अध्याय
छः
श्री
भगवानुवाच
अनाश्रितः
कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स
संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।6.1।। श्रीभगवान् ने कहा -- जो पुरुष कर्मफल पर
आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह
संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल
अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है।।
यं
संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न
ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।।6.2।।
हे पाण्डव ! जिसको (शास्त्रवित्) संन्यास कहते हैं, उसी
को तुम योग समझो; क्योंकि संकल्पों
को न त्यागने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य
तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।6.3।। योग में आरूढ़
होने की इच्छा वाले मुनि के लिए कर्म करना ही हेतु (साधन) कहा है और योगारूढ़ हो
जाने पर उसी पुरुष के लिए शम को (शांति, संकल्पसंन्यास)
साधन कहा गया है।।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी
योगारूढस्तदोच्यते।।6.4।। जब (साधक) न
इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में आसक्त होता है तब सर्व संकल्पों के
संन्यासी को योगारूढ़ कहा जाता है।।
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं
नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव
ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।6.5।।
मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध: पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य
स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।।
तात्विकव्याख्या1- 5-कर्म, प्राण चालन और कार्य, शरीर निर्वाह की क्रिया है । जो साधक कार्य व कर्म
बिना फल की इच्छा करते हैं वह अनासक्त साधक ही सन्यासी और योगी हैं। आत्मा के नशे में
मस्त रहने वाले साधक को कर्मफल छू नहीं सकते ।यही अनाश्रित कर्म फल भोग वाली अवस्था
है । जिसकी यह अवस्था भंग नहीं होती, वही योगी और सन्यासी है ।जो आलसी भिक्षा खाकर, मन से विषय चिंतन करता है वह योगी या सन्यासी
नहीं होता । चित्त वृत्ति का निरोध या चित्त की समाधान अवस्था को योग कहते हैं। विषय
और इंद्रियों के संयोग से उठने वाले भाव को वृत्ति कहते हैं । चित्त का समाधान करने
के लिए पहले संकल्प छोड़ने पड़ते हैं, जिससे अपने आप विकल्प का भी त्याग हो जाता है
। इसलिए सभी त्याग किए बिना योग नहीं होता । योग वा सन्यास परस्पर सापेक्ष हैं और तत्वत: एक हैं । कर्म फल की इच्छा
मन से निकालने वाला मुनि कहलाता है । मुनि के लिए 6 चक्रों में प्राणायाम से आज्ञा चक्र तक उठना ही
कर्म है । इसे आरूरुक्ष अवस्था कहते हैं । आज्ञा चक्र में प्राण स्थित हो जाने पर प्राण
कर्म का अपने आप त्याग हो जाता है। तब शम अर्थात अंतर
इंद्रिय
विक्षेप विहीन अवस्था आती है । अब योगारूढ़ होकर मन में मन देना होता है। तब हिरण्य
मये परे कोषेविरजन ब्रह्म निष्कलं भावना के सिवाय कोई वृत्ति नहीं रहती। तन्मना हो
जाते हैं। यही अष्टांग योग का सातवां अंग ध्यान योग है । यही सहस्त्रार
क्रिया
है परिपाक ज्ञान योग है । इसके बाद ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है। मन को कूटस्थ में रखना ही आत्मा का उद्धार है । विक्षेप रहित अनासक्त अवस्था यही है। अब
नित्य सुख भोग होता है। आत्मा को आज्ञा चक्र से नीचे नहीं आने देना ही ‘नात्मानंवसादयेत्’
अवस्था
है ।आज्ञा चक्र भेदने वाला ही अपना बंधु है । आज्ञा चक्र ना भेदने वाला साधक अपना ही
शत्रु है । अपने आप ही साधक को यह करना होता है।
बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु
शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।6.6।।
जिसने आत्मा (इंद्रियों,आदि) को आत्मा के
द्वारा जीत लिया है, उस पुरुष का आत्मा
उसका मित्र होता है, परन्तु
अजितेन्द्रिय के लिए आत्मा शत्रु के समान स्थित होता है।।
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु
तथा मानापमानयोः।।6.7।। शीत-उष्ण, सुख-दु:ख तथा मान-अपमान में जो प्रशान्त रहता है, ऐसे जितात्मा पुरुष के लिये परमात्मा सम्यक् प्रकार से
स्थित है, अर्थात्, आत्मरूप
से विद्यमान है।।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा
कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त
इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।6.8।।
जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जो
विकार रहित (कूटस्थ) और जितेन्द्रिय है, जिसको
मिट्टी, पाषाण और कंचन समान है, वह
(परमात्मा से) युक्त कहलाता है।।
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि
च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।6.9।। जो पुरुष सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बान्धवों में तथा धर्मात्माओं में और
पापियों में भी समान भाव वाला है, वह श्रेष्ठ है।।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी
यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।6.10।। शरीर और मन को
संयमित किया हुआ योगी एकान्त स्थान पर अकेला रहता हुआ आशा और परिग्रह से मुक्त
होकर निरन्तर मन को आत्मा में स्थिर करे।।
शुचौ
देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं
नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।6.11।। शुद्ध (स्वच्छ)
भूमि में कुश, मृगशाला और उस पर वस्त्र रखा हो
ऐसे अपने आसन को न अति ऊँचा और न अति नीचा स्थिर स्थापित करके....৷৷.।।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने
युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।6.12।। वहाँ (आसन में
बैठकर) मन को एकाग्र करके, चित्त और
इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में किये हुये आत्मशुद्धि के लिए योग का अभ्यास
करे।।
समं
कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य
नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।6.13।।
काया, सिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किये हुए स्थिर
होकर अपनी नासिका के अग्र भाग को देखकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः
संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।6.14।।
(साधक को) प्रशान्त अन्त:करण, निर्भय और
ब्रह्मचर्य ब्रत में स्थित होकर, मन को संयमित करके
चित्त को मुझमें लगाकर मुझे ही परम लक्ष्य समझकर बैठना चाहिए।।
युञ्जन्नेवं
सदाऽऽत्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं
निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।6.15।।
इस प्रकार सदा मन को स्थिर करने का प्रयास करता हुआ संयमित मन का योगी मुझमें
स्थित परम निर्वाण (मोक्ष) स्वरूप शांति को प्राप्त होता है।।
तात्विकव्याख्या 6-15-आज्ञा चक्र में मन को एकाग्र कर
देहअभिमान शून्य होने से साधक जितेंद्रिय होता है, वही महापुरुष है। उन्हें आत्मा से भटक कर दुख
भोग नहीं होता ।राग द्वेष से रहित साधक सर्वत्र आत्म दृष्टि रखता है ।प्रारब्ध
भोगते हुए भी उसका परमात्मा से संग बना रहता है । उपदेश व अनुष्ठान से जो बोध होता
है वही ज्ञान कहलाता है। ज्ञान का चरम है आत्मज्ञान । वि उपसर्ग के दो अर्थ है
विशेष एवं विगत। 24 तत्वों की सत्ता का बोध और उनके मिश्रित
अमिश्रित क्रियाकलाप समझना, उनका अनुसंधान करना विशेष ज्ञान है। क्रिया साधना का अभ्यास करने पर
