अध्याय 10
श्री
भगवानुवाच
भूय
एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं
प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।10.1।।
श्रीभगवान् ने कहा -- हे महाबाहो ! पुन: तुम मेरे परम वचनों का श्रवण करो, जो मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिये हित की
इच्छा से कहूँगा।।
न
मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि
देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।10.2।। मेरी उत्पत्ति
(प्रभव) को न देवतागण जानते हैं और न महर्षिजन; क्योंकि
मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ।।
यो
मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्
असम्मूढः
स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।10.3।।
जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर
के रूप में जानता है, र्मत्य मनुष्यों
में ऐसा संमोहरहित (ज्ञानी) पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है।।
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं
दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।10.4।। बुद्धि, ज्ञान, मोह
का अभाव, क्षमा, सत्य, दम (इन्द्रिय संयम), शम
(मन: संयम), सुख, दु:ख, जन्म और मृत्यु, भय और अभय।।
अहिंसा
समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति
भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।10.5।।
अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान. यश और अपयश
ऐसे ये प्राणियों के नानाविध भाव मुझ से ही प्रकट होते हैं।।
तात्विकव्याख्या 1-5
जगत प्रपंच के
वेत्ता
त्रिकालज्ञ होते हैं, उन्हें महर्षि
कहते हैं ।महर्षि सदा जगत के कल्याण में तत्पर रहने के कारण निर्विकल्प समाधि में अनुभव
होने वाले मूल स्त्रोत मैं में स्थित नहीं रहते । देवता भी इंद्रिय भोग में रत रहने
के कारण मूल मैं से परे रहते हैं ।शुद्ध मैं आदि अंत रहित है। कर्मक्षय
होने
के साथ कर्मी मैं के निकट आता जाता है। शुद्ध मैं अजन्मा रहता है। बुद्धि वह शक्ति
है जो सत् असत् का भेद निश्चित करती है। विचार के बाद बुद्धि जिसे निश्चित करती है
उसे ज्ञान कहते हैं। असंमोह= अ- नास्त्यर्थ +सं=समर्थक+मोह =अविद्या। वृत्ति जिस अवस्था में सम्यक मिट जाती
है उसे असंमोह अवस्था कहते हैं। क्षमा= दूसरे
से पूजित या तिरस्कृत होकर प्रतिकार की शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करना क्षमा कहलाता
है ।कपट रहित होकर परोपकार करना सत्य है। दम =इंद्रियों का नियंत्रण शम= अंतः करण का निग्रह ; सुख=सु - सुंदर,खं- शून्य, उद्वेग रहित अवस्था। दुख =सुख का विपरीत। भव= जन्म; अभाव= मरण, भय= मृत्यु आशंका का उद्वेग। अभय =भय का विपरीत; अहिंसा= प्राणियों को पीड़ा ना देना। समता= राग द्वेष आदि द्वंदों का अभाव। तुष्टि= संतोष। तप= माया विकार को ज्ञान अग्नि से भस्म
करने की चेष्टा। दान= न्याय से अर्जित संपत्ति को सत पात्र को देना ।साधक ब्रह्म स्वरूप होकर भी अहंकारवश 5 विषयों को ग्रहण करता है यही साधक का न्याय अर्जित
धन है । यह धन परिणामी होने के कारण असत् है ।इसे परम ब्रह्म में समर्पण करना दान है।
सभी अवस्था, क्रिया में ब्रह्म दर्शन करना दान है। यश =धर्म से प्राप्त कीर्ति , अपयश= अधर्म
से प्राप्त कीर्ति। यह सभी अंतः करण में रहते हैं अतः भूत भाव कहलाते हैं, भूतभाव आत्म भाव से विपरीत अवस्था है।
महर्षयः
सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा
मद्भावा
मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।10.6।।
सात महर्षिजन, पूर्वकाल के चार (सनकादि) तथा
(चौदह) मनु ये मेरे प्रभाव वाले मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार (लोक) में यह प्रजा है।।
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन
योगेन युज्यते नात्र संशयः।।10.7।। जो पुरुष इस
मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानता है, वह
पुरुष अविकम्प योग (अर्थात् निश्चल ध्यान योग) से युक्त हो जाता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।।
अहं
सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति
मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।10.8।।
मैं ही सबका प्रभव स्थान हूँ; मुझसे ही सब (जगत्)
विकास को प्राप्त होता है, इस प्रकार जानकर
बुधजन भक्ति भाव से युक्त होकर मुझे ही भजते हैं।।
मच्चित्ता
मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च
मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।10.9।।
मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों (इन्द्रियों) को अर्पित
करने वाले भक्तजन, सदैव परस्पर मेरा
बोध कराते हुए, मेरे ही विषय में कथन करते हुए
सन्तुष्ट होते हैं और रमते हैं।।
तेषां
सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि
बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।10.10।।
उन (मुझ से) नित्य युक्त हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को, मैं वह 'बुद्धियोग' देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं।।
तात्विकव्याख्या 6-10माया में उपहित चैतन्य ईश्वर को महत् कहते
हैं। महत् पद प्राप्त करने वाला साधक महर्षि होता है। वर्तमान वैवस्वत मन्वंतर में 7 जनों ने महर्षि पद प्राप्त किया है -मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ। इनसे पहले चार जनों ने यह पद प्राप्त किया
था -सनक, सनंदन, सनत् कुमार ,सनातन। मनु 14 है
-स्वयंभू, स्वरोचिश,
उत्तम,
तामस,
रैवत,
चाक्षुष,
वैवस्वत,
सावर्णि,
दक्ष
सावर्णि, ब्रह्म सावर्णि,
धर्म
सावर्णि रूद्र सावर्णि, देवसावर्णि,
इंद्रसावर्णि ।यह सब हमारे मन के आवेग की कल्पना से
प्रसूत हैं। भाव अवस्था में मानस नामक विशेष वृत्ति से इनकी उत्पत्ति हुई है। ये लोग
मद्भाव विशिष्ट अर्थात वैष्णवी( विश्वव्यापी )सामर्थ्य युक्त हैं ,प्रजापति हैं। जिनसे जगत में दृश्यमान प्रजा का
विस्तार हुआ है। विभूति= विशेष तत्व ।विभूति
समेटकर मैं होना योग है। जो तत्व ज्ञानी दोनों अवस्थाओं को देखते हैं- सृष्टि और प्रलय, भोगों में लालसा से निवृत हैं, वही
