Sunday, 9 August 2020

adhyay 16

 

अध्याय 16

 

श्री भगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।16.1।। श्री भगवान् ने कहा -- अभय, अन्त:करण की शुद्धि, ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप और आर्जव।।

 

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।16.2।। अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शान्ति, अपैशुनम् (किसी की निन्दा न करना), भूतमात्र के प्रति दया, अलोलुपता , मार्दव (कोमलता), लज्जा, अचंचलता।।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।16.3।। हे भारत ! तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (शुद्धि), अद्रोह और अतिमान (गर्व) का अभाव ये सब दैवी संपदा को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं।।

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।। हे पार्थ ! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोर वाणी (पारुष्य) और अज्ञान यह सब आसुरी सम्पदा है।।

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।16.5।। हे पाण्डव ! दैवी सम्पदा मोक्ष के लिए और आसुरी सम्पदा बन्धन के लिए मानी गयी है, तुम शोक मत करो, क्योंकि तुम दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए हो।।
 
तात्विकव्याख्या 1-5योग में निष्ठा का नाम अवस्थिति है। ज्ञान व योग में निष्ठा  ज्ञानयोगव्यवस्थिति  है ।न्याय से अर्जित धन को सतपात्र को अर्पण करना दान है। बाहरी वृत्ति का निरोध दम है। श्रुति स्मृति कथित क्रियायोग ही यज्ञ है; वेद शास्त्र के अर्थ का परिज्ञान स्वाध्याय है;क्रिया विशेष द्वारा अंतःकरण को सत्पथ में चलाना तप है। सरलता को आर्जव कहते हैं। जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति में अंतःकरण में प्राणी पीड़न वृत्ति का अभाव अहिंसा है; पराई निंदा ना करना अपैशुनं है; कुटिलता का अभाव मार्दव है; बुरे काम की वृत्ति मन में उदय होने के तुरंत बाद मन में उठने वाला अवगुंठन भावही लज्जा कहलाता है तेज : अर्थात प्रताप (निंदनीय कर्म मरने पर भी ना करने की दृढ़ता),नातिमानिताअर्थात मैं जैसा अधिकारी हूं दूसरे के पास उससे अधिक बढ़ाई की आकांक्षा ना रखना, यह वृत्ति अंतःकरण में सदा रखने वाले दैवी संपद प्राप्त होते हैं| अपने सम्मान की लालसा में धार्मिकता का प्रदर्शन और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए अनुष्ठान करना दम्भ है; अहंकार का प्रदर्शन दर्प है; धन, विद्या,कुल,आत्मियों के संबंध में थोड़ा सा भी दुख,क्षोभ, अनादर होने पर अत्यधिक भाव दिखाना अभिमान है। कामना पूर्ति में विघ्न होने पर अंतःकरण में उदित वृत्ति क्रोध है; कर्कशता पारुष्य  है। आसुरी संपद-- अंतःकरण में इनका निवास होता है। दैवीसंपद जात जीव मुक्ति पाते हैं । आसुरी संपद वाले बंधन में फंसते हैं साधक अपना विश्लेषण कर मुक्तिपथ चुनते हैं।

 

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु।।16.6।। हे पार्थ ! इस लोक में दो प्रकार की भूतिसृष्टि है, दैवी और आसुरी। उनमें देवों का स्वभाव (दैवी सम्पदा) विस्तारपूर्वक कहा गया है; अब असुरों के स्वभाव को विस्तरश: मुझसे सुनो।।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।16.7।। आसुरी स्वभाव के लोग न प्रवृत्ति को; जानते हैं और न निवृत्ति को उनमें न शुद्धि होती है, न सदाचार और न सत्य ही होता है।।

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।।16.8।। वे कहते हैं कि यह जगत् आश्रयरहित, असत्य और ईश्वर रहित है, यह (स्त्रीपुरुष के) परस्पर कामुक संबंध से ही उत्पन्न हुआ है, और (इसका कारण) क्या हो सकता है?