लय होने पर सब मिट जाता है ।तत्व ज्ञान व तत्वातीत ज्ञान भी मिट जाता है। तब ही
विगत ज्ञान या विज्ञान होता है। इस अवस्था में विज्ञान और अज्ञान समान बोधक है ।
तभी साधक ज्ञान-विज्ञान
तृप्त आत्मा होता है, योगारूढ़ होता है । स्नेह के कारण जो उपकार करता है, वह मित्र है । जो शत्रुता करता है वह
अरि है । विवाद होने पर जो किसी का पक्षपात नहीं करता वह उदासीन है। दोनों दलों के
हित की इच्छा रखने वाला मध्यस्थ है । द्वेष का पात्र अप्रिय है ,जिसके साथ कोई संबंध है वह है बंधु । शास्त्र
के वचन के अनुसार जो क्रिया करे, वह है साधु ।योगारूढ़ योगी समज्ञान संपन्न विशिष्ट है । योगारूढ़ होने
के लिए निर्जन गुप्त स्थान में अकेले बैठकर, सब आशा
त्याग कर, मन को समाहित करना होता है। शरीर में सुषुम्ना ही रहस् है जहां मन
स्थिर होता है । पवित्र स्थान में कुश बिछाकर, उस
पर मृगचर्मया कंबल, उसके ऊपर रेशम बिछाकर, आसन लगाकर बैठना, ना अधिक ऊंचा और ना अधिक नीचा । बहुत देर तक बैठने
पर भी क्लेष ना हो ऐसा आसन लगाना है । खड़ा या सोना नहीं है । बैठकर अभ्यास करना है ।यह योग का बाहरी
अंग है ।योगी के लिए सब कुछ अंदर होता है । सुषुम्ना गुप्त स्थान है । ब्रह्म नाड़ी
महापाप विमोचनी, महापुण्यमयी, नित्या ही पवित्र स्थान है। सुषुम्ना में ना ऊंचा
ना नीचा अर्थात् सात चक्रों का मध्य स्थान अनाहत चक्र है। यहां शरीर के अधोगामी वेग
का भार अर्पण करना है। यही आत्म-आसन
प्रतिष्ठा है । अंग कंपन समाप्त होने पर आसन स्थिर होता है । अनाहत चक्र में प्राण
स्थापना होने पर चैलाजिनकुशोत्तरं अर्थात चैल,अजिन
और कुशा के ऊपर स्थिति होती है । ब्रह्मा जी की पहली सृष्टि कुश, ब्राह्मणीशक्ति पृथ्वी तत्व है, इसका स्थान मूलाधार , अजिन वैष्णवी शक्ति है जिसका स्थान स्वाधिष्ठान, चैल रौद्री शक्ति है जिसका स्थान मणिपुर है । तीनों के ऊपर
हृदय कमल में आत्मशक्ति की प्रतिष्ठा होने से, आत्मासन चैलाजिनकुशोत्तर
होता
है ।अब मन पर पार्थिव विषयों की चंचलता आक्रमण नहीं कर सकती । योगाभ्यास इस विधि से
करने पर चित्त शुद्धि होती है । आसन लगाकर भ्रूमध्य पर ध्यान केंद्रित करने पर रंग-बिरंगे चित्र दिखाइ देते हैं जिनसे मन को
हटाकर मध्य में केंद्रित करना होता है। ध्यान एकाग्र होने पर भय मिट जाता है, नाद ब्रह्म उदय होता है । नाद ब्रह्म का आश्रय लेने
पर साधक ब्रह्मचारी होता है । संकल्प- विकल्प मिटने पर संयतमना होता है । चित्त नाद में
लय होकर ज्योति दर्शन करता है । ज्योति में प्रवेश करने के बाद मत्पर अवस्था आती है
। इस समाहित अवस्था में शरीर एक जल से भरे हुए कुंभ की तरह बैठा रहता है । तारक ब्रह्म
कूटस्थ की पूजा दिन में ही नहीं करना, रात्रि में ही नहीं करना, सर्वदा करना। तभी सर्व सिद्धि मिलती है
। रात्रि 9:30 से सुबह 4:30 तक महानिशा या सर्वदा होता है । यही योगाभ्यास का उत्तम समय है आठ प्रहर
में उसी समय तमोगुण प्रधान होता है । तमोगुण की पूर्णता के कारण इस समय क्रिया करने
पर मन तमोगुण के आकर्षण से जल्दी ही स्थिर होता है, समाहित होता है । शुरू में समाधि निमिष स्थाई होती है फिर अभ्यास से समाधि
का स्थिति काल बढ़ता जाता है, चेतन
समाधि लगती है यही मत्संस्था शांति है।
नात्यश्नतस्तु
योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न
चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।6.16।।
परन्तु, हे अर्जुन ! यह योग उस पुरुष के लिए सम्भव नहीं होता, जो अधिक खाने वाला है या बिल्कुल न खाने वाला है तथा
जो अधिक सोने वाला है या सदा जागने वाला है।।
युक्ताहारविहारस्य
युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य
योगो भवति दुःखहा।।6.17।। उस पुरुष के लिए