संशयशून्य कैवल्य अवस्था प्राप्त करते हैं। अहं अर्थात् परमात्मा, सर्व अर्थात सृष्टि प्रक्रम, बुध अर्थात सूर्य के सबसे अधिक निकट रहने वाला, महा प्रकाश के पास सदा रहने वाला। साधक ज्ञान पाकर आत्मभावरत रहते हैं । प्रलय काल में
चित्त नहीं रहता, सब मैं में लीन हो जाता है। क्रिया नहीं
रहती, द्वैत भाव नहीं रहता। पुरुष - प्रकृति एक होकर भ्रमण करते हैं। सर्वदा ब्रह्मानंद
भोगने वाले, प्रेमवश मै को नहीं छोड़ना चाहते, भजते रहते हैं , उनकी बुद्धि मैं में लीन हो जाती है। वह परमात्मा के साथ एकाकार हो जाते
हैं।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं
तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो
ज्ञानदीपेन भास्वता।।10.11।। उनके ऊपर
अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा
नष्ट करता हूँ।।
अर्जुन उवाच
परं
ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं
शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।10.12।।
अर्जुन ने कहा आप -परम ब्रह्म, परम धाम और परम
पवित्र हंै; सनातन दिव्य पुरुष, देवों के भी आदि देव, जन्म
रहित और सर्वव्यापी हैं।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो
देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।10.13।।
ऐसा आपको समस्त ऋषिजन कहते हैं; वैसे ही देवर्षि
नारद, असित, देवल ऋषि तथा व्यास
और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।।
सर्वमेतदृतं
मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न
हि ते भगवन् व्यक्ितं विदुर्देवा न दानवाः।।10.14।।हे
केशव ! जो कुछ भी आप मेरे प्रति कहते हैं, इस
सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्, आपके
(वास्तविक) स्वरूप को न देवता जानते हैं और न दानव।।
स्वयमेवात्मनाऽत्मानं
वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन
भूतेश देवदेव जगत्पते।।10.15।। हे पुरुषोत्तम ! हे भूतभावन ! हे भूतेश ! हे
देवों के देव ! हे जगत् के स्वामी ! आप स्वयं ही अपने आप को जानते हैं।।
तात्विकव्याख्या 11-15 साधकों का अज्ञान से उत्पन्न माया विकार
मैं की कृपा से ही नष्ट होता है, क्योंकि
आत्म भाव में स्थित होने पर आत्मा की ज्योति से अंतः करण ज्योतिर्मय हो जाता है। जो
विद्या भवसागर से पार ले जाती है वह परं कहलाती है ब्रह्मविद ही इसे समझते हैं। अवधि
रहित महान को ब्रह्म कहते हैं ।यह भी आत्मा की एक अवस्था है। पार ले जाने वाली विद्या
के विश्राम स्थान को परमधाम कहते हैं जो ब्रह्मानंद भोग अवस्था है ।पवित्रम
अर्थात ग्लानि शून्य अवस्था ।परमं अर्थात ब्रह्मा जी की आयु ऐवसमाप्त होने के बाद(कल्पक्षय) के विश्राम स्थान को ,यह भी अवस्था है। जो मायामय् पुर में शयन करता है
वही पुरुष है । शाश्वतं अर्थात अविनाशी, दिव्यं अर्थात आकाश के समान स्वरूप वाला जैसे आकाश को पकड़ा नहीं जा सकता, दिव्य अवस्था को भी पकड़ा नहीं जा सकता। आदिदेव अर्थात
जहां से आरंभ होता है,अजं अर्थात जो कभी जन्म ले, विभु अर्थात सर्वमूर्त सर्वव्यापी, भवान अर्थात जिसमें सभी अवस्थाएं प्रतिष्ठित हैं।
ऋषि अवस्था अर्थात जिस अवस्था में कारण, मूर्ति, अर्थ के साथ प्रत्येक शब्द का परिज्ञान होता है।
सर्वे अर्थात समस्त ऋषि गण,
देवर्षि नारद अर्थात नार+द। अर्थात विष्णु + दान; अर्थात
जो विष्णु से मिला दे वही नारद है । असित=अ+ सित ; अ=नास्ति,
सित=बद्ध; जो बद्ध
नहीं है वही असित है। मुक्त अवस्था ही असित अवस्था है। देवल= देव+ल; देव
अर्थात देवता; ला अर्थात पृथ्वी का बीज मंत्र, अंतः करण का पार्थिव
देवता के साथ खेल या साकार उपासना देवल अवस्था है। व्यास अर्थात भेद ज्ञान, वेदरूप ज्ञान को जीव जगत के कल्याण के लिए( चार वेद एवं पुराण )मुक्ति मार्ग सुलभ कराने वाली अवस्था ।स्वयं अर्थात
क्रिया की परा अवस्था । केशव =क+ईश+व;
क अर्थात
ब्रह्मा ,सृष्टिकर्ता; ईश अर्थात संहार कर्ता;व=शून्य।
अर्थात सृष्टि, संहार शून्य निस्तरंग अवस्था केशव है ।
भूतभावन अर्थात भूतों का भरण पोषण करने वाला। भूतेष
अर्थात भूतों के नियंता; देव देव अर्थात देवताओं के देव; जगत्पति अर्थात जगत के स्वामी , पुरुषोत्तम अर्थात प्राकृतिक आवरण को पुर कहते हैं
।पुर में सबसे ऊंची अवस्था पुरुषोत्तम है। यह सब तुम ही हो! हरि! हरि! तुम ही मैं हूं! अतः आप ही ज्ञाता, ज्ञान,ज्ञेय हैं।
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या
ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं
व्याप्य तिष्ठसि।।10.16।। आप ही उन अपनी
दिव्य विभूतियों को अशेषत: कहने के लिए योग्य हैं, जिन
विभूतियों के द्वारा इन समस्त लोकों को आप व्याप्त करके स्थित हैं।।
कथं
विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु
केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।10.17।। हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार निरन्तर चिन्तन
करता हुआ आपको जानूँ, और हे भगवन् ! आप
किनकिन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं।।
विस्तरेणात्मनो
योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः
कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।10.18।। हे जनार्दन ! अपनी योग शक्ति और विभूति को पुन:
विस्तारपूर्वक कहिए, क्योंकि आपके
अमृतमय वचनों को सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं होती।।
श्री भगवानुवाच
हन्त
ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः
कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।10.19
।। श्रीभगवान् ने कहा -हन्त अब मैं तुम्हें अपनी दिव्य विभूतियों को प्रधानता से
कहूँगा। हे कुरुश्रेष्ठ मेरे विस्तार का अन्त नहीं है।।
अहमात्मा
गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च
मध्यं च भूतानामन्त एव च।।10.20।। हे गुडाकेश
(निद्राजित्) ! मैं समस्त भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण
भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।। तात्विक व्याख्या 16-20
कैवल्य भाव से नीचे आने के बाद साधक उस
आनंद के नशे में रहकर प्रार्थना करता है- हे प्रभु
आपकी आकाश व्यापी विभूति को विस्तार से अभिव्यक्त कीजिए! प्रत्येक वस्तु की प्रत्येक अवस्था को अपने अंतःकरण
