Sunday, 9 August 2020

adhyay 17

 

अध्याय 17

अर्जुन उवाच

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।।17.1।। अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! जो लोग शास्त्रविधि को त्यागकर (केवल) श्रद्धा युक्त यज्ञ (पूजा) करते हैं, उनकी स्थिति (निष्ठा) कौन सी है ?क्या वह सात्त्विक है अथवा राजसिक या तामसिक ?

श्री भगवानुवाच

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।।17.2।। श्री भगवान् ने कहा -- देहधारियों (मनुष्यों) की वह स्वाभाविक (ज्ञानरहित) श्रद्धा तीन प्रकार की - सात्त्विक, राजसिक और तामसिक - होती हैं, उसे तुम मुझसे सुनो।।

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।17.3।। हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव, संस्कार) के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा वैसा ही उसका स्वरूप होता है।।

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।17.4।। सात्त्विक पुरुष देवताओं को पूजते हैं और राजस लोग यक्ष और राक्षसों को, तथा अन्य तामसी जन प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं।।

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।।17.5।।  जो लोग शास्त्रविधि से रहित घोर तप करते हैं तथा दम्भ, अहंकार, काम और राग से भी युक्त होते हैं।।

कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्।।17.6।।  और शरीरस्थ भूतसमुदाय को तथा मुझ अन्तर्यामी को भी कृश करने वाले अर्थात् कष्ट पहुँचाने वाले जो अविवेकी लोग हैं, उन्हें तुम आसुरी निश्चय वाले जानो।। तात्विकव्याख्या 1-6

ब्रह्म नाड़ी में प्राण चालन करते-करते अनंत दिव्य मूर्तियों के दर्शन होते हैं। अशरीरी वाणियां सुनाई देती हैं। श्रुति स्मृति पुलकित करती हैं, मन तन्मय हो जाता है। यह अनुभव शास्त्र विधि (गुरु प्रदर्शित वायु चलन का उपदेश) का परित्याग करा देते हैं। ब्रह्म नाड़ी के मध्य में ना रहकर इन सबके साथ संस्पर्श दोष लगता है, साधक प्रश्न करता है --यह जो यजन निष्ठा ( देवी देवताओं की उपासना और तन्मय अवस्था) है सात्विक है ,राजसिक  है या तामसिक? भगवान कहते हैं-- देह धारियों के आजन्म अभ्यास से जो संस्कार उत्पन्न होता है उसे स्वभाव कहते हैं जिसमें 3 गुण रहते हैं। जिस गुण को लेकर देही जन्म ग्रहण करता है उसकी श्रद्धा वैसे ही तीन प्रकार की होती है।सुनो--जिस अवस्था में गुरु उपदिष्ट मार्ग में वायु चालन नहीं कर सकते उस अवस्था में शास्त्र में (वायु चालन में) रहने से जो अद्भुत विवेक ज्ञान का उदय होता है वह ज्ञान स्थाई नहीं होता ।केवल गुण के वश से श्रद्धा (कार्यकारी शक्ति) रहती है। सात्विकी श्रद्धा के उदय होने पर देव- देवी को, राजसी श्रद्धा से यक्ष- राक्षस, तामसी श्रद्धा से भूत प्रेत पूजित होते हैं ।जो अविवेकी प्राणायाम ना करके श्रुति स्मृति रहित भयंकर तप करते हैं शरीर को क्षीण करते हैं आत्मा के अनुशासन को नहीं मानते, वह आसुरी स्वभाव के हैं। विषय आसक्त चित्त में परमात्मा प्रकट नहीं हो सकते।

 

 

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु।।17.7।।  (अपनीअपनी प्रकृति के अनुसार) सब का प्रिय भोजन भी तीन प्रकार का होता है? उसी प्रकार यज्ञ? तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं? उनके भेद को तुम मुझसे सुनो।।

आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।।17.8।।  आयु, सत्त्व (शुद्धि), बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को प्रवृद्ध करने वाले एवं रसयुक्त, स्निग्ध ( घी आदि की चिकनाई से युक्त) स्थिर तथा मन को प्रसन्न करने वाले आहार अर्थात् भोज्य पदार्थ सात्त्विक पुरुषों को प्रिय होते हैं।।