योग दु:खनाशक होता है, जो युक्त आहार और
विहार करने वाला है, यथायोग्य चेष्टा
करने वाला है और परिमित शयन और जागरण करने वाला है।।
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः
सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।6.18।।
वश में किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरुपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं
सम्पूर्ण पदार्थों नि: स्पृह हो जाता है, उस
कालमें वह योगी कहा जाता है।
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो
यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।6.19।। जैसे
स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी
वैसी ही उपमा कही गयी है।।
यत्रोपरमते
चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र
चैवात्मनाऽऽत्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।6.20।।
योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुध्द चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस
अवस्थामें स्वयं अपने-आपमें अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है।।
सुखमात्यन्तिकं
यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति
यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।।6.21।।
जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और
बुध्दिग्राह्म है, उस सुखका जिस
अवस्थामें अनुभव करता है और जिस सुखमें स्थित हुआ यह ध्यानयोगी फिर कभी तत्वसे
विचलित नहीं होता है।
यं
लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो
न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।। जिस लाभकी
प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें
स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है।।
तं
विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स
निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।6.23।।
दु:ख के संयोग से वियोग है, उसीको 'योग' नामसे जानना चाहिये
। (वह योग जिस ध्यानयोग लक्ष्य है,) उस
ध्यानयोका अभ्यास न उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक
करना चाहिये।।
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा
सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं
विनियम्य समन्ततः।।6.24।। संकल्प से
उत्पन्न समस्त कामनाओं को नि:शेष रूप से परित्याग कर मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय
को सब ओर से सम्यक् प्रकार वश में करके।।
तात्विकव्याख्या 16-24-योगी के लिए नियमित आहार का विधान है; सात्विक आहार से उदर का आधा अंश अन्न
द्वारा, चौथाई जल या दूध द्वारा, चौथाई वायु चालन के लिए खाली रखना, ही मिताहार है । अंगों को क्रियाशील रखना युक्त
विहार है ।नियमितक्रिया अभ्यास, युक्त चेष्टा है ।अधिक सोने से शरीर में सुन्नता आती है, नाड़ियों में श्लेष्मा बढ़ती है। बिल्कुल ना
सोने से शरीर थका रहता है अतः एक प्रहर की नींद युक्त है । अभ्यास बढ़ने पर रात्रि
का समय योग अनुष्ठान में लगाना है । क्रिया के समय वायु का आहार होता है, निश्वास-प्रश्वास सहज रखना युक्त आहार है , सांस को कभी लंबा, छोटा ना करना ही युक्त चेष्टा है । योग शास्त्र
के अनुसार अज्ञानी का रात दिन का क्रियाकलाप सब स्वप्न समान है ।जगत स्वप्नवत् है, साधना द्वारा अंतः करण में प्रवेश करके
आत्मानंद में जागना ही जागरण या प्रबोध समय है । क्रिया काल बढ़ने पर डर और रोग
समाप्त होते जाते हैं । चित्त का आत्मा में स्थिर होना, सर्व चिंता विवर्जित अवस्था है।सर्व
का अर्थ है पांच तत्व ।आत्मा में स्थिर रहने से पांच तत्वों के साथ संबंध नहीं