की अवस्था से मिलाने का प्रयास साधक करता है। जब तक चित्त भाव है योगी भाव नहीं आता।
अतः साधक प्रश्न करता है तुम किस किस भाव में मेरे चिंतन का विषय हो? शुद्ध आत्मा स्वयं ज्योति स्वरूप, अविकारी, निराकार
योग अवस्था के ऐश्वर्य को मुझ से कहिए । उस अवस्था को भोग करके मेरी तृप्ति ही नहीं
होती । भगवद चेतना का उत्तर है- कुरु
श्रेष्ठ !जो साधक आज्ञा चक्र तक चेतना
को उन्नत कर चुके हैं, आत्माचारी हैं ,दर्शन, श्रवण, मनन करते हैं, वही कुरु श्रेष्ठ हैं। दिव्य आत्म ऐश्वर्य का अंत नहीं है तथापि आंशिक वर्णन करते हैं। गुडाकेश
अर्थात गुडा का अर्थात निद्रा का ईश अर्थात नियंता। जिसने निद्रा पर विजय प्राप्त कर
ली है जिस साधक को निद्रा आक्रमण नहीं कर सकती वह गुडाकेश
है।अहम
अर्थात आत्मा सर्व भूतों का अधिपति, आशय
अर्थात निवास स्थान, सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति,प्रलय
आत्मा से ही होती है।
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां
रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि
नक्षत्राणामहं शशी।।10.21।।
मैं (बारह) आदित्यों में विष्णु और ज्योतियों में अंशुमान् सूर्य हूँ; मैं (उनचास) मरुतों (वायु देवताओं) में मरीचि हूँ और
नक्षत्रों में शशी (चन्द्रमा) हूँ।।
वेदानां सामवेदोऽस्मि
देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां
मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।10.22।।
मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों
में वासव (इन्द्र) हूँ; मैं
इन्द्रियों में मन और भूतप्राणियों में चेतना (ज्ञानशक्ति) हूँ।।
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि
वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां
पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।10.23।।मैं
(ग्यारह) रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धनपति कुबेर (वित्तेश)
हूँ; (आठ) वसुओं में अग्नि हूँ तथा
शिखर वाले पर्वतों में मेरु हूँ।।
तात्विक व्याख्या 21-23
आदित्य अर्थात जिसमें अभाव पूर्ण होता है, चैतन्य ज्योति प्रकाशित होती है। शांभवी मुद्रा
का प्रयोग करने से इस आदित्य का 12वां
अंश दिखता है। 12 आदित्य हैं- भग, अंश, अर्य्यमा, मित्रावरुण, सविता ,धाता, विवस्वान, त्वष्टा, पूषा, इंद्र, विष्णु ।इन सब में विष्णु ही हिरयमय, गले हुए सोने की तरह सुनहरा प्रकाश है ।इसे
ही हिरण्यश्मशु, हिरण्य केश कहते हैं। जिसके नख से शिख तक स्वर्ण वर्ण है
वहीं वह है ।अंशुमाली रवि ( रं अर्थात प्रकाश, व अर्थात शून्य, ई अर्थात शक्ति। कुल मिलाकर मतलब हुआ शून्य मय प्रकाश शक्ति)। मरुत अर्थात मृ+उत, = जो कुपित
होने पर मृत्यु से मिला देता है । मारुतों के भीतर मरीचि अर्थात प्राण मैं हूं ।नक्षत्र अर्थात
जिसका कभी क्षय नहीं होता। अमृत, शशि में प्रतिष्ठित है इसीलिए मैं शशि हूं।
वेद अर्थात ज्ञान, वेदों में साम, संधि, माया, ब्रह्म का संयोग है इसकी स्थिति आज्ञा चक्र है ।यहां स्थिरता व चंचलता
का समावेश है। यही ज्ञान का पूर्ण विकास है, इसलिए
वेदों में, मैं सामवेद हूं। वासव=वस+अव, जो स्वर्ग में वास करता है वही वासव है।सर्व अर्थात
स्तर जो दो हैं -बद्ध तथा मुक्त। चित्त के नीचे त्रिगुण
की प्रबलता से बद्ध जीव भाव है। ऊपर ज्ञान की प्रबलता से मुक्ति भाव है। चित के ऊपर
भी दो भाव हैं--एक चित्त और विवस्वान के मध्य दूसरा विवस्वान
के ऊपर।चित्त के ऊपर वशी लोगों का निवास है- कोई
चित्त वशी ,कोई प्रकृति वशी, कोई माया वशी। यह सभी अपनी इच्छा शक्ति का प्रयोग
करने में सक्षम है परंतु जीव की तरह बद्ध नहीं है। आज्ञा चक्र के ऊपर कर्म विहीन अवस्था
देव अवस्था है। देव अवस्था में मैं का पूर्ण विकास है अतः देवताओं में मैं वासव हूं।11 इंद्रियां है 5 ज्ञानेंद्रियां पांच कर्मेंद्रियां और एक मन मन अर्थात म+न। मां अर्थात में ना अर्थात नहीं ।मन को खोजना
है। इंद्रिय अर्थात इ+न्द्र+इ+य। इ अर्थात शक्ति, न्द्र अर्थात अग्नि, य अर्थात स्वरूप। शक्ति अग्नि का स्वरूप है
जो अग्नि
में मिल जाए वह अग्नि हो जाता है। अग्नि जिसमें लगती है उसे पहले आलोकित करती है फिर
ताप से उसे जलाती है फिर भस्म कर देती है।इंद्रिय की शक्ति में जो विषय आता है पहले
वह अंतर में प्रकाशित होता है फिर ताप या जलन का अनुभव होता है फिर उस विषय का एक संस्कार
मात्र रह जाता है। इंद्रिय के अंदर एक अंश अग्नि का कार्य दूसरा अंश शक्ति है। यही सुख दुख, आधि व्याधि, जरा
मरण भोग करवाता है। शक्ति ना ग्रहण करती है ना त्याग। शक्ति स्वरूप में नहीं है, 'मैं नहीं' ही मन
कहा जाता है।भूतानाम अस्मि चेतना--भूत
अर्थात पांच महा तत्व। चेतना अर्थात चेत्+अ+ना।येत्=यदि
या अनिश्चित। अ=असत यानि अस्ति, जायते, वर्धते, विपरिणमते,अपक्षीयते,विनश्यति।6विकार
युक्त।ना=नहीं। अनिश्चित 6 विकार युक्त, जो नहीं है वही चेतना है मैं हूं। रूद्र 11 है-अज, एक पाद, अहिव्रहन, पिनाकी, ऋत, पितृ रूप, त्रयंबक, वृषा कपि, शंभू, हवन, ईश्वर। 6 कमल दल में साधक का जब वर्ण परिचय होता है तब साधक
द,य, प,उ इन 4 का दर्शन
करते हैं। द मूलाधार और स्वाधिष्ठान के बीच, य अनाहत
चक्र में ,प विशुद्ध चक्र के ऊपर आज्ञा चक्र के नीचे, गर्दन और मस्तक की संधि में, उ सहस्त्रार में है।
रुद्र अर्थात र+उ+द्+र। र
अग्नि बीज,उ सहस्त्रार (क्षमा),द कानपुर
में (योनि), जिसमें काम अग्नि और क्षमा अग्नि पूर्ण भाव से प्रकाशित है वही रुद्र
है। शंकर अर्थात शं+कर। जो केवल मंगल करने वाला है वह मैंहूं।वित्त
अर्थात पालिनी शक्ति जो 4
अंशों में विभक्त होकर पहला अंश पृथ्वी
में, दूसरा जल में ,तीसरा अग्नि में ,चौथा साधु पुरुष में, प्रकाशित
होता है। इसी शक्ति के नाम हैं--पदमा, लक्ष्मी, भूति, श्री, श्रद्धा, मेधा, सन्नति ,विजिति, स्थिति, धृति, सिद्धि, स्वाहा, स्वधा, नियति ,स्मृति।जगत
में भला बुरा जो देखोगे वही मोहित करेगा। यह मोहिनी शक्ति ही विष्णु माया है जो सब
के अंदर रहकर सब को प्रकाशित करती है। इसका आना जाना किसी की समझ में नहीं आता, दिखाई नहीं देता ,इसलिए इसे अलकापुरी की अधिष्ठात्री देवी कहते हैं ।परमाणु से लेकर माया