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।। इस दृष्टि का अवलम्बन करके नष्टस्वभाव के अल्प बुद्धि वाले, घोर कर्म करने वाले लोग जगत् के शत्रु (अहित चाहने वाले) के रूप में उसका नाश करने के लिए उत्पन्न होते हैं।।

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।16.10।। दम्भ, मान और मद से युक्त कभी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आश्रय लिये, मोहवश मिथ्या धारणाओं को ग्रहण करके ये अशुद्ध संकल्पों के लोग जगत् में कार्य करते हैं।। तात्विकव्याख्या 6-10

आसुरी स्वभाव के मनुष्य प्रवृत्ति-निवृत्ति को नहीं जानते। प्र अर्थात सर्वतोभाव+वृत्ति=प्रवृत्ति। ब्रह्मत्व पाने के लिए  जो साधन निष्ठा किया जाए वह प्रवृत्ति; ब्रह्मत्व पाने के बाद जो सनातन विश्राम अनुभव होता है, वही निवृत्ति है; आसुरी अंतःकरण में दोनों ही नहीं होती| शौच अर्थात स्वच्छता; आचार अर्थात स्नान, आचमन आदि;  एवं सत्य, आसुरी अंतः करण में तीनों का अभाव होता है। सत्वगुण रहित ऐसे अल्प बुद्धि देह में लिप्त रहते हैं परलोक  और साधना को नहीं मानते ।हिंसात्मक कर्म में प्रवृत्त होते हैं; जगत का अहित करते हैं; वे बार-बार मरते हैं; कभी निष्कृति नहीं पाते ।असद्ग्राह=अशुभ आग्रह, मुक्ति का प्रतिबंधक जैसे स्तंभन, वशीकरण, उच्चारण सीखना, देवता से अनित्य सुख पाने की चेष्टा करना। अशुचिव्रता: =सिद्धि लाभ के लिए आहार व्यवहार में नियम पालन करना व्रत है; सतोगुण बढ़ाने वाला व्रत शुचिव्रत  है; रज-तम बढ़ाने वाला अशुचिव्रत हैउदाहरण -मांस मदिरा से सिद्ध होने वाले कर्मकाण्ड ।

 

 

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्िचताः।।16.11।। मरणपर्यन्त रहने वाली अपरिमित चिन्ताओं से ग्रस्त और विषयोपभोग को ही परम लक्ष्य मानने वाले ये आसुरी लोग इस निश्चित मत के होते हैं कि "इतना ही (सत्य, आनन्द) है"।।

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्।।16.12।। सैकड़ों आशापाशों से बन्धे हुये, काम और क्रोध के वश में ये लोग विषयभोगों की पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक धन का संग्रह करने के लिये चेष्टा करते हैं।।

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।।16.13।। मैंने आज यह पाया है और इस मनोरथ को भी प्राप्त करूंगा, मेरे पास यह इतना धन है और इससे भी अधिक धन भविष्य में होगा।।

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।।16.14।। "यह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया है और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूंगा", "मैं ईश्वर हूँ और भोगी हूँ", "मैं सिद्ध पुरुष हूँ", "मैं बलवान और सुखी हूँ",।।

आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।16.15।। "मैं धनवान् और श्रेष्ठकुल में जन्मा हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है?",'मैं यज्ञ करूंगा', 'मैं दान दूँगा', 'मैं मौज करूँगा' - इस प्रकार के अज्ञान से वे मोहित होते हैं।।

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16।। अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले, मोह जाल में फँसे तथा विषयभोगों में आसक्त ये लोग घोर, अपवित्र नरक में गिरते हैं।।

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।16.17।।  अपने आप को ही श्रेष्ठ मानने वाले, स्तब्ध (गर्वयुक्त), धन और मान के मद से युक्त लोग शास्त्रविधि से रहित केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा दम्भपूर्वक यजन करते हैं।।

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।  अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोध के वशीभूत हुए परनिन्दा करने वाले ये लोग अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ (परमात्मा) से द्वेष करने वाले होते हैं।।