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।

आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।17.9।। कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, अति उष्ण, तीक्ष्ण (तीखे, मिर्च युक्त), रूखे. दाहकारक, दु:ख, शोक और रोग उत्पन्न कारक भोज्य पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।।

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।17.10।। अर्धपक्व, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी, उच्छिष्ट तथा अपवित्र (अमेध्य) अन्न तामस जनों को प्रिय होता है।।

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।।17.11।। जो यज्ञ शास्त्रविधि से नियन्त्रित किया हुआ तथा जिसे "यह मेरा कर्तव्य है" ऐसा मन का समाधान (निश्चय) कर फल की आकांक्षा नहीं रखने वाले लोगों के द्वारा किया जाता है, वह यज्ञ सात्त्विक है।।

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।।17.12।।हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन ! जो यज्ञ दम्भ के लिए तथा फल की आकांक्षा रख कर किया जाता है, उस यज्ञ को तुम राजस समझो।।
 
तात्विकव्याख्या 7-12

आहार, यज्ञ, तप, दान भी तीन प्रकार के होते हैं। जन्म मृत्यु के बीच का व्यवधान समय आयु है। सत्य, न्याय, धर्म, क्षमा, भक्ति आध्यात्मिक शक्तियां हैं जिससे आरोग्य, सुख, प्रीति, संतोष बढ़ते हैं। शुक्र धातु को बढ़ाने वाला रस्य है जैसे दूध ।स्निग्धा =जो शरीर को स्निग्ध  करके मज्जा को बढ़ाता है जैसे घी, मलाई, मक्खन ,तिल, यव, तेंदुल। स्थिरा= औषधि जैसे अमृता, शिवनाक, अपराजिता। हृदया= जिससे बुद्धि की क्रिया शक्ति+ निश्चियकरणी )बढ़ती है: जैसे ब्राह्मी, आंवला यह सब सात्विकी आहार है।

कटु- नीम ,चिरायता आदि । अम्ल-जैसे इमली, कच्चा आम ।अतिउष्ण- चाय, कॉफी; तीक्ष्ण- लाल मिर्च, रुक्ष- भुना चना, चावल; विदाही -जिसके खाने से शरीर में ज्वाला उठती है जैसे हींग, राई ।ये सब रजो गुणी मनुष्यों के प्रिय आहार हैं इनसे दुख और रोग उत्पन्न होते हैं।

यात्याम -एक प्रहर पुरानी रसोई ;गतरस- रसहीन सूखा भात, रोटी आदि;पूति -सड़ा हुआ, दुर्गंध युक्त- अचार आदि; पर्युषित- दूसरे दिन की पक्की रसोई,अच्छिष्ट-  झूठा ;अममेध्य- अपवित्र, दुष्पाच्य, तामसी लोगों के  प्रिय खाद्य हैं ।ब्रह्मनाड़ी में वायु चालन से जब समस्त मिट जाता है तब फल की आकांक्षा नहीं रहती जिसे ब्रम्ह यज्ञ अर्थात ब्रह्म अग्नि में माया की आहुति रूप यज्ञ कहते हैं ।गुरु का उपदेश जो शास्त्र सम्मत हो फिर उसका शरीर में प्रत्यक्ष अनुभव -इन तीनों के समावेश को विधि दिष्ट कहते हैं। मन को समाधान करके जो चेष्टा की जाती है उसे सात्विक यज्ञ कहते हैं। फल की आकांक्षा से दंभ के साथ जो यज्ञ किया जाता है उसे राजस यज्ञ कहते हैं।

 

 

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।17.13।।  शास्त्रविधि से रहित, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों, बिना दक्षिणा और बिना श्रद्धा के किये हुए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।17.14।। देव, द्विज (ब्राह्मण), गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, शौच, आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर संबंधी तप कहा जाता है।।

