) को संयमित किया है, जिसने सब परिग्रहों का त्याग किया है, ऐसा पुरुष शारीरिक कर्म करते हुए भी पाप को नहीं
प्राप्त होता है।।
यदृच्छालाभसन्तुष्टो
द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः
सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।
यदृच्छया (अपने आप) जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही सन्तुष्ट रहने वाला, द्वंदों से अतीत तथा मत्सर से रहित, सिद्धि व असिद्धि में समभाव वाला पुरुष, कर्म करके भी नहीं
बन्धता है।।
गतसङ्गस्य
मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः
कर्म समग्रं प्रविलीयते।।4.23।। जो आसक्तिरहित
और मुक्त है, जिसका चित्त ज्ञान में स्थित है, यज्ञ के लिये आचरण करने वाले ऐसे पुरुष के समस्त कर्म
लीन हो जाते हैं।।
ब्रह्मार्पणं
ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव
तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।
अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि ( हवन करने योग्य
द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि
में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह
भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी
ब्रह्म ही है।।
दैवमेवापरे
यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे
यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।4.25।। कोई योगीजन
देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को ही करते हैं ; और
दूसरे (ज्ञानीजन) ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा यज्ञ को हवन करते हैं।।
तात्विक व्याख्या19-25- इच्छा ही संकल्प है, संकल्प से काम का जन्म होता है। मुक्ति की इच्छा से जो संकल्प लिया जाए, कामना होने पर भी वह कर्म बंधन में नहीं
बंधता।
पंचतत्व ही ‘सर्व” है। गुरु के उपदेश से
चित्तशुद्धि के लिए पंचतत्व में जो प्राण
क्रिया की जाती है, वही सर्वसमान है। जिनका समारंभ समूह यानी समस्त प्राण क्रियाएं कामना और संकल्प से
रहित हैं अर्थात क्रिया से विभूति लाभ या मुक्ति
लाभ की भी इच्छा ना रहे, उनके कर्म में अकर्म और अकर्म में
कर्म दर्शन होता है।
सकल कर्म दग्ध हो जाने से आत्मज्ञान
दृढ़ होता है।
वही साधक पंडित है, ज्ञानी है, कर्मफल में आसक्ति नहीं होने से वे नित्यानंद लाभ करते हैं। असंग अवस्था में शरीर यात्रा के लिए एवं
लोक संग्रह के लिए कर्म करने पर भी उन्हें सर्वत्र ब्रह्मदर्शन होता है। कर्म में अकर्म
होता है।
काम और संकल्प समाप्त होने पर अपने आप ही ‘शरीरं केवलं कर्म’ अवस्था आती है।‘मैं-मेरे’ का अभिमान नहीं रहता शरीर से चेष्टा करने पर
भी बंधन नहीं रहता।
क्रिया योग की परा अवस्था में सब स्वाहा हो जाता है।
सभी विरोधाभास एवं द्वंद समाप्त
हो जाते हैं। साधक सदा निर्लिप्त रहते हैं। विश्वव्यापी चैतन्य यज्ञ ईश्वर ही आत्मा है। उन में मिल जाना ही प्रसन्नता है ।धीर प्रकाश मय अवस्था ही
आत्म प्रसाद है,जिसके लिए
कर्म ही यज्ञ है।सर्व कर्म विलय हो जाता है। मन ब्रह्म नाड़ी में प्रवेश कर सभी को ब्रह्म मय देखता है।ब्रह्म बुद्धि सब में ब्रह्म का दर्शन
करती है। जब सब एक हो गए तब बंधन कहां? साधक की पात्रता के भेद से
अलग-अलग यज्ञ के प्रकार हैं-- साधक जब स्थूल जगत को त्याग कर गंगा जमुना के मध्य सुषुम्ना
में प्रवेश करता है तब अपान की खिंचाई कम होने पर सहस्त्रार में कमल खिलता है। मूलाधार ग्रंथि भेद करके