रहता । वायु विहीन स्थान में दीपक की शिखा क्रमश: सूक्ष्म होती जाती है । समाधि में वृत्तियां शांत होकर निराकार
परमात्मा में लौ लग जाती है । आज्ञा चक्र में प्राण स्थिर हो जाने पर मन
ऊर्ध्वमुखी रहता है, सहस्त्रार में उठ जाता है। मन में जब
संकल्प-विकल्प
रहता है, तब
तक तर्क चलता रहता है । तब संप्रज्ञात समाधि लगती है , उसके बाद चित्त थोड़ा और आगे बढ़ता है, तुष्टि आती है। आत्मा व प्रकृति को खोजने का भाव
जागता है। विचार अवस्था आती है, जो समाधि का दूसरा स्तर है । इसके बाद अतींद्रिय सुख उदय होता है, जिसे वाणी व्यक्त नहीं कर सकती।
यह सुख
बुद्धि से समझ आता है, यह सुख समाप्त नहीं होता । समाधि का यह
तीसरा स्तर है। चौथी अवस्था में अपने अस्तित्व का बोध मात्र रह जाता है; इसके बाद कैवल्य अवस्था आने पर कोई दुख स्पर्श नहीं
कर पाता । यह है असम्प्रज्ञात समाधि, जिसे
अनुभव से समझा जाता है । अतः सभी इंद्रियों को मन के अधीन जानकर, मन को आत्मा की खोज में लगाने का नियमित
अभ्यास साधक का परम कर्तव्य है। मन यदि इंद्रियों में भटकता रहा, तो साधना आगे नहीं बढ़ सकेगी।
शनैः
शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं
मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।6.25।।
शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न
करे।।
यतो
यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो
नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।6.26।। यह चंचल और
अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात्
आत्मा में स्थिर करे।।
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति
शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।6.27।। जिसका मन
प्रशान्त है, जो पापरहित (अकल्मषम्) है और
जिसका रजोगुण (विक्षेप) शांत हुआ है, ऐसे
ब्रह्मरूप हुए इस योगी को उत्तम सुख प्राप्त होता है।।
युञ्जन्नेवं
सदाऽऽत्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन
ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।6.28।।
इस प्रकार मन को सदा आत्मा में स्थिर करने का योग करने वाला पापरहित योगी
सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्श का परम सुख प्राप्त करता है।।
सर्वभूतस्थमात्मानं
सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते
योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।6.29।।
योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और
भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।
यो
मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं
न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।6.30।।
जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं
दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता।।
सर्वभूतस्थितं
यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा
वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।6.31।। जो पुरुष
एकत्वभाव मंे स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझमें
स्थित रहता है।।
आत्मौपम्येन
सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं
वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।6.32।।
हे अर्जुन ! जो पुरुष अपने समान सर्वत्र सम देखता है, चाहे वह सुख हो या दु:ख, वह
परम योगी माना गया है।।
योऽयं
योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं
न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिं स्थिराम्।।6.33।।
अर्जुन ने कहा -- हे मधुसूदन ! जो यह
साम्य योग आपने कहा, मैं मन के चंचल
होने से इसकी चिरस्थायी स्थिति को नहीं देखता हूं।।
चञ्चलं
हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं
निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।6.34।।
क्योंकि हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है; उसका निग्रह करना मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता
हूँ ।।
तात्विकव्याख्या 25-34- बुद्धि
से विचार कर धीरे-धीरे क्रिया अभ्यास करते रहने पर मन की
दिशा बदलती है ।साधारण अवस्था में शरीर की नाड़ियों में वायु और श्लेष्मा उर्जा को
रोकती हैं; प्राण
चालन से उर्जा प्रवाह बढ़ता है। नाड़ी पथ शुद्ध होते हैं । प्राण का ब्रह्म नाड़ी में
प्रवाह ही आत्मसंस्थ अवस्था है । कभी-कभी
भोग की स्मृति आक्रमण करती है। अब बार-बार
धैर्य से विचार कर प्रयास करना होता है । प्रत्याहार से मन को साधना में लगाने पर प्रशांत
मना अवस्था आती है ।वह शांत होने के बाद साधक शांत रजस होते हैं ।फिर जीवनमुक्त, फिर ब्रह्मानंद लाभ होता है क्रमशः। जीवन मुक्त
योगी अपने अंदर बाहर हर जगह परमात्मा को पाता है। समदर्शी अभेद बुद्धि हो जाने पर नित्ययुक्त
होते हैं , निर्मल , सूक्ष्म दृष्टि होने से ईश्वर भी उनपर मुग्ध होकर अपना अनुग्रह सतत प्रवाहित
करते रहते हैं । दोनों एकात्मा हो जाते हैं,जो विशिष्ट
अद्वैत कहलाता है । ब्रह्म नाड़ी में जो साधक तन्मय हो जाता है वह साधारण जीवन जीता
हुआ भी नित्य मुक्त रहता है । उसके मोक्ष मार्ग में कोई बाधा नहीं आती। योग साधना की
दो अवस्थाएं हैं -- आत्मा भाव अवस्था और जीव भाव अवस्था। बाहर वह जीव भाव धारण करते हैं
और अंतःकरण में आत्म भाव ।जीवभाव में विषय भोग करने पर भी सुख-दुख नहीं होता ।आत्म भाव में निरंतर परम
आनंद प्राप्त होता है । परम योगी आत्मभाव, ब्रह्मभाव पाकर साधना के चरम फल को पाते हैं ।प्रारब्ध
के कारण यदि साधक किसी भोग में प्रवृत्त हो जाए, तो भी वह आसक्त नहीं होता । ज्ञानी धीरता से क्लेश
से परे रहता है पर अज्ञानी क्लेष से दुखी रहता है । आत्म पद में स्थित योगी हर्ष-शोक से मुक्त रहता है। नए साधक को यह अवस्था
अस्थाई प्रतीत होती है, किंतु भगवान कहते हैं कि अभ्यास करते रहने
से यह प्राप्त होता है । कृष्ण ही परम गुरु हैं भक्तों के दुख हरने वाले हैं; वह साधक को निर्वाण की ओर खींच लेते हैं।
श्री भगवानुवाच
असंशयं
महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन
तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।
श्रीभगवान् कहते हैं -- हे महबाहो !
नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे
कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।।
असंयतात्मना
योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना
तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।6.36।। असंयत मन के
पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है, परन्तु
स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा उपाय से योग प्राप्त होना संभव है, यह मेरा मत है।।
अर्जुन उवाच
अयतिः
श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य
योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।6.37।।
अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! जिसका मन योग से चलायमान हो गया है, ऐसा अपूर्ण प्रयत्न वाला (अयति) श्रद्धायुक्त पुरुष
योग की सिद्धि को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है?
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो
महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।। हे महबाहो !
क्या वह ब्रह्म के मार्ग में मोहित तथा आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न मेघ के समान
दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है?