पर्यंत जितने पुर हैं यह सत्वगुणी शक्ति सभी पुरों की भूषण स्वरूपा है।अल्-भूषित करना!दिक्पाल=दिक्=जिन्हें
निर्णय में लाया जा सकता है उन सब का पालन कर्ता, कुबेर इस देवी के रक्षक हैं। कुबेर का नाम वित्तेश है। माया का यह खेल
मेरे भीतर होता है अतः मैं वित्तेश हूं।वसूनाम पावकश्चास्मि=बसु कहते हैं प्रकाशक को जो अपने तेज से दूसरों
को प्रकाशित तेजस्वी करते हैं। आठ वसु है--भव, ध्रुव, सोम, विष्णु, अनल, अनिल, प्रत्यूष, प्रभव । अग्नि सब को पवित्र करती है ईश्वर में सब
पवित्र होते हैं इसलिए मैं पावक हूं।मेरु शिखरिणंहम=शिखर अर्थात ऊंचा स्थान। मेरु सबसे ऊपर का स्थान
है। साधना में अनुभव से पता चलता है कि माया के अंश में विवस्वान के ऊपर मैं हूं।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि
पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं
स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।10.24।।हे
पार्थ ! पुरोहितों में मुझे बृहस्पति जानो; मैं
सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र हूँ।।
तात्विक व्याख्या 24पुरोधस
अर्थात पुरोहित। पहले से जो धारण कर रहे हैं केवल क्षत्रिय बल से कार्य सिद्धि नहीं होती
क्षत्रिय बल के साथ ब्रह्म बल चाहिए। राजाओं के रक्षक पुरोहित हैं। जो धारण कर रहे
हैं वह माया को ही धारण कर रहे हैं। माया ही बृहत है ।बृहत के
पति बृहस्पति हैं ।राजा जनक ने ब्रह्म ज्ञान होने पर कहा --"मैं क्या आश्चर्य हूं मैं अपने आपको नमस्कार
करता हूं मेरे समान कोई भी नहीं है । इस शरीर के साथ छुआछूत ना रख कर भी मैं शरीर रूपी
विष को चिर काल से धारण कर रहा हूं !" इसलिए पुरोहितों में बृहस्पति में हूं।
सेनानीनामहं स्कंद:--जो जन्म ले चुके वे सेना है। जो मैं और मेरे को
लेकर लड़ते हैं ; लड़ाई का परिचालक वासना है। वास होता है
योनि में अर्थात स्थिति के स्थान में, जिसका
स्थिति का स्थान भी नहीं है वही वासना है :वासना
ही सैनानी है।स्कन्द:=स्+क+न्+द+:(स)। हलंत के साथ स युक्त होकर अर्द्ध स्फुरण दिखाता
है। सा अर्थात सूक्ष्म श्वास, का अर्थात
मस्तक, ना अर्थात नास्ति, द अर्थात योनि। सूक्ष्म शॉप्स अति सूक्ष्म होकर
मस्तक में शून्य योनि होकर मुक्त रहता है। वासना नीचे दिशा में ना जा कर सभी कंपन त्याग
कर के एकाग्र भाग से मुक्ति को लक्ष्य करती है यही अवस्था स्कंद: है।सरसामस्मि सागर:=स+र++स+आ। स
अर्थात सूक्ष्म समास, र अर्थात प्रकाश,आ अर्थात आसक्ति।सूक्ष्म श्वास का प्रकाश दिखने
से सूक्ष्म श्वास में आसक्ति हो जाती है यही आसक्ति सागर में परिणत हो जाती है ।सागर
अर्थात सा+गर। गर अर्थात विष। आसक्ति विष की तरह विस्तार
लेती है। श्वास सूक्ष्म होकर अनुभव में आने वाला सूक्ष्म तत्व ही अस्मि अर्थात में
हूं ।बाहरी जगत में सागर असीम अनंत है सागर ही विभूति का पूर्ण विकास है।
महर्षीणां भृगुरहं
गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां
जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।10.25।।मैं
महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ। मैं यज्ञों में
जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ।। अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च
नारदः।
तात्विकव्याख्या 25
भृगु:=भृ+गु=भरण करना+अंधकार। भृगु
अज्ञानी असुरों का पालन करते हैं; ब्रह्म ज्ञान के पास कर्मकांड का आश्रय लेकर भी भ्रगु कभी
ब्रह्म ज्ञान से पृथक नहीं रहते। भृगु के कर्मकांड एवं ज्ञान कांड दोनों रहने से
महर्षियों में मैं भृगु हूं।गिरा अर्थात वाक्य वाक्यों में एक अक्षर प्रणव में
हूं।
यज्ञानां
जपयज्ञोअस्मि --अजय पा
जब रूप यज्ञ में हूं इसी से ब्राह्मी स्थिति लाभ होता है अग्नि में सकल(तिल, जौ, ब्रीहि, गव्य,घृत) की
आहुति का नाम यज्ञ है। श्वास लेना और छोड़ना भी यज्ञ है। जो साधक को अभीष्ट देव के
साथ एक कर दे वह जप है। क्रिया से बाहर अंदर एक भाव आने की 'स्वयमेवात्मनात्मानं'' अवस्था ही
जप यज्ञ है वही मैं हूं।
स्थावराणां
हिमालय:= तीनों काल में जो ना हिले दुले वह स्थावर। स्था (स्थिति)+वर(श्रेष्ठ)।
जितनी प्रकार की श्रेष्ठ स्थितियां हैं उनमें मैं हिमालय हूं। हिम अर्थात शीतल, चंचलता रहित। आले अर्थात घर। जहां रहने से उत्कंठा नहीं हो।
आ=शून्य,लय=परिणाम। जो अचल, अटल, स्थिर, शांत, शीतल, परिणाम शून्य है वही हिमालय
है.
गन्धर्वाणां
चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।10.26।।मैं
समस्त वृक्षों में अश्वत्थ (पीपल) हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ; मैं गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्ध पुरुषों में कपिल
मुनि हूँ।।
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि
माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं
गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।10.27।।।।10.27।। अश्वों में अमृत से उत्पन्न हुए उच्चैश्रवा नामक
अश्व, हाथियों में ऐरावत और मनुष्यों
में राजा मुझे ही जानो.तात्विकव्याख्या 26-27अश्वत्थ:=अ(नास्ति)+श्व(दूसरे दिन का
प्रभात काल)+त्(तारना)+थ(पांच प्राण, पांच देव
तीन शक्तियां तीन बिंदु सहित कुंडली शक्ति माया)=अश्व अर्थात
जिसमें दूसरे दिन का प्रभात काल नहीं है जो चिरंतन अनादि है। अश्वत्थ अर्थात माया
से पार लगाने में जो चिरंतन, अनादि है। वृक्ष
अर्थात वृक्ष्(वेष्टन करना) +अ(नास्ति) जिसको कोई वेष्टन नहीं कर सके, जिससे कोई बड़ा नहीं सबसे बड़ा। पांच भूत पृथ्वी, जल ,अग्नि वायु, आकाश सबसे महान हैं, इन्हें
सर्व कहते हैं ।यह सभी वृक्ष हैं। किंतु पांचों भूत ब्रह्म की तुलना में नगण्य, अस्थाई, सीमा बद्ध
हैं। ब्रम्ह योनि में पांच भूत कुछ भी नहीं है। प्राकृतिक पदार्थ मेरा वेष्टन नहीं
कर सकते अतः वृक्षों के मध्य में अश्वत्थ हूं।अश्वत्थ अर्थात क्षण विध्वंसी जिसमें
क्षण भी उदय नहीं होता।देवर्षि अर्थात वे देव जिन्हें मूर्ति और अर्थ के साथ
प्रत्येक वर्ण का परिज्ञान होता है ।नारद अर्थात विष्णु से मिलाने वाला ।विष्णु अर्थात
व्यापक चैतन्य आत्मा ।ब्रह्म का उपदेश ब्रह्मविद है, 'ब्रह्मविद ब्राह्मेव भवति' ब्रह्म को
जानकर ब्रह्म हो जाते हैं अतः नारद में हूं।गंधर्वाणां
चित्ररथ:--गंध(हिंसा)+अर्व(गमन करना)। युद्ध