भी यहां से नए संस्कार लेकर स्वाधिष्ठान में वज्रा के अंदर छह महाशक्तियों का
स्पर्श होता है। फिर नए संस्कार लेकर मणिपुर में चित्रा
नाड़ी में आगे बढ़ने पर बारह,विशुद्ध
चक्र में छह और आज्ञा चक्र में दो शक्तियों से मिलकर विश्राम पाते हैं। यह सभी शक्तियां तेज स्वरूप देवता हैं,इन देवताओं के प्रबोध के समय साधक को
देवताओं का ग्रहण और त्याग अर्थात पूजन और विसर्जन करना ही दैवयज्ञ है।कूटस्थ में ‘तत त्वम्’ का अनुभव होता है। इन दोके
संयोग का अनुभव, योग है।क्षुद्र ‘मैं’ का भ्रम छोड़ने पर ‘तत’ के विशुद्ध भाव के नशे में रहना ही ‘यज्ञ से यज्ञ करना’ है। इस अवस्था में उपाधि नहीं रहती, ब्रम्ह यज्ञ की ब्रह्म अग्नि में अहम
का हवन हो जाता है।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये
संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य
इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।।4.26।।अन्य (योगीजन)
श्रोत्रादिक सब इन्द्रियों को संयमरूप अग्नि में हवन करते हैं, और अन्य (लोग) शब्दादिक विषयों को इन्द्रियरूप अग्नि
में हवन करते हैं।।
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि
प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ
जुह्वति ज्ञानदीपिते।।4.27।। दूसरे (योगीजन)
सम्पूर्ण इन्द्रियों के तथा प्राणों के कर्मों को ज्ञान से प्रकाशित
आत्मसंयमयोगरूप अग्नि में हवन करते हैं।।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा
योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च
यतयः संशितव्रताः।।4.28।। कुछ (साधक)
द्रव्ययज्ञ, तपयज्ञ और योगयज्ञ करने वाले
होते हैं; और दूसरे कठिन व्रत करने वाले स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ
करने वाले योगीजन होते हैं।।
तात्विक व्याख्या 26-28- साधक आत्मज्योति से अतीव सूक्ष्मदर्शी हो जाते हैं। अंतःकरण में इंद्रियों की उत्पत्ति
अर्धविराम स्थिति के सूक्ष्म कारण को प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। उस समय आत्मा की ब्रह्म अग्नि में
आहुति ना देकर सबको वश में करके उस स्थिति में अटके रहना संयम अवस्था है। इंद्रियां साधक के अधीन रहती है। इच्छा अनुसार इंद्रियों को सक्रिय या
निष्क्रिय कर सकते हैं। माया साधक से हार जाती है समस्त गुणों की क्रिया विश्राम लेती है। योगी कूटस्थ में आत्मा का ध्यान करते करते आत्मा में निष्ठा रख तन में हो
जाते हैं। यही ज्ञान दीपित आत्म संयम
है। तब इंद्रियों के साथ
सांस की गति नेत्र गोलक की गति भी स्थिर हो जाती है। यत्न करने वाले साधक यति कहलाते हैं। पुण्य स्थान में द्रव्य विनियोग द्रव्य
यज्ञ है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश,दिक्, आत्मा, काल और मन यह नौ प्रकार के द्रव्य हैं;मूलाधार आदि 6 चक्र पुण्य स्थान हैं ।कूटस्थ में वायु को आकर्षित कर मन में मंत्र संयोग से प्रत्येक चक्र
में नियोग किया जाता है। फिर सभी द्रव्यों का सार,सहस्त्रार से प्रवाहित होने
वाले अमृत को वैश्वानर में अर्पण किया
जाता है, यही द्रव्य यज्ञ है द्वन्द
विभिन्न यज्ञ के बाद साधक तपोलोक आज्ञा
चक्र में उठकर चित्त की चंचलता को नष्ट कर करते हैं, यही तपो यज्ञ है । चित्त का विक्षेप भाव नष्ट होने पर
साधक स्थिर भाव से स्वरूप को लक्ष्य करते हैं । केवल दृश्य-दृष्टा का द्वन्द रहता
है, यही योग यज्ञ है
।इस अवस्था में प्रणव, गायत्री मंत्र, ऋग्वेद, अशरीरी वाणी से स्वतः