एतन्मे
संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः
संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।।6.39।।
हे कृष्ण ! मेरे इस संशय को नि:शेष रूप से छेदन (निराकरण) करने के लिए आप ही योग्य
है; क्योंकि आपके अतिरिक्त अन्य कोई इस संशय का छेदन करन
वाला (छेत्ता) मिलना संभव नहीं है।।
श्री भगवानुवाच
पार्थ
नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
नहि
कल्याणकृत्कश्िचद्दुर्गतिं तात गच्छति।।6.40।।
श्रीभगवान् ने कहा -- हे पार्थ ! उस पुरुष का, न
तो इस लोक में और न ही परलोक में ही नाश होता है; हे
तात ! कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है।।
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां
श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।6.41।।
योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को प्राप्त होकर वहाँ दीर्घकाल तक वास करके
शुद्ध आचरण वाले श्रीमन्त (धनवान) पुरुषों के घर में जन्म लेता है।।
अथवा
योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि
दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।6.42।। अथवा, (साधक) ज्ञानवान् योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जन्म इस लोक में नि:संदेह अति
दुर्लभ है।।
तात्विकव्याख्या35-42- यम -नियम- आसन- प्राणायाम
से चित्त को एकाग्र करना अभ्यास है ।देखने व सुनने वाले विषय पर वितृष्णा वैराग्य है, इहलोक में सभी भोग विषय दिखते हैं । परलोक में
स्वर्ग आदि भोग अनुश्रविक विषय हैं । वैराग्य आने के बाद प्रकृति पुरुष का भेद प्रत्यक्ष
होता है । प्रकृति के ऐश्वर्य का प्रलोभन मिट जाता है । मन का निरोध हो
जाता है ।अभ्यास और वैराग्य ही चित्त संयम का उपाय हैं । संयमी ही योग का अधिकारी
होता है । श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा से क्रमशः योग में सफलता प्राप्त होती है। मुमुक्षु का योग
उपाय प्रत्यहै। प्राणायाम अभ्यास से पहले श्रद्धा आती है, मन कूटस्थमें टिकता है,
, प्रसन्न होता है, स्मृति
का उदय होता है, ब्रह्म तेज से मन शक्तिशाली यानी वीर्यवान
होता है, अपना दिव्य अतीत स्मरण होने से मन तन्मना
हो कर
साम्यभाव में स्थित होता है । इस प्रज्ञा के बाद चैतन्य समाधि, फिर कैवल्य मुक्ति आती है ।बिना इस क्रमशः गति के
मोक्ष असंभव है। सभी साधक जीवन में सिद्ध नहीं होते ।असिद्ध अवस्था में ही बहुतों को शरीर त्याग ना होता है ।असिद्ध योगी की दो श्रेणियां है - योग अभ्यास करते करते वैराग्य क्षीण होने पर भी
आस्तिक बुद्धि रखने वाले श्रद्धायोपेत:अयति: कहलाते हैं । जो आजीवन साधना करते हैं परंतु अंत
काल में दैव वंश चंचल हो गए, आत्म
तत्व से च्युत हो गए उन्हें योगाच्चलितमानस: कहा
है । साधक का प्रश्न उनके भविष्य के विषय में है। श्री कृष्ण अक्षर, सर्वज्ञ, परिपूर्ण
हैं। अन्य सभी उनके अंश हैं ।त्रिकालदर्शी होने के लिए अक्षर ब्रह्म में चित्त संयम
करना होता है ।साधक के योग भ्रष्ट होने पर भी उसकी दुर्गति नहीं होती। आस्तिक बुद्धि
होने पर आत्म विस्मरण नहीं होता, परलोक
में भी बुरे कर्म में प्रवृत्ति नहीं होती ।हीन जन्म नहीं होता। पिता संतान के रूप
में अपनी आत्मा का विस्तार करता है । अतः उसे तात् कहते हैं पिता भी पुत्र को तात्
कहते
हैं क्योंकि दोनों में आत्मा का विस्तार है ।पहली श्रेणी का साधक परलोक में कुछ काल
निवास कर सुख भोगता है और फिर मृत्यु लोक में जन्म लेता है । पवित्र, संपन्न घर में उसको जन्म मिलता है। दूसरी श्रेणी
का साधक व्यवसायात्मिका बुद्धियुक्त योगी के घर में जन्म लेता है ।वह जन्मसिद्ध शक्ति
प्राप्त करता है, अनायास ही उसे भगवत प्राप्ति हो जाती है।
तत्र
तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते
च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।6.43।। हे कुरुनन्दन !