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।16.19।। ऐसे उन द्वेष करने वालेक्रूरकर्मी और नराधमों को मैं संसार में बारम्बार (अजस्रम्) आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ।।

असुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।16.20।। हे कौन्तेय ! वे मूढ़ पुरुष जन्मजन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं और ( इस प्रकार) मुझे प्राप्त न होकर अधम गति को प्राप्त होते है।।
 
तात्विकव्याख्या 11-20

शत्रु नाश, संपत्ति वर्धन के लिए किए जाने वाले उपाय नरक में ले जाते हैं।अभिमानी मनुष्य राग-द्वेष में बंधे रहते हैं, सात्विक साधना नहीं करते; मृत्यु के समय भगवान उनके मन में देहभाव भर देते हैं जिससे वे आत्मद्रोही बाघ, सांप आदि क्रूर योनि में जन्म लेते हैं, परमात्मा से दूर होते जाते हैं।

 

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।16.21।। काम, क्रोध और लोभ ये आत्मनाश के त्रिविध द्वार हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए।।

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्।।16.22।। हे कौन्तेय ! नरक के इन तीनों द्वारों से विमुक्त पुरुष अपने कल्याण के साधन का आचरण करता है और इस प्रकार परा गति को प्राप्त होता है।।

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।16.23।।  जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी कामना से प्रेरित होकर ही कार्य करता है, वह न पूर्णत्व की सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न परा गति।।

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।16.24।।  इसलिए तुम्हारे लिए कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था (निर्णय) में शास्त्र ही प्रमाण है शास्त्रोक्त विधान को जानकर तुम्हें अपने कर्म करने चाहिए।।

तात्विकव्याख्या 21-24

ना =नास्ति ;रं अर्थात प्रकाश; कं अर्थात मस्तक में  आत्म ज्योति का प्रकाश न देखना ही नरक है; जिसके तीन द्वार हैंकाम, क्रोध, लोभ |  मुमुक्षु के लिए तीनों ही त्यागने के योग्य हैं; वेद ब्रह्मा के मुख से उच्चारित हैं; साधक को मूलाधार में ब्रह्मा का दर्शन होता है| जो शासन करता है उसे शास्त्र कहते हैं; शरीर का शासक वायु ही शास्त्र है वायु को अधीन करने से ही आत्मा की उन्नति होती है; प्राणायाम ही प्राणयज्ञ या शास्त्र विधि है|6चक्रों की क्रिया ही वेद का कर्मकांड, सहस्त्रार क्रिया ज्ञान कांड है; इन दोनों का अतिक्रमन करने से गुणातीत पद नहीं मिलता | प्रश्वास  ग्रहण करते समय बाहरी आकाश की विमल वायु को नासा रंध्र और गल गुह्यवर से होकर वायु पथ से मूलाधार में लाकर वायु के साथ चित्तपथ मेंउठकर शक्ति समूह को प्रबोध देते हुए परम शिव में कुल कुंडलिनी को मिलाकर विपरीत क्रिया मेंनिःश्वास त्याग के साथ वायु को बाहरी आकाश में स्थापित करना शास्त्र विहित कर्म है।जो कामी प्रश्वास-निःश्वास का अपव्यवहार करते हैं वह सिद्धि, सुख,परागति कुछ भी नहीं पाते; प्राणवायु रूप अग्नि ही शरीर में जागृत गुरु है; वायु की क्रिया ही ब्रह्मविद्या है| वायु के दो गुण हैं शब्द, स्पर्श; वायु के सूक्ष्म नाड़ी पथ में चलने पर शीतलता का बोध होता है; अव्यक्त स्पर्श सुख से मन में आनंद का संचार होता है; अंतःकरण में नाना प्रकार के नाद, वाक्य, लहरी प्रवाहित होते हैं; वाक्यलहरी मेंचित्त को संयत करने से श्रुति-स्मृति को भी शास्त्र कहते हैं| ऋषि गण ने उसी ज्ञान को शास्त्र नाम देकर ग्रंथों में लिपिबद्ध किया है;नाद में ज्योति खिलती है जिससे भूत-भविष्य व्यापार दर्शन होता है; वायु साधक को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बनाकर ज्ञान को शासन में रखती है; वायु की गति घुमाने से मन की अवस्था परिवर्तित होती है| वायु अंतः करण में विशेषभाव का  उदय कराती है; अशरीरी वाणी श्रवण कराती है; ब्रम्हांड का ज्ञान कराती है; कार्य का फलाफल जानना हो तो शरीर में कौन सा गुण, कौन से तत्व की, क्रिया चलती है उसे देखकर जान सकते हैं|