उच्चारित होते हैं जिसे स्वाध्याय यज्ञ कहते हैं ।स्वाध्याय= सु (सुन्दर); व (स्वरुप) आ = प्रकृति; साधक+ अध्याय= आलोचना
। त्वम् रूपी साधक तत रूपी ईश्वर के( स्व स्वरुप के) आमने सामने होने से
ही उत्थान होता है। स्वाध्याय यज्ञ की समाप्ति तक अविरल प्रणव नाथ सुनाई देता है ।समाहित अवस्था के बाद सर्वत्र ब्रह्म
दृष्टि होने पर ज्ञान यज्ञ होता रहता है ।
अपाने
जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती
रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।4.29।। अन्य (योगीजन)
अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, तथा
प्राण में अपान की आहुति देते हैं, प्राण
और अपान की गति को रोककर, वे प्राणायाम के ही
समलक्ष्य समझने वाले होते हैं ।।
तात्विक
व्याख्या 29-मूलाधार में अपान, आज्ञा चक्र में प्राण है अपान नीचे की ओर, प्राण ऊपर की ओर गति
करता है । अपान चंचल, प्राण स्थित है । मेरु में दोनों गतिशील रहते
हैं ।कभी एक कभी दूसरे को
खींचने के लिए निश्वास-प्रश्वास चलता रहता है । जिस क्षण अपान से प्राण हार जाता है, उसी क्षण देह त्याग हो जाता है
। दोनों की गति का रोध प्राणायाम है ।गतिरोध होने पर निश्वास-प्रश्वास नहीं रहता ।यही है वायु भोजन; प्राणायाम परायण
साधक इसे अनुभव करता है ।कूटरूपा प्रकृति के गर्भ में रह कर स्थिर वायु द्वारा ‘प्राणान प्राणेषु
जुह्यति’ अवस्था का अनुभव
होता है इसे भुक्तभोगी साधक समझते हैं ।
अपरे
नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते
यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।4.30।।दूसरे नियमित
आहार करने वाले (साधक जन) प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सभी यज्ञ को
जानने वाले हैं, जिनके पाप यज्ञ के द्वारा नष्ट
हो चुके हैं।।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं
लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतो़ऽन्यः कुरुसत्तम।।4.31।।हे
कुरुश्रेष्ठ ! यज्ञ के अवशिष्ट अमृत को भोगने वाले पुरुष सनातन ब्रह्म को प्राप्त
होते हैं। यज्ञ रहित पुरुष को यह लोक भी नहीं मिलता, फिर
परलोक कैसे मिलेगा?
एवं
बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि
तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।4.32।।
ऐसे अनेक प्रकार के यज्ञों का ब्रह्मा के मुख अर्थात् वेदों में प्रसार है अर्थात्
वर्णित हैं। उन सब को कर्मों से उत्पन्न हुए जानो; इस
प्रकार जानकर तुम मुक्त हो जाओगे।।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं
कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।4.33।।
हे परन्तप ! द्रव्यों से सम्पन्न होने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है।
हे पार्थ ! सम्पूर्ण अखिल कर्म ज्ञान में समाप्त होते हैं, अर्थात् ज्ञान उनकी पराकाष्ठा है।।
तद्विद्धि
प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति
ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।
उस (ज्ञान) को (गुरु के समीप जाकर) साष्टांग प्रणिपात, प्रश्न तथा सेवा करके जानो; ये तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुष तुम्हें ज्ञान का उपदेश
करेंगे।।
तात्विक व्याख्या30 –34- यज्ञ से चित्त शुद्धि होती है ।
विशुद्ध चित्त में विषय की छाप नहीं
पड़ती । समाधि में स्थिति
होने पर, ज्ञान रूप अमृत हृदय
को परिपूर्ण कर अमर पद, अनंत ब्रह्मका अनुभव प्राप्त होता है । जो आत्मा को नहीं खोजते, उनका चित्त मलिन