वह पुरुष वहाँ पूर्व देह में प्राप्त किये गये ज्ञान से सम्पन्न होकर योगसंसिद्धि
के लिए उससे भी अधिक प्रयत्न करता है।।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि
योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44।। उसी पूर्वाभ्यास
के कारण वह अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होता है। योग का जो केवल जिज्ञासु है वह
शब्दब्रह्म का अतिक्रमण करता है।।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु
योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो
याति परां गतिम्।।6.45।। परन्तु
प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों से
(शनै: शनै:) सिद्ध होता हुआ, तब परम गति को
प्राप्त होता है।।
तपस्विभ्योऽधिको
योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको
योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।6.46।। क्योंकि योगी
तपस्वियों से श्रेष्ठ है और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया
है तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिए
हे अर्जुन तुम योगी बनो।।
योगिनामपि
सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते
यो मां स मे युक्ततमो मतः।।6.47।। समस्त योगियों
में जो भी श्रद्धावान् योगी मुझ में युक्त हुये अन्तरात्मा से (अर्थात् एकत्व भाव
से मुझे भजता है, वह मुझे युक्ततम
(सर्वश्रेष्ठ) मान्य है।।
तात्विकव्याख्या 43-43-47पवित्र लक्ष्मीमंत् के घर में अथवा धीमान
योगियों के कुल में जन्म लेकर वह योगी पिछले जन्म से भी अधिक यत्न करके सिद्धि लाभ
की चेष्टा करते हैं। पूर्व जन्म के संस्कार उन्हें साधना को तीव्र करने के लिए आकर्षित
करते हैं ।योग का संस्कार कुछ समय के लिए भोग इच्छा से प्रभावित हो सकता है परंतु, शीघ्र ही भोग का क्षय करके अपनी क्रिया
को प्रकाशित करता है। योगज संस्कार नष्ट नहीं होता । दूसरी श्रेणी का योगी अभ्यास शुरू
करते ही नाद ब्रह्म ज्योति में तन्मय होकर परम पद में स्थित होता है ।प्रणव नाद ही
आदि है। वही सभी चक्रों में वेदों को प्रकट करता है। यह शब्द ब्रह्म कहलाते
हैं। चित्त शुद्धि होने के बाद भी ध्यान का अभ्यास किए बिना मुक्ति नहीं मिलती। अनेक
जन्म संसिद्धिस्ततो याति परांगतिं का अर्थ है अनेक जन्म अर्थात प्राणायामों से संसिद्धि लाभ होता है ।निश्वास
त्याग कर पुनः श्वास ना लेना प्रलय या मृत्यु है। इसे योग शास्त्र में महाप्रलय कहते
हैं। निश्वास त्याग कर पुनः श्वास लेने के पहले के समय को खंड प्रलय कहते हैं । खंड
प्रलय के बाद श्वास भरना ही जन्म है । प्रयत्न की तरह सिद्धि लाभ का भी तारतम्य
होता
है ।संवेग तीव्र होने पर योगी एक जीवन में ही संसिद्ध
होते
हैं। तीव्र संवेग ना होने पर अनेक जन्म लेने पड़ते हैं । समाधि
संप्रज्ञात, असम्प्रज्ञात, सबीज, निर्बीज, कैवल्य,परागति,ब्रह्म निर्वाण इस क्रम से होती है। व्रत और तप करने वाले तपस्वी, शास्त्र के ज्ञाता ज्ञानी, अग्निहोत्र आदि करने वाले कर्मी हैं। योग शास्त्र
में 6 चक्रों में प्राण चालन करने वाला कर्मी, आज्ञा में प्राण स्थिर रखने वाला तपस्वी , आत्म तत्व अनुभव करने वाला ज्ञानी, ब्रह्मा कार वृत्ति में लीन रहने वाला योगी होता
है। अतः भगवान योगी भव अर्जुन कहते हैं ।श्रद्धावान साधक मद्गत चित्त के द्वारा योग की परम अवस्था
का भोग करते हैं । आत्मा में और उन में कोई भेद नहीं रहता।
No comments:
Post a Comment