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।17.15।। जो वाक्य (भाषण) उद्वेग उत्पन्न करने वाला नहीं है, जो प्रिय, हितकारक और सत्य है तथा वेदों का स्वाध्याय अभ्यास वाङ्मय (वाणी का) तप कहलाता है।।

 

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।। मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन आत्मसंयम और अन्त:करण की शुद्धि यह सब मानस तप कहलाता है।।

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्ित्रविधं नरैः।

अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।17.17।। फल की आकांक्षा न रखने वाले युक्त पुरुषों के द्वारा परम श्रद्धा से किये गये उस पूर्वोक्त त्रिविध तप को सात्त्विक कहते हैं।।

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।17.18।।  जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल दम्भ (पाखण्ड) से ही किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक तप यहाँ राजस कहा गया है।।

तात्विकव्याख्या 13-18

जिस यज्ञ में श्रद्धा नहीं, भोजन व्यवस्था नहीं, मंत्र आदि से आहुति नहीं, दक्षिणा की व्यवस्था नहीं, केवल आतिशबाजी, दिखावा हो, वह तामस यज्ञ है। ब्रह्म भाव से पूर्व, देवता, गुरु मूर्ति, ऋषियों की मूर्ति का दर्शन, तन्मय भाव  से किया जाता है तब ही देव, गुरु, प्राज्ञ पूजन होता है ।जब साधक अपनी मूर्ति के दर्शन से विभोर हो जाता है तब ही द्विज पूजन होता है। स्थूल शरीर का बोध नहीं रहता आत्ममूर्ति में आसक्ति के कारण द्विज कहलाता है। जिसके दो जन्म हों वही द्विज है ।शुद्ध सरलता भासती है, शुक्र धातु शीतल रहने से ब्रह्मचर्य होता है, मन में परपीड़ा का उद्वेग नहीं रहता अतः अहिंसा है ।शरीर पालन क्रिया सर्व विषयों से अक्षुण्ण रहती है। इस अवस्था को शारीरिक तप कहते हैं ।जब सच्ची, प्रिय ,हितकर वाणी अपने आप मुंह से निकलती है तब संयतवाक अवस्था कहलाती है। देह बोध त्याग कर सर्व भूतात्मा में व्याप्ति का अनुभव होता है तब ही स्वाध्याय का अर्थ प्रकाशित होता है।स्व= स्वर्ग या स्तर; वा=ईश्वर रूप का नामंतर;अध्याय-प्रीति की व्याप्ति( क्रिया की परावस्था) है। व्याप्त अवस्था में कहने का अवसर नहीं आता । अतः संयतवाक् हो जाता है। इस अवस्था को वांग्मय तप कहते हैं।

मन:प्रसाद- मन की  उद्वेग रहित अवस्था। सौम्यत्वं=अंतः करण चतुष्टय का स्थिर भाव में अवस्था न। जब मरण, मूर्छा, अज्ञानता न रहकर कथा कहने की क्रिया प्रलीन रहती है उसे मौन कहते हैं ‌आत्मा में स्थिति, अंतः करण का माया विकार भोग कटने के बाद, स्वभाव में अवस्थान भावसंशुद्धि अवस्था है। इसे मानसिक तप कहते हैं। कायिक, वाचिक, मानसिक तप में फल आकांक्षा को छोड़कर जो निराश समाधि स्थिति की चेष्टा है उसी को सात्विक तप कहते हैं ।दिखावटी पूजा का आयोजन, उपवास का आडंबर, लोगों  को इकट्ठा कर अनुष्ठान, परलोकहित नहीं करते। इस तपस्या को राजसी तप कहते हैं।

 

 

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्।।17.19।। जो तप मूढ़तापूर्वक स्वयं को पीड़ित करते हुए अथवा अन्य लोगों के नाश के लिए किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।।

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।17.20।। "दान देना ही कर्तव्य है" - इस भाव से जो दान योग्य देश, काल को देखकर ऐसे (योग्य) पात्र (व्यक्ति) को दिया जाता है, जिससे प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं होती है, वह दान सात्त्विक माना गया है।।