रहता है । अनित्य संसार को वे सत्य मानते हैं ।आत्मज्योति का दर्शन प्राप्त नहीं होने
से उनका इहलोक अशान्तिमय रहता है । अतः हे साधक ! यज्ञ का अनुष्ठान करो तुम कुरुसत्तम अर्थात समर्थ वान हो
।साधक पुरुषोत्तम हो जाता है ।मूलाधार में चतुर्भुज ब्रह्म त्रिकोण
आकार योनि स्थान के मध्य में सुषुम्ना का मुख है । यही ब्रह्मा जी का मुख है यही वेद माता
गायत्री है ऐसा दर्शन होता है । प्रिय योग के अभ्यास से इस तथ्य को जानने पर मुक्ति लाभ होता है
। ज्ञान यज्ञ संपन्न होने पर द्रव्य यज्ञ
की आवश्यकता नहीं रहती ।ज्ञान से मुक्ति सहज प्राप्त होती है । ज्ञान पाने का स्थूल उपाय है तत्वदर्शी
गुरु को दंडवत प्रणाम कर प्रसन्न करना उनका उपदेश ग्रहण करना ।कूट में गुरु की धारणा कर प्राणवायु को
प्राणायाम से नियमित कर प्रणव जप करते हुए मन ही मन प्रश्न करना सूक्ष्म उपाय है
। उपाय से गुरु लोग दर्शन देकर तत्वज्ञान
प्रकाशित करते हैं अन्तर्हित हो जाते हैं । साधक को अशरीरी वाणी सुनाई देती है, सांकेतिक दृश्य,या लिखित भाषा पढ़ कर ज्ञान
का अनुभव होता है ।श्रवण, दर्शन, बोधन से ज्ञानावस्था निजबोध से आती है। सारी प्रकृति सेमूक संवाद स्थापित हो
जाता है और भोग-योग दोनों में
ईश्वरीय लीला का अनुभव होता है ।
यज्ज्ञात्वा
न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन
भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।4.35।।
जिसको जानकर तुम पुन इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगे, और हे पाण्डव ! जिसके द्वारा तुम भूतमात्र को अपने
आत्मस्वरूप में तथा मुझमें भी देखोगे।।
अपि
चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं
ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।।4.36।।
यदि तुम सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाले हो, तो
भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा, निश्चय ही सम्पूर्ण
पापों का तुम संतरण कर जाओगे।।
यथैधांसि
समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः
सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4.37।। जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईन्धन को भस्मसात् कर
देती है, वैसे ही, हे
अर्जुन ! ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्मसात् कर देती है।।
न
हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं
योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।4.38।।
इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला, निसंदेह, कुछ भी नहीं है। योग में संसिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे
(उचित) काल में आत्मा में प्राप्त करता है।।
श्रद्धावाँल्लभते
ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं
लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4.39।।
श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष
ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त
होता है।।
तात्विक व्याख्या 35-39- तत्वज्ञान समझ में आ जाने पर मैं मेरा
का भ्रम मिट जाता है ।आत्मा और अहं एक हो जाता है। सब जगह तत त्वम् असि का
अनुभव होता है ।मुमुक्षु के लिए सत्कर्म भी बंधन है ।कर्म बंधन ही पाप है। अंतः करण में स्थिति होने पर कर्म का
स्पर्श नहीं होता यानी सहस्त्रार में
चेतना रखकर कर्म से परे रहते हैं ।उस अवस्था से उतरने पर भी ज्ञान,साधक कर्म बंधन से मुक्त रखता है। कर्म के तीन रूप हैं---प्रारब्ध कर्म जिसका फल यह