रज , तम , सत्व ये तीन  त्रिकोण आकार में तीन बिंदु के रूप में लक्ष्य में आते हैं;रजो बिंदु त्रिकोण के बाई ओर लाल रंग का; सत्व बिंदु उर्ध्व दिशा में शुभ ज्योत्सना जैसा; तमो बिंदु दक्षिण दिशा में काले रंग का दिखता है; इन्हें वामा,ज्येष्ठा व रौद्री कहते हैं|क्षिति का रंग हरा;अप का फीका आसमानी; तेज का लाल अंगारे सा ;मरुत का धुंए सा;व्योम का आसमानी नीला है |

 

कूटस्थ में वायु ही इन सब का दर्शन करवाती है; योगी गण इसी से फलाफल और कर्तव्यअकर्त्तव्य स्थिर करते हैं;क्षिति का रंग कर्म में शीघ्र फल शुभ, निरापद, अप का रंग फल में संदेह, तेज का रंग कर्म में सिद्धिलाभ न होना, मरुत का रंग कर्म में शुभ लाभ, किन्तु अस्थायी फल वाला; व्योम का रंग विलम्ब से फल प्राप्ति का संकेत देता है| शरीर में रजोगुण का प्रकाश दिखने पर कर्म में प्रवृत्ति, धर्म लाभ होगा क्योंकि वहां धर्मदायिनी शक्ति है; सतोगुण का प्रकाश दिखने पर केवल अर्थ के लिए कर्म करोगे, जिसका फल भी मिलेगा, इसे छोड़कर दूसरा कर्म नहीं करना क्योंकि ज्येष्ठा अर्थ दायिनी  शक्ति है; तमोगुण का प्रकाश जब देखोगे तब काम्य कर्म के उद्देश्य में यात्रा करने से सिद्धि होगी, क्योंकि रौद्री कामसिद्धिदायिनी शक्ति है| इस त्रिकोण के केंद्र में श्री बिंदु दिखता है जो मुक्ति दायिनी शक्ति है; कौशल द्वारा वायुक्रिया को आयत्त करना आत्मा की उन्नति का एकमात्र उपाय है| प्राणायाम आदि अनुष्ठान ही शास्त्र विधानोक्त कर्म है; जो साधक जैसी अधिकार भूमि में खड़ा होगा उसे तद अनुरूप क्रिया करनी होगी; शत्रु वृत्तियों का विनाश करना होगा; इडा-पिंगला शोधन क्रिया, ग्रंथि-भेद आदि का अभ्यास करना होता है, जिससे विभूति लाभ होता है|निःश्वास-प्रश्वास के मध्य काल को बढ़ाना होता है; श्वास को कभी कंठ से, कभी तालू से, खींचना-फेंकना होता है|नाड़ी पथ परिष्कार होकर साधन मार्ग निष्कंटक होता है; मृत्यु काल में यंत्रणा से अधीर होकर आत्म च्युत  होने की संभावना दूर होती है; अर्जुन मोहित होकर तमोगुण के अधीन होकर शोकाकुल होता है तब भगवान उसे सतोमिश्रित रजोगुण प्रधान बनाते हैं |शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य, युद्ध में अपलायन, दान और ईश्वर भाव भरते हैं;साधक प्राण चालन करते रहने पर, सूक्ष्म प्राण रूप  शर-संधान से प्रतिकूल वासना वृत्ति समूह को नष्ट करते हैं।

 

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