काल में हिंसा के लिए गमन करने वाले अर्थात क्रिया योग अभ्यास करने के बाद मायिक
विषयों पर जिनकी तीव्र अनास्था हो। गंधर्व दो प्रकार का संगीत जानते हैं मार्गी व
जातीय। वे शिक्षा देने में समर्थ हैं परंतु संगीत शास्त्र में उनका सम्यक संस्कार
नहीं है। क्रिया साधक में सप्त स्वरा नाद उठता है जो मतवाला कर देता है। साधक
उनमें से बहुत कुछ समझते हैं पर कुछ कुछ नहीं भी समझते। इस अवस्था के साधक को
गंधर्व कहते हैं।
चित्ररथ=चित्र ( विविध रंगों
का अंकन)+रथ(विश्राम के लिए उच्च स्थान जिसे इच्छा अनुसार चलाया और रोका जा सके)।
साधक जब माया से उठ जाता है माया से परे इच्छा अनुसार गति करता है तब चित्ररथ होता
है।
सिद्ध अर्थात साधना के बाद कुछ करने को बाकी
नहीं रहता साधना का फल भोग शेष रहता है वही सिद्ध अवस्था है। चित्त में वृत्ति
नहीं रहती अतः मुनि। जिसका मानस व्यापार लीन हो जाए वही मुनि ।इस अवस्था में साधक
कपिल वर्ण मंडल के मध्य आत्मा का दर्शन करते हैं। कपिल देव ने पिछले जन्म में
साधना पूरी कर देह त्याग किया था, उन्हें केवल फल भोग करना शेष था ।साधना के फल भोग के लिए उनका
पुनर्जन्म हुआ था । अतः वे जन्म सिद्ध कहलाते हैं ।मेरा जन्म नहीं है साधना की
सिद्धि भी हम में विद्यमान है अतः मैं कपिल मुनि हूं।
साधक जब ब्रह्म नारी में आवागमन करते हैं उसे समुद्र मंथन कहते हैं। ब्रह्म
नाड़ी ही क्षीरसागर है। क्रिया अभ्यास से 7 प्रकार की प्रधान वायु का उदय होता
है--प्रवाह, संवह,विवह,उद्वह,आवह,परिवह,परावह।संवह में अपान,विवह में समान,उद्वह में व्यान,आवह में उदान,परिवह में प्राण होता
है। प्राण शरीर में रहकर शरीर की रक्षा करता है , अपान प्राण को शरीर से बाहर निकालता है।
प्रत्येक श्वास में प्राण अपान का संघर्ष चलता है।क्रिया अभ्यास से संघर्ष में
विशेषता आ जाती है ।प्रत्येक कमल के प्रत्येक दल में शक्ति रूप से एक एक वायु रहती
है। मूलाधार से सहस्रार तक सामंजस्य रखने के लिए प्रत्येक कमल में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति, क्षमा नाम की मातृ
शक्तियां रहती हैं।
मूलाधार में कीर्ति सहस्त्रार में क्षमा है। क्रिया काल में जब बाहरी
आकाश की वायु शरीर में प्रवेश करती है तब मूलाधार से कीर्ति सहस्त्रार से क्षमा
गतिशील होकर आवागमन होने से मध्य की सभी शक्तियों की अवस्था बदलने लगती है। कीर्ति
जब क्षमा के स्थान पर पहुंच जाती है तब कीर्ति का गुण लुप्त हो जाता है ।क्षमा
कीर्ति के स्थान में पहुंचने से क्षमा गुण का विस्तार हो जाता है। बीच की शक्तियों
का व्यवहार पहले से विपरीत हो जाता है। संसार मुख में जो सृष्टि पालिनी थी उनके
ब्रह्म मुखी होने से, प्रत्येक कमल के प्रत्येक दल की वायु की गति विपरीत हो जाती है ।इन
शक्तियों से 14 स्वरों का आविर्भाव होता है जो निरंतर ऊंची दिशा में सुने जाते हैं।
अतः इन्हें उच्चैश्रवा कहते हैं ।यह आत्मा में प्रतिष्ठित होने से मैं ही
उच्चैश्रवा अश्व हूं। अश्व भार वहन करता है ।शरीर में निश्वास प्रश्वास वायु ही
अश्व है जो मन को नाद में पहुंचा कर विष्णु का परम पद साक्षात्कार करवाता है। वही
उच्चैश्रवस् है ।विच्छेद ही मृत्यु है अविच्छेद अमृत है। अविच्छेद अवस्था
का बोध ध्वनि से होता है अतः उच्चैश्रवस को अमृत से उत्पन्न कहते हैं ।इस अवस्था
में सहस्त्रार से क्षरित सुधा अविश्रांत मूलाधार में स्थित क्षमा का अभिषेक करती
रहती है । इस तरह अमृत की गति पलट जाने से अपक्षय नहीं होता । अपक्षय अवस्था में
वह दिव्य स्वर सुनाई देता है; शक्ति अग्नि की क्रिया होती है, अतः उच्चैश्रव: को इंद्र का वाहन कहते
हैं।
ऐरावतं गजेंद्राणां--ऐरावतं=इरा(जल
)+वत्(जल की तरह दिखने वाला किंतु जल नहीं)। गज अर्थात जो स्पर्श
सुख से गल जाता है। गजेंद्र अर्थात जो स्पर्श सुख से आत्म हारा होकर समस्त विषयों
की तृष्णा निवारण तृप्ति भोग करें ।साधक जब मणिपुर को
भेद कर अनाहत (मोह का स्थान )भेद करने के लिए चलता है तब स्पर्श सुख से इतना मोहित, आत्म हारा हो जाता है
कि शरीर के सभी रोम खड़े हो जाते हैं। देह में कंपन होने लगता है, शीत अनुभव नहीं होता
।तो भी कंपन होता है। पैर से सिर तक ठंडी सरसराहट स्पर्श शक्ति की अनुभूति होती है
जिससे जगत के सभी भोगों की तृप्ति सी प्राप्त हो जाती है । विषय भोग बिना, आत्मा में विलीन आनंद
अनुभव करते हो बाहर भीतर का बोध समाप्त हो जाता है। कूटस्थ में श्वेत हाथी का
दर्शन होता है अतः गजेंद्रों में मैं ऐरावत हूं।नराणां च नराधिपरं--नृ(लेना
या पाना)+अ(नहीं)=नर अर्थात जिस अवस्था में लेना या पाना नहीं है। लेना और पाना
विषयों में होता है जो शरीर में विशुद्ध चक्र तक संभव है। आज्ञा चक्र में आते ही
आत्म उन्नति का अधिकार प्राप्त हो जाता है, यही नर अवस्था है। आज्ञा में ऊपर उठकर
रहने से अधिप अवस्था आती है जहां आत्म उन्नति भी होती है। अनासक्त भाव रहने से
विषय पालन भी किया जा सकता है। इस स्थान में उत्तम पुरुष विष्णु का दर्शन पाकर
तदाकारत्व प्राप्त होता है ।पालन करने वाला राजा है। भगवान विष्णु जगत का पालन
करते हैं किंतु निर्लिप्त भाव से रहते हैं। वे योगेश्वर हैं। नरों में श्रेष्ठ
राजा विष्णु ही मैं हूं।
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि
कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि
कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।10.28।।मैं
शस्त्रों में वज्र और धेनुओं (गायों) में कामधेनु हूँ, प्रजा उत्पत्ति का हेतु कन्दर्प (कामदेव) मैं हूँ और
सर्पों में वासुकि हूँ।।तात्विकव्याख्या आयुध=आ+युध्+अ; जिस से युद्ध किया जाता है। प्रहरण=प्र+हरण। जिस पर प्रयोग
किया जाए उसी का हरण करने वाला शरीर में प्रहरण स्वरूप वायु ही आयुध है। नाना
स्थानों में वायु के अनेक नाम हैं वज्र अर्थात गमन करना, रं अर्थात अग्नि बीज। जो स्वयं भास्कर हैं जिस पर पड़ते हैं
उसी का अस्तित्व हर लेते हैं वह वज्र कहलाते हैं। जिस महा वायु की क्रिया से शरीर
का अस्तित्व रहता है वही परम आराध्य, पूजनीय, प्राणेश्वर प्राण वज्र हैं। वज्र जिस पक्ष से प्रयोग किया जाए
वही विजयी होता है । वह चिरकाल से आत्मा में प्रतिष्ठित है अतः आयुधों में मैं