शरीर है; संचित कर्म जिसका फल भोग अभी बाकी है;भावी कर्म जो भविष्य में
किए जाएंगे ।अग्नि जैसे लकड़ी से जल और वायु को निकाल देती है केवल पृथ्वी अंश के
रूप में बचता है, वैसे ही ज्ञान की अग्नि संचित कर्म को महा आकाश में मिला देती है
।भावी कर्म कमल दल की तरह कर्म करने वाले
को नहीं छूते; प्रारब्ध भस्म हो
जाता है; सर्व सिद्धि होने से
जीवन मरण ज्ञानी की इच्छा के अधीन हो जाते हैं । ज्ञान मूल चेतन प्रकृति है
। ब्रह्म के स्वरूप का विकास है
। विकास में विकार आते ही 24 तत्वों की उत्पत्ति होती है । इसलिए ज्ञान ही पवित्र है । तपस्या से चित्त शुद्ध होता है परंतु ज्ञान यज्ञ ना होने पर ब्रह्मविद
नहीं हो सकते ।कर्म योग में सिद्धि ना मिलने पर ज्ञान योग का अधिकार नहीं मिलता ।क्रिया योग अभ्यास से कूटस्थ में स्थित
होने पर, मन ज्ञान में स्वतः
आकृष्ट हो जाता है । मन के संकल्प बीज नष्ट हो जाते हैं, पूर्ण ज्ञान उदय होता है
।सहस्त्रार में चेतना स्थापित करने पर, तीन प्रकार की मनोमय अवस्था होती है—श्रद्धावान, तत्पर, संयतेन्द्रिय ।श्रद्धा—श्रत= विश्वास (विगतश्वास)+ धा= धारण करना । श्वांस की क्रिया से मन को उठा कर अंदर लाना श्रद्धा है ।इस अवस्था में साधक श्रद्धा वान होते
हैं । इसके बाद अति
सूक्ष्म दर्शन, श्रवण, मनन होते हैं जिनको
एकाग्र करके बिंदु,नाद में रत रहना पड़ता है यही है तत्पर अवस्था ।दर्शन, श्रवण, मनन तीनों एक हो जाते हैं यही अतिंद्रीय अवस्था है । अब ज्ञान लाभ होता है अहम् भी जानमय हो
जाता है तभी पराशन्ति केवल ब्राह्मी स्थिति की प्राप्ति होती है
।
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च
संशयात्मा विनश्यति।
नायं
लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।4.40।।
अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है, (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये
न यह लोक है, न परलोक और न सुख।।
योगसंन्यस्तकर्माणं
ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं
न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।4.41।। जिसने योगद्वारा
कर्मों का संन्यास किया है, ज्ञानद्वारा जिसके
संशय नष्ट हो गये हैं, ऐसे आत्मवान् पुरुष
को, हे धनंजय ! कर्म नहीं बांधते हैं।।
तस्मादज्ञानसंभूतं
हृत्स्थं ज्ञानासिनाऽऽत्मनः।
छित्त्वैनं
संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।4.42।। इसलिये अपने
हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न आत्मविषयक संशय को ज्ञान खड्ग से काटकर, हे भारत ! योग का आश्रय लेकर खड़े हो जाओ।।
तात्विक व्याख्या40-42-जो क्रिया योग का अभ्यास नहीं करते वे
सभी अज्ञ हैं।जो श्रद्धावानअवस्था का अनुभव नहीं कर सकता वहीं संशय आत्मा है। अज्ञान अंधकार में ढके वह
संसार में चक्कर लगाते रहते हैं ।प्राणायाम नामक कर्म
योग से प्राणायाम रूपी कर्म करना, ज्ञान योग द्वारा भेदभाव को नष्ट करना,प्रारब्ध भोग करते हुए भी कर्म बंधन से मुक्त रहना है ।ऐसा जागृत कर्म का अभ्यास नहीं करने के कारण तुम ज्ञान को नहीं पा
सके ।अज्ञानता के कारण तुम्हें स्वरूप व सामर्थ्य के विषय में संशय हुआ था । परंतु अब तो समझ गए हो । अतः संशय को त्याग
दो
। यह तुम्हारे हाथ में है कोई दूसरा यह
नहीं कर सकता ।लक्ष्य भेद तुम्हे स्वयं ही करना है । अब संशय और आलस्य से ऊपर उठकर क्रिया योग का अभ्यास करो ।
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