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।17.21।। और जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के उद्देश्य से अथवा फल की कामना रखकर दिया जाता हैं, वह दान राजस माना गया है।।

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।।17.22।। जो दान बिना सत्कार किये, अथवा तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देशकाल में, कुपात्रों के लिए दिया जाता है, वह दान तामस माना गया है।।

तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।17.23।।'ऊँ, तत् सत्' ऐसा यह ब्रह्म का त्रिविध निर्देश (नाम) कहा गया है; उसी से आदिकाल में (पुरा) ब्राहम्ण, वेद और यज्ञ निर्मित हुए हैं।।

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।।17.24।। इसलिए, ब्रह्मवादियों की शास्त्र प्रतिपादित यज्ञ, दान और तप की क्रियायें सदैव ओंकार के उच्चारण के साथ प्रारम्भ होती हैं।।

तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षि।।17.25।।'तत्' शब्द का उच्चारण कर, फल की इच्छा नहीं रखते हुए, मुमुक्षुजन यज्ञ, तप, दान आदि विविध कर्म करते हैं।।

तात्विकव्याख्या 19-25

विचार, बुद्धि विहीन, मूर्खतापूर्ण (अमुक को मिटाए बिना जल नहीं ग्रहण करूंगा आदि) प्रण से शरीर को कष्ट देना तामसी तपस्या है ।देश ,काल, पात्र के अनुरूप  मायिक वस्तु का दान, सात्विक है ।क्रिया अभ्यास मार्ग में ब्रह्म मार्ग से भृष्ट होकर देव, ऋषि या पितृ में मिलकर समाधि लेने से जो आत्मसमर्पण होता है वह कष्ट का दान है क्योंकि परिश्रम तो किया ब्रह्म में लय होने के लिए, परंतु आत्मसमर्पण हुआ देव, ऋषि या पितृ लोक में। इसका फल हुआ स्वर्ग आदि लोक में भोग के बाद पुनः संसार में प्रवेश अतः यह राजस दान है।

जगत में भोग वस्तु में जो आत्मसमर्पण किया जाता है वह तामस दान है । ओम् तत्सत ब्रह्म भाव लाने का बीज मंत्र है। साधक फल की आकांक्षा त्याग कर मुक्ति के लिए यज्ञ, दान, तप, क्रिया का आचरण करते हैं।

 

 

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।17.26।। हे पार्थ ! सत्य भाव व साधुभाव में 'सत्' शब्द का प्रयोग किया जाता है, और प्रशस्त (श्रेष्ठ, शुभ) कर्म में 'सत्' शब्द प्रयुक्त होता है।।

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।17.27।। यज्ञ, तप और दान में दृढ़ स्थिति भी सत् कही जाती है, और उस (परमात्मा) के लिए किया गया कर्म भी सत् ही कहलाता है।।

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।17.28।।  हे पार्थ ! जो यज्ञ, दान, तप और कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाता है, वह 'असत्' कहा जाता है; वह न इस लोक में (इह) और न मरण के पश्चात् (उस लोक में) लाभदायक होता है।। तात्विकव्याख्या 26-28 श्लोक 26 27 28

सत्भाव - साधु भाव;स-क्षीण श्वास;आ -आसक्ति;ध- धृति;उ- स्थिति ;सूक्ष्मश्वास में आसक्ति देने से जब धारणा हो जाती है तब साधु भाव आता है । कैवल्य स्थिति समझी जाती है। इस स्थिति के लिए कर्म( ब्रम्हनाड़ी में प्राण चालन )को भी सत् कहते हैं ।यज्ञ, दान, तप में भी चंचलता ना होने पर जो स्थिति है उसे भी सत् कहते हैं ।यज्ञ, दान, तप के लिए ब्रह्म मार्ग में वायु चालन भी सत् कह लाता है। हे साधक! जिस होम, दान की जड़ में अविश्वास हो उसे असत् कहते हैं। असत् क्रिया इहलोक- परलोक में कोई मंगल नहीं दे सकती।

 

 

No comments:

Post a Comment