वज्र हूं।धेनूनामस्मि कामधुक --कष्ट शून्य, पेट भरने
वाला पानीय
भोग जिससे मिलता है उसे धेनु कहते
हैं।शरीर में जिस अमृत का क्षरण होता है उस अमृत का पान करके अमर पद में जाने के
समय एक अवस्था होती है ।जिसमें जो इच्छा करो वही मिल जाता है, इस अवस्था को कामधुक कहते हैं। यह मैं के अति निकट की अवस्था
है ।काम अर्थात इच्छा, धु अर्थात
कंपन, क अर्थात आत्मा। भोग इच्छा में जो
अविरोधी आत्म कंपन है वही कामधुक अवस्था है। यह कष्ट शून्य श्रेष्ठ भोग है
।प्रकृति पुरुष विवेक प्राप्त होने के बाद माया से आत्म तत्व लेने के लिए आत्मा की
दिशा में झुकाव सप्त स्वरों में निषाद की तरह है। सर्वोच्च अंतिम स्वर कंपन को छू
छू कर छू नहीं सकने पर लौटना होता है ।यह अविश्रांत आना जाना ही कामधुक अवस्था है।
मैं के सिवाय और कोई लक्ष्य नहीं रहता। इस अवस्था में साधक का अंतः करण जो कुछ
चाहता है वह पा सकता है, अतः धेनुओं
में मैं कामधुक हूं।प्रजनशचस्मि कंदर्प:--प्र(ख्याति या नाम की
घोषणा)+जन(जन्मना)+अ(कर्ता)। जन्मने से जिसका नाम घोषणा पड़े वही
प्रजनन।कंदर्प=क(सृष्टिकर्ता ब्रह्मा)+दर्प(संदीपन करना)+अ(कर्ता)।जन्म लेते ही
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को जो संदीपित अर्थात मोहित करता है वह। प्रजनन और कंदर्प दोनों का प्रयोग
स्थल मैं हूं।सर्पाणांस्मि वासुकि--सर्प=विषधर;वसु(प्रकाश
फैलाने वाला रत्न जैसे हीरा)+क(मस्तक)+ई(शक्ति)।मस्तक में स्व प्रकाश फैलाने वाली
शक्ति से युक्त श्रेष्ठ सर्प। मेरी अपनी कोई अवस्था नहीं है। अंतः करण में जिसका
स्थान होता है वही माया का प्रकाश है। मा(नास्ति)+या(अस्ति)।अंतः करण जब मुझ को
साथ लेकर खेले तब माया की श्रेष्ठ अवस्था है।क्रिया करते-करते साधक कूटस्थ में
ज्योतिर्मय मणि विभूषित मस्तक वाले सर्प का दर्शन करते हैं जो सर्प वासुकी की
प्रतिकृति है।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो
यादसामहम्।
पितृ़णामर्यमा
चास्मि यमः संयमतामहम्।।10.29।।
मैं
नागों में अनन्त (शेषनाग) हूँ और जल देवताओं में वरुण हूँ; मैं पितरों में अर्यमा हँ और नियमन करने वालों में यम
हूँ।। तात्विकव्याख्या 29अनंत=
जिसका किनारा ना हो; नाग= न+ अग; ना =नास्ति; अग= सर्प। सर्प
में विष होता है नाग में नहीं । कूटस्थ में दिखने वाले लंबे फणहीन
नागराज को अनंत कहते हैं ।यही क्षीरसागर में विष्णु की शैया है। यही विष्णु मैं
हूं। नागों के भीतर मैं अनंत हूं।वरुणोयादसामहम् =वरुण अर्थात जो वेष्टन करते हैं।
समुद्र पृथ्वी को वेष्टन किए हुए हैं। याद: अर्थात जल देवता ।जल में रस या
पुष्टिकरण शक्ति में हूं।पितृणामय्यर्मा चास्मि=अर्य्यमाअर्थात देह त्याग के बाद
जो पितृ लोक
में पहुंचकर उत्तमता और दीप्ति प्राप्त
करते हैं। जो स्थूल देह त्याग कर जीवित रहे उसे पितृ कहते हैं। साधक जब ब्रह्म
नाड़ी में पहुंचता है तो उसे स्थूल देह का बोध नहीं रहता, वह तेजो राशि के अंदर पुनः मूर्ति (आत्म स्वरूप) का दर्शन पाता है।
वही पितृ देव अर्ययमा हैं। साधक को उत्साहित करने के लिए पूजनीय देवता उपस्थित
होकर आशीर्वाद देते हैं ।ज्योतिर्मय अर्य्यमान भी मैं हूं।यम:संयमतामहं=यम अर्थात
संयमनीपुर का अधिपति।यम्=निवृत्ति कराना, अन् =संज्ञा।जो निवृत्ति करवाते हैं वही
यम हैं ।अंतःकरण की वृत्ति शून्य अवस्था को निवृत्ति कहते हैं ।धारणा, ध्यान, समाधि मिलाकर संयम कहलाता है । जिस
अवस्था में हिंसा का अभाव ,चौर्य का अभाव, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह प्रतिष्ठित है उसे यम अवस्था कहते हैं। संयम
छोटी और यम बड़ी अवस्था है। शरीर प्रेतपुर है ।संयम में यम मैं हूं।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां
कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च
मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।10.30।।
मैं
दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों में काल हूँ, मैं 'पशुओं' में सिंह (मृगेन्द्र) और पक्षियों में गरुड़ हूँ।। तात्विकव्याख्या 30 श्लोक 30
प्रहलाद=प्र(ख्याति)+ह्लाद(आह्लादित
करना)। जो आह्लाद
के लिए ख्यातिमान है वही प्रहलाद
है।
दैत्य
अर्थात दिती का वंश;दीप्ती
पुत्र पाने के लिए अनार्य समय में कश्यप ऋषि के पास गई थी इसलिए उससे असत अंश की
उत्पत्ति हुई ।नारद की कृपा से प्रहलाद का जन्म हुआ था ।दिति के वंश में ह्लाद रूप
विष्णु का अधिष्ठान जिस पुरुष में हुआ वही प्रहलाद मैं हूं।
कश्यप=कश्य(मतवाला, नशे में)+प(पान करना)। साधक की देह में जब सुधा धारा विलोम गति
से उसे मतवाला करती है तब अंतःकरण में किसी क्रिया का स्फुरण नहीं होता। ना साधक
निष्क्रिय ही होता है। यही अवस्था कश्यप अवस्था कहलाती है। कभी-कभी विषय भोग
संस्कार उदय होने से जो कंपन होता है वही साधक की दिति अवस्था है। साधक को आंशिक
बोध बाहरी जगत का होता है। सुनहरा प्रकाश उसे ढके रहता है यही हिरण्यकशिपु अवस्था
है।हिरण्य =सोना;क्शिपु=आच्छादित।साधक को अधीन करने के
लिए प्रकृति की यह मनोहारी चेष्टा भी
जब विफल हो जाती है, उस विफलता
का अनुभव करके जो अपूर्व हर्ष होता है , वह हर्ष ही
प्रहलाद है।
काल:
कलयतामहम्= कलयतां अर्थात वशीकरियों में;मणि, मंत्र, महा औषधि
से वशीकरण होता है उन सब में मैं सर्ववशी काल हूं।
क(ब्रह्म
लोक)+आ(अंतरिक्ष)+ल(पृथ्वी)। उत्पत्ति, स्थिति,लय इसी भवन कोष में होता है काल रूप मैं ही हूं।
मृगाणां च
मृगेंद्रोहं=मृग शब्द याचना सूचक है याचना में सर्व श्रेष्ठ है मोक्ष की याचना ।
वह मैं हूं जैसे पशुओं में राजा सिंह हैं।
वैनतेयश्च पक्षिणां=वैनतेयं अर्थात
विनता से उत्पन्न गरुण। भिन्नता
का अर्थ विशेष नम्र शील है क्रिया अभ्यास से साधक की दो अवस्थाएं होती है- अध: और
ऊर्द्ध। जब साधक बहिर्मुखी होकर विषय भोग करता है तब उसकी कृष्ण गति अविनता अवस्था
होती है; जब साधक ऊर्द्ध मुखी होता है तब शुक्ल गति
होती है। पांच ज्ञानेंद्रियां पांच कर्मेंद्रियां पांच प्राण को स्थूल से सूक्ष्म
लोक में ले जाता है तब साधक की विनता अवस्था होती है। इस अवस्था में कूटस्थ में
सुनहरे गरुड़ पक्षी का दर्शन होता है जो विषय रूपी विष का नाश करता
है।गर(विषय)+उण(उड़ा देना)। शुक्ल और कृष्ण पक्ष हैं चिदा काश में रमण अवस्था ही
गरुण अवस्था है।
पवनः पवतामस्मि रामः
शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि
स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।10.31।।मैं
पवित्र करने वालों में वायु हूँ और शस्त्रधारियों में राम हूँ; तथा मत्स्यों (जलचरों) में मैं मगरमच्छ और नदियों में
मैं गंगा हूँ।। तात्विकव्याख्या 31
पवन =पव+न ; पव =शुद्धि ; अन =कर्त्ता ;शुद्ध करने वाला |माया विकार मुझ में समा कर शुद्ध
होता है, अतः मैं सर्वशुद्ध कारी पवन हूँ |रामः शस्त्रभृतामहम - - राम इस
शरीर में आत्मा के साथ रमण करते हैं वही शस्त्र भृत हैं | शस =वध करना या शासन करना ;वायु ही शरीर का
शास्ता है, शासक है| अतः वायु शस्त्र है| मेरुदंड रूपी धनुष में वायुरूप बाण खींच कर सर्वजयी
होने वाला आत्माराम मैं हूँ | शरीररूपी रथ में दस इन्द्रियां, दस दिशाओं में भागतीं हैं |दसों की गति को रोकने
वाला दशरथ है| दशरथअवस्था में आत्मा-परमात्मा के रमण से दशरथी राम अवस्था आती है| दस इन्द्रियों के
निस्तब्ध होने पर मेरुदंड में सुषुम्ना में प्राण चालन होने को शस्त्रभृत दशरथी
कहते हैं |राम =रा+म;रा =विश्व;म =ईश्वर; शस्त्र =जिसको पकड़ कर किसी को मारा जाए |अस्त्र =जिसे छोड़ कर किसी को मारा
जाए शस्त्र का प्रयोग करने वाले को शस्त्रभृत कहते हैं |विष्णु के तीन अवतार हैं - -
परशुराम , दाशरथी राम , बलराम | सभी विभूतियों में प्रधान असंगत्व है; दशरथी राम ही शस्त्रभृत हैं | अस्त्र -शस्त्र दोनों
प्राकृतिक हैं ;दोनों को धारण करने वाला मैं हूँ |झषाणां मकरश्चास्मि - झ =नैपथ्य ;ष =श्रेष्ठ ;जितने श्रेष्ठ तत्व
हैं उनमे मैं मकर हूँ |मकर =यम का नियामकत्व , काम का कामानल , चंद्र कीपुष्टि , शिव की स्थिति , विष्णु की व्याप्ति , ब्रह्म का कृतित्व , विष का संहारकत्व , पवन की जीवनी , बंधन की कठोरता , मन्त्र की सिद्धि , समय का अखंडत्व , सूर्य की दीप्ति , दक्ष का प्रजापतित्व
जिसमें है , जो ग्रहण करने के बाद , छोड़ता नहीं वही मकर है | जोपतितपावनी गंगा का वाहन है |पतितको पावन करने वाली
महाशक्ति मेरी आश्रित है, अतः मैं मकर हूँ झषों के मध्य, झषों =मछलियों में|स्त्रोत सामस्मि
जाह्नवी - जिसका आदि-अंत है वह प्रवाहिनी
नहीं होती |जिसकाआदि-अंत नहीं है, वही प्रवाहिनी है |निर्मल ज्ञान का प्रवाह गंगा कहलाता है |गच्छति इतिगंगा, जिसकी गति अविच्छन्न
है, वही गंगा है| जन्हु मुनि ने का
गंगा को पी कर अपनी जंघा से बाहर निकाला था, इसलिये गंगा का नाम पड़ा जाह्नवी |जनु कहते हैं उरुसंधि
को , जो स्थान गति की
उत्पत्ति करवाता है | जह्नु =जो सर्व त्यागी है; जह्नु राजर्षि =रजो गुण प्रधान ऋषि | रजो गुण ही संकल्प-विकल्प की लीला भूमि
है | इसक्षेत्र में विमल
ज्ञान का प्रवाह ढका रहता है |यही जह्नु का गंगा को पीना है | संकल्प-विकल्प मनोमय कोष में घटने से इस
अवस्था में वाक्यादि का स्फुरण नहीं होता जिसे लोग मुनि अवस्था कहते हैं |मौनी अवस्था पार करके
ऋषि वाक्य (उपदेश) का प्रवाह प्रकाशित होता है| तत्क्षण ढका हुआ ज्ञान प्रवाह, खुल कर प्रवाहित होने लगता है ;वही जाह्नवी है |यह निर्मल ज्ञान
प्रवाह ही हमारा स्वरूप है|
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या
विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।10.32।।
हे अर्जुन ! सृष्टियों का आदि, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ, मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या और विवाद करने वालों
में (अर्थात् विवाद के प्रकारों में) मैं वाद हूँ।।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः
सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो
धाताऽहं विश्वतोमुखः।।10.33।।
मैं अक्षरों (वर्णमाला) में
अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ; मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।
तात्विकव्याख्या 32-33
आकाश की तरह ब्रह्म
सर्व व्यापी है | जोविद्या बुद्धि को आत्मा से मिला दे वह है अध्यात्म
विद्या . वाणी या नाद भी सर्व व्याप्त है | अक्षर - स्वर व्यञ्जन दो
प्रकार के हैं - जिस अक्षर को बिना किसी दूसरे अक्षर की सहायता के उच्चरित किया
जाये उसे स्वर कहते हैं उच्चारित - अ , इ , उ , ए , ओ , अं , अः ;जो स्वर की सहायता से
बिना उच्चारित हो उन्हें व्यञ्जन कहते हैं - क , ख , घ आदि |प्रत्येक अक्षर के आदि
अंत मध्य मैं अ है | अतःअकार ब्रह्म स्वरुप है अतः दो मिलकर एक होने को समास
कहते हैं |परस्परएकता के भाव को द्वन्द समास कहते हैं | ब्रह्मसब में ओत
प्रोत है रहकर द्वन्द समास हूँ |काल को कला , काष्ठा , क्षण , लव , आदि में नापने पर भी
काल अखंड है |साधक तुम अपनी व ब्राह्मी स्थिति की तुलना कर समझ लो कि मैं अक्षय काल हूँ | जगतको धारण करने वाला
ब्रह्म या मैं ही धाता हूँ जो सीमा बद्ध और शीर्ण हो उसे शरीर कहते हैं विश्व =वि
श्व ;वि =विशेष ;श्व =दूसरे दिन का प्रभात | दूसरेदिन के प्रभात
से पहले रात्रि या मृत्यु अवस्था है |जन्म मृत्यु जिसमे हो वही विश्व है
| मुख लीन कहते हैं प्रवेश द्वार को | विश्व ब्रह्म से निकल कर ब्रह्म
में लीन होता है अतः विश्वतोमुखः मैं हूँ|
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च
भविष्यताम्।
कीर्तिः
श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।10.34।।
मैं सर्वभक्षक मृत्यु और भविष्य
में होने वालों की उत्पत्ति का कारण हूँ; स्त्रियों
में कीर्ति, श्री, वाक (वाणी), स्मृति, मेधा, धृति
और क्षमा हूँ।।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री
छन्दसामहम्।
मासानां
मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।10.35।।
सामों (गेय मन्त्रों) में मैं
बृहत्साम और छन्दों में गायत्री छन्द हूँ; मैं
मासों में मार्गशीर्ष (दिसम्बरजनवरी के भाग) और ऋतुओं में वसन्त हूँ।।
द्यूतं छलयतामस्मि
तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि
व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।10.36।।मैं
छल करने वालों में द्यूत हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ, मैं विजय हूँ; मैं
व्यवसाय (उद्यमशीलता) हूँ और सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ।। तात्विकव्याख्या 34-36
जिस महाशक्ति द्वारा
सर्व का हरण होता है उसे मृत्यु कहते हैं |मृत्यु सर्व सहायक है | परमात्मा की नाशिनी
शक्ति तमोगुण की क्रिया है अतः यह भगवत विभूति है , सर्वहर मृत्यु मैं हूँ | पुनः उद्भव कारिणी
शक्ति - रजोगुण की क्रिया भी भगवद विभूति है | पालिनी शक्ति सतोगुणी महाशक्ति के
सात रूप - कीर्ति , श्री , वाक् , स्मृति , मेधा , धृति , और क्षमा भी ब्रह्म की
विभूतियाँ हैं|सामवेद में मोक्ष प्रतिपादक अंश का नाम बृहत्साम मैं हूँ |जिस गान से भव सागर
में आना जाना मिट जाता है उसे गायत्री कहते हैं | इसके चौबीस वर्ण हैं अतः यह छंद
है |मोक्षदायी गायत्री ही मैं हूँ मृगशिरा नक्षत्र में सूर्य की गति काल
मार्गशीर्ष मॉस है . जिस मास से प्रथम वर्ष गिना जाता है वह है अग्र हायण | अग्र =प्रथम; हायण =वर्ष | वृक्षका सूक्ष्मतम
अंश है कुसुम | मनुष्यजीवन का कुसुम ज्ञान है |बसंतमें कुसुम खिलने से ऋतुराज
कहते हैं | साधक जब प्राणायाम के फल से कूटस्थ में स्थिरता लाभ करते हैं तब अंतःकरण
मनोरम होता है, जो साधक कीबसंत ऋतु है|जब आत्मज्ञान का कुसुम खिलता है जिस से आत्म
साक्षात्कार रूपी फल उत्पन्न होता है अतः मैं बसंत हूँ द्यूत क्रीड़ा में दो में से
एक का सर्वस्वान्त होता है साधना में प्राण चालन से सर्व रहता है प्राण स्थिर होने
पर , साधक सर्व से वंचित हो जाता है अप्राणी का यह खेल द्यूत है सूर्य चंद्र का
तेज ब्रह्म से ही होता है | मैंतेजस्वियों का तेज हूँ | ध्यानस्थमैं
निष्क्रिय होता है अतः सर्व पर जयं मैं हूँ | आदान- प्रदान को व्यवसाय
कहते हैं |माया की सृष्टि - प्रलय ब्रह्म में
घटित होने से व्यवसाय भी मैं हूँ सतोगुणी साधक आठ अवस्थाएं अनुभव करता है - स्वेद , स्तम्भ , रोमांच , स्वरभंग , विपथु , वैवर्ण , अश्रु और प्रलय पहले
आसन में स्थित होने पर पसीना बाहर आता है जिससे शरीर स्निग्ध होता है | उद्वेग नष्ट होने पर
शरीर स्तम्भवत दृढ , अटल होता है स्थिर भाव में रोमांच फिर निश्वास प्रश्वास
रुकने से स्वरभंग फिर कम्पन फिर शरीर में प्राण वायु सूक्ष्म सरल होने पर सुप्त
शक्ति समूह प्रबुद्ध होने से वै वर्ण अवस्था होती है |आतंरिक प्रेम से अश्रु
प्रवाह होता है फिर निर्मल ज्योति प्रकाश होने पर सभी जीव प्रेम करने लगते हैं
समाधि लगती है प्रलय हो जाता है सर्व का |
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि
पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं
व्यासः कवीनामुशना कविः।।10.37।।मैं
वृष्णियों में वासुदेव हूँ और पाण्डवों में धनंजय, मैं मुनियों में व्यास और कवियों में उशना कवि हूँ।।
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि
जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि
गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।10.38।।
मैं
दमन करने वालों का दण्ड हूँ और विजयेच्छुओं की नीति हूँ; मैं गुह्यों में मौन हूँ और ज्ञानवानों का ज्ञान हूँ।।
तात्विकव्याख्या 37-38
वृष्णि =वर्षा करने
वाला , वासुदेव =जिसमे सर्वभूत वास करते हैं |सर्ववर्षण करने वाले हैं वासुदेव| मैं जिसने धनपति
कुबेर को जय करके सोने की चंपा लाकर कुंती से शिव पूजा करवाई नाह धनञ्जय कहलाया |तीक्ष्ण बुद्धि साधक
पांडव कहलाता है | जीव के छह धन - जन्म , मृत्यु , सुख , दुःख क्षुधा , तृष्णा हैं | इन्हे जीतने वाला साधक
है धनञ्जय वह नियंता मैं हूँ | व्यासअर्थात विभाग कर्त्ता | अहंकारही विभाग करता
है अतः व्यास है मनोवृत्ति जब सम्यक लीन हो गन्ने में चीनी कि तरह तब मुनि का अर्थ
प्रकाश होता है मुनि अवस्था में व्यास अवस्था मैं हूँ |सदा नयी अभिव्यक्ति
देने वाले को कवी कहते हैं | इच्छा से कवित्व आरम्भ होता है | मैं इच्छा की आरम्भ
भूमि उशना इच्छा कर्त्ता हूँ उशना =शुक्राचार्य |मृतसंजीवनी धारी शुक्राचार्य में
नूतनता है शुक - श्वेत निर्मल ;साधना में चिर नूतनता अनुभव होती है श्वेत प्रकाश
दिखने के बाद |प्राणायाम नामक दण्ड से वृत्तियाँ नियंत्रित होती हैं |कैवल्य स्थिति आती है , पर को आयत्त करने का
माध्यम है नीति कर्म का कौशल नीति है माया जय करने कि इच्छा वाला जिगीषु कहलता है
कहलाता है गोपनीय पद में मौन मैं हूँ ज्ञानियों का आत्मज्ञान मैं हूँ |
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं
तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना
यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।10.39।।हे
अर्जुन ! जो समस्त भूतों की उत्पत्ति का बीज (कारण) है, वह भी में ही हूँ, क्योंकि ऐसा कोई चर और अचर भूत नहीं है, जो मुझसे रहित है।।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां
विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः
प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।10.40।।हे
परन्तप ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है; अपनी विभूतियों का यह विस्तार मैंने एक देश से अर्थात् संक्षेप में
कहा है।।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं
श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं
मम तेजोंऽशसंभवम्।।10.41।।जो कोई भी विभूतियुक्त, कान्तियुक्त अथवा शक्तियुक्त वस्तु (या प्राणी) है, उसको तुम मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुई जानो।।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन
तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं
कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।10.42।।अथवा
हे अर्जुन ! बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है? मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण
करके स्थित हूँ।। तात्विकव्याख्या 39-42
‘मैं’ ही सर्व का आधार है| पराये बल को पीड़ित करने वाला परन्तप उद्देश्य प्रधान का नाम संक्षेप से बताया है |समस्त भुवन कोष का आधार ब्रह्म
मैं ही हूँ|
विश्वकोश महत तत्व से उत्पन्न है| जब तक ज्ञान दृष्टि का विकास न हो, तब तक संशय रहता है |दिव्य चक्षु खुलने पर सर्वत्र ब्रह्म दृष्टि होने पर ‘मैं’ ही ‘मैं’ दीखता